Wednesday, September 20, 2006

"तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हे टी॰वी॰ दूँगा।"

यह आज के तमिलनाडु का सबसे लोकप्रिय नारा बन गया है। वे दिन लद गए जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देशवासियों को नारा दिया था- "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आजादी दूँगा।" आज न तो नेताओं को खून की जरूरत है और न ही वोटरों को आजादी की क्योंकि भारत आजाद है और खून ब्लड बैंकों में आसानी से मिल जाता है। किन्तु वोट और और टी॰वी॰ खरीदना जरा टेड़ी खीर है सो तमिलनाडु के वोटरों ने करूणानिधि को सत्ता(वोट) सौंपकर आराम से टी॰वी॰ देखने का इंतजाम कर लिया है। करूणानिधि भी जरा स्मार्ट टाइप के नेता है। इस तरफ जनता टी॰वी॰ देखने में मशगूल रहेगी वहीं दूसरी ओर ये गुरू घंटाल बड़ी तसल्ली से जनहित की बजाय स्वहित के कार्यों को अंजाम दे सकेंगे।
परंतु गौर करने वाली बात ये है कि जहाँ आजकल के नेता चुनाव के समय जनता से किये वादे पूरे नहीं करते वहीं माननीय करूणानिधिजी ने अपने चुनावी वादे का पालन करके ऐसे नेताओं के सामने एक उदाहरण पेश किया है। ये बात अलग है कि जो २५ लाख टी॰वी॰ सेट बाँटे जाएँगे उनसे करूणानिधि कि जेब पर कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि टी॰वी॰ सेट्स के लिए १,०६० करोड़ रूपयों का भुगतान सरकारी कोष में से किया जाएगा। जनता के पैसों से ही जनता के वोट खरीदना कोई इनसे सीखे। खैर करूणानिधि के परिवार का 'सुमंगली केबल विजन' नाम से केबल टी॰वी॰ का जो नेटवर्क है उसके ग्राहकों में तो वृद्धि होगी ही।
अम्मा शायद इस समय यही सोच रही होंगी कि जिन टी॰वी॰ प्रेमियों ने उन्हे चुनाव में चारों खाने चित्त कर दिया, क्यों न उन्हे अगले चुनाव में मुफ्त केबल कनेक्शन का लॉलीपॉप थमाया जाए।

Tuesday, September 19, 2006

श्रीमान् चंपू की मोहब्बतें

चंपूजी एक बार हफ्ते भर दिखाई न दिये, एक दिन बाजार जाते हुए रास्ते में टकरा गये। चेहरा कुछ उतरा हुआ था, हमने जानना चाहा तो बोले- "अरे भाई क्या बताऊं एक हफ्ते से हर रोज मोहब्बतें फिल्म का शो देख रहा हूं। बड़ी अच्छी फिल्म है, मुझे तो मुहब्बत हो गयी है।" हमने जानना चाहा कौन है वह खुशनसीब लड़की तो वे बोले- "लड़की-वड़की का कोई चक्कर नहीं है हमें तो बस मुहब्बत हो गयी है।" उनकी ऐसी गूढ बातें सुनकर हमारे माथे पर पसीना आ गया तो हमने सोचा कि इस मुहब्बत का राज फिल्म को देखकर ही पता किया जाय। हमने चंपूजी से हमें भी अगले दिन शो में ले चलने की गुजारिश की तो वे बोले- "अरे भाई तुम इन पचड़ों से दूर ही रहो नहीं तो तुमको भी मुहब्बत हो जायेगी।" अब चूँकि हमने सुन रखा था कि मुहब्बत के लिए एक महबूबा भी होनी चाहिये सो हम चंपूजी की इस मुहब्बत के बारे में जानने के लिये बेताब हो उठे। बमुश्किल चंपूजी हमें शो में ले जाने के लिये तैयार हो गये पर साथ ही चेतावनी भी दी कि अगर मुहब्बत हो जाये तो हमसे शिकायत ना करना। हम मान गये। अगले दिन चंपूजी हमें जिस थियेटर में ले गये वहां का नजारा आम थियेटरों से जरा अलग था। एक मंजिला मकान को थियेटर का रूप दिया गया था। अब चूंकि मकान एक मंजिला था तो थियेटर में बालकनी होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मकान के एक कमरे को थियेटर हॉल का रूप दिया गया था, हॉल में एक छोटा सा पर्दा था और नयी फिल्मों की पायरेटेड सीडी लाकर फिल्म दिखाई जाती थी। दर्शकों के बैठने के लिए हॉल में टूटी-फूटी कुर्सियां थीं साथ ही एक पंखा भी लगा था जो शायद दमे का शिकार होने के कारण हांफ रहा था। फिल्म नयी थी टिकट भी पाँच रूपये था इसलिए शो हाउसफुल था। हॉल का दरवाजा खुलते ही दर्शक इस तरह टूटे जैसे कभी फिल्म न देखी हो। बहरहाल जैसे-तैसे थियेटर वाले ने फिल्म शुरू की। गर्मी के मारे हम बेहाल थे, ऊपर से हॉल में बीडी-सिगरेट पीने वालों की संख्या कुछ ज्यादा ही थी। हम धुंए व गर्मी से बमुश्किल सांस ले पा रहे थे, वहीं चंपूजी फिल्म के हर दृश्य पर वाह-वाह कर रहे थे। सो हमने भी इधर-उधर से ध्यान हटाकर फिल्म पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। हमें फिल्म में शाहरूख खान स्वयं अध्यापक होते हुए अपने कॉलेज के छात्रों को अनुशासन तोड़ने की शिक्षा देते नजर आये। हमने फिल्म का सार समझने की कोशिश की तो हमारी अल्पबुद्धि ने निष्कर्ष निकाला कि फिल्म में लड़की पटाना छात्रों का पुनीत कर्तव्य दिखाया गया है और अनुशासन में रहना पाप है। खैर जैसे-तैसे शो खत्म हुआ तो हमने बाहर आकर राहत की सांस ली, जो कि हम पिछले तीन घंटे से नहीं ले पा रहे थे। शो खत्म होने पर चंपूजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो स्वयं एश्वर्या राय ने पर्दे से बाहर निकलकर इन्हे चुंबन दिया हो। हमने चंपूजी से पूछा कि फिल्म में शाहरूख खान द्वारा जो संदेश दिया गया है क्या आप उसे सही मानते हैं तो वे उबल पड़े- "अरे तभी तो मैं आप जैसे लोगों को अपने साथ शो में नहीं लाता। खामख्वाह प्रश्न पूछने लग जाते हैं छोड़िये आप जैसे लोगों को तो कभी मुहब्बत हो ही नहीं सकती।"परंतु इतनी जद्दोजहद के बाद भी हम चंपूजी की मोहब्बत का अर्थ नहीं समझ पाये अलबत्ता हमें उस थियेटर और फिल्म से जरूर नफरत हो गयी।

Monday, September 18, 2006

विदर्भः एक राष्ट्रीय शर्म


इस वर्ष भी मुंबई में गणेशोत्सव की धूम रही और चूंकि ये महानगर भारतीय भद्रवर्ग के सपनों का प्रतीक है सो मीडिया कवरेज तो मिलना ही था। प्रत्येक मीडिया चैनल ने कवरेज की इस होड़ में बढ चढकर हिस्सा लिया। बताया जा रहा था कि फलां मंडल में बालीवुड की कितनी हस्तियां पधारीं, किस बालीवुड हस्ती के घर में किस प्रकार के गणपति स्थापित किये गये, कौन सा गणपति पंडाल चढावे के मामले में कितना अमीर है। यहां तक कि मुंबई के लालबाग के राजा के नाम से मशहूर गणपति को तो लोगों ने लगभग पूरा ही सोने का बना डाला था।
दूसरी तरफ राज्य के पूर्वी हिस्से, जिसे विदर्भ के नाम से बेहतर जाना जाता है, में सन्नाटा पसरा हुआ था। ऐसा त्यौहार जब पूरा महाराष्ट्र जश्न में डूबा रहता है, विदर्भ में मौत पसरी हुई थी। उदाहरण के लिये अकोला जिले के एक गांव सांगलुड को ही लें यहां वर्ष २००४ में सात गणेश मंडल थे। २००५ में एक भी नहीं बचा, उत्सव का मुख्य आयोजक एक किसान था जिसने आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या कर ली थी। जून २००५ से जून २००६ तक ७६० किसानों द्वारा आत्महत्या की गई जबकि सितंबर तक ये आंकडा ८५० को पार कर चुका है। अर्थात पहले औसतन १२ घंटे में एक आत्महत्या हो रही थी वहीं अब ये दर प्रति आठ घंटे एक आत्महत्या पर जा पहुंची है। माननीय प्रधानमंत्री के दौरे और उनकी घोषणाओं के बाद भी स्थिति जस कि तस है और प्रशासन की कान में जूं तक नहीं रेंगी है साथ ही जाते जाते प्रधानमंत्री यह भी कह गये कि लोग खेती छोडकर अन्य काम करें। विडंबना तो ये है कि प्रधानमंत्री के दौरे से पहले मुख्यमंत्री और प्रदेश के किसी मंत्री तक ने यहां आने की जहमत नहीं उठाई। और इससे ज्यादा शर्म की बात क्या होगी कि भारत जो स्वयं को आगामी वर्षों में चीन और अमेरिका के समकक्ष खडा देखता है, वहां के कृषि मंत्री अपने राज्य में हो रही मौतों से आंखें मूंदे हुए है और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में राजनीति का गंदा खेल खेलकर भारतीय क्रिकेट की बखिया उधेडने में व्यस्त हैं।
क्या इस सब के बावजूद हमारी मीडिया की कोई जिम्मेदारी बनती है? जवाब है- नहीं। क्योंकि उन बेचारों को तो खबर और सनसनी में अंतर ही नहीं पता। अब जहां मीडिया से जुडे लोग खबर की परिभाषा से ही परिचित ना हों तो क्या ये हमारी तानाशाही नहीं होगी कि हम उन पर 'खबरों' को प्रस्तुत करने की जिम्मेदारी लादें। वे बेचारे तो सनसनी फैलाकर अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं। 'द हिंदू' के द्वारा काफी लंबे समय से दक्षिण भारत में किसानों की समस्याओं को उठाया जा रहा है चाहे वह आंध्रप्रदेश हो कर्नाटक हो या आज का विदर्भ। वास्तव में ऐसे मीडिया ग्रुप्स बधाई के पात्र हैं।
गौर करने वाली बात तो ये है कि महाराष्ट्र जिसे देश का सबसे अमीर राज्य भी कहा जाता है, वहां कुपोषण से होने वाली मौतों की संख्या देश में सर्वाधिक है। माननीय मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा इस कारण कई बार प्रदेश सरकार को फटकार भी खानी पडी है। स्वयं को देश का सबसे अग्रणी राज्य बताने वाले महाराष्ट्र के नेता क्या मुंबई की चकाचौंध से निकलकर विदर्भ के किसानों के लिये कुछ करेंगे?

हमारे मित्र श्रीमान् चंपू

श्रीमान् चंपू से हमारी दोस्ती उस वक्त हुई जब हम ग्यारहवीं कक्षा में थे। श्रीमान चंपू उस समय कक्षा में नये थे। कुछ मुलाकातों के पश्चात हमने जाना कि चंपूजी एक 'दूरद्रष्टा' व वैचारिक रूप से समृद्ध मष्तिष्क के स्वामी हैं सो 'हमारे जैसे अल्पबुद्धि वाले' प्राणियों का उनकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। चंपूजी जब भी मिलते दीन-दुनिया की नई-नई बातें व विचारों का हमला इस तरह करते कि हमारी अल्पबुद्धि उनकी विद्वत्ता का लोहा मान जाती। चूँकि महाशय मैट्रिक के समय हॉस्टल में थे सो उनकी बहस करने की क्षमता एक अनुभवी वकील को भी मात करती थी। हम जब भी घर से स्कूल के लिए निकलते वे हमें रास्ते में मिल जाते और कहते- "अरे ये कक्षाओं में जाकर पढना तो मूर्खों के चोचले हैं, असल बुद्धिमान तो वे हैं जो दिन में विद्यालय से बंक मारें और रात में जाग-जागकर पढें", सो वे हमें स्कूल टाइम में शहर भर में घुमाते और हमें एक शिष्य की तरह दुनियादारी की बातें समझाते। अब चूँकि हम जैसे 'अल्पबुद्धि वाले' प्राणियों की क्या मजाल कि ऐसे महात्मा की बातों को अस्वीकार दें सो हम भी उन्हे गुरू मानकर उनके बताये मार्ग पर चल पड़ते। कभी हम दिन में अध्ययन करते तो वे आकर हमें समझाते कि- "अरे भाई कैसा अनर्थ करते हो, क्या सिनेमा नहीं देखते? फिल्म में हीरो किस तरह पढाई-लिखाई जैसी चीजों के साथ हीरोइन के साथ रोमांस और विलेन की पिटाई इत्यादि सभी को एक साथ मेंटेन कर लेता है, परंतु एक आप हो कि पढाई के अलावा दूसरा काम नहीं कर पाते"। वे हमें तरह-तरह के उदाहरण देकर समझाते कि किस तरह होनहार लड़के दिन में घूमने फिरने, लड़की पटाने के साथ रात में पढाई भी कर लेते हैं। आखिर कौन इतना मूर्ख होगा कि इतने ज्ञान की बातें सुनकर भी उसका माथा न ठनके सो धीरे-धीरे ही सही उनकी बात हमारी समझ में आने लगीं। चंपूजी का जीवन के हर क्षेत्र में ज्ञान हम पर उनका प्रभाव डालने के लिए काफी था।
कभी-कभी चंपूजी ट्रेन से किसी दूसरे शहर जाते तो लौटकर बताते कि किस चतुराई से उन्होने टी॰सी॰ को चकमा देकर टिकट के पैसे बचाये। वे हमें टिकट ना लेने के फायदों के बारे में विस्तार से समझाते कि टिकट के पैसों को बचाकर कैसे हम उनसे सिनेमा का एक शो देख सकते हैं और साथ ही वे देश की भलाई भी करते नजर आते- कि जब सरकार जनता की भलाई चाहती है और इसीलिए वह हमारे लिए ट्रेन बस आदि चलवाती है तो क्यों ना हम टिकट के पैसे बचाकर खुद ही अपनी भलाई कर लें और सरकार का लक्ष्य भी पूरा हो जाए। उनके ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण तर्कों को सुनकर हम भी नतमस्तक हो जाते।
चंपूजी अखबार पढने के बड़े शौकीन थे। एक दिन अखबार में भ्रष्टाचार विरोधी लेख पढकर बोले कि वे भ्रष्टाचार के विरोधियों से बिलकुल भी सहमत नहीं हैं। उन्होने समझाया कि भ्रष्टाचार तो उल्टा देश की तरक्की में योगदान दे रहा है- एक तो रिश्वत देने वालों के बडे बडे काम चुटकियों में हो जाते हैं दूसरा रिश्वत लेने व भ्रष्टाचार करने वालों के घरों में समृद्धि आती है और जो लोग भ्रष्टाचार नहीं करते वे भी यदि इसमें बढ चढकर हिस्सा लें तो सभी लोग समृद्ध हो जायेंगे और आखिर में देश भी समृद्ध हो जायेगा। हम बगलें झाकने लगे, अरे भई जब चंपूजी ने देश की समृद्धि का इतना सस्ता व सरल फार्मूला बता दिया तो हमने चुप रहना ही बेहतर समझा।
हमारे चंपूजी जरा आलसी किस्म के इंसान थे। तरक्की, उन्नति व मेहनत जैसे शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं थे सो उनके अनुसार किसी को भी तरक्की के लिये प्रयास करने की जरूरत नहीं है, यह तो एक स्वतः प्रक्रिया है जो बिना किसी प्रयास के स्वयं ही चलती रहती है इंसान बेकार में ही अपने हाथ पैर चलाता है। चंपूजी के दर्शन के अनुसार देश में जो कुछ हो रहा है वो अपने आप हो रहा है, जबकि कुछ लोग हल्ला मचाते हैं कि आर्थिक सुधारों और सरकारी प्रयासों के कारण देश में तरक्की हो रही है। उन दिनों हमारे वाजपेयीजी देश में सड़कें बनवा रहे थे परंतु चंपूजी इस बात से सख्त नाराज थे कि कुछ लोग उनकी इस काम के लिए बेवजह तारीफ किये जा रहे हैं। उनका कहना था कि भई इसमें सरकार का क्या रोल है ये सड़कें तो समय के साथ बननी ही थीं और बन भी रही हैं। सुनकर हमें भी लगा कि जब सड़कें अपने आप बन रही हैं तो हमारे वाजपेयीजी व राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण क्यों व्यर्थ अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं।
चंपूजी जातिवादी राजनीति के पक्के समर्थक थे। उन दिनों हमारे प्रदेश में विधानसभा चुनाव थे और जिले की दो सीटों से उनकी जाति से संबंधित उम्मीदवार भी मैदान में थे तो चंपूजी भी अपनी जाति के उम्मीदवारों के समर्थन की खातिर मोहल्ले के लोगों को समझाते हुए दिखे कि किस तरह उनके दोनों उम्मीदवारों का जीतना तय है और प्रदेश में उनकी जातिविशेष से संबंधित पार्टी की सरकार बनने वाली है परंतु नतीजे वाले दिन जब हम उनसे मिले तो वे बड़े आहत दिखे। उनके एक उम्मीदवार तो जमानत ही गंवा चुके थे दूसरे बमुश्किल बचा पाए। चंपूजी बोले कि हमारे भारत देश की जो पहचान है (जातिव्यवस्था) उसे ही हमारे वोटरों द्वारा भुलाया जा रहा है, चंद वोटर जागरूक होने के नाम पर इस देश का कबाड़ा करने में जुटे हैं। उन्होने आगे जोड़ा कि सदियों से हमारे पूर्वजों द्वारा जातिव्यवस्था को सहेज कर रखा गया और वर्तमान में यह पुनीत कार्य हमारे राजनेता कर रहे हैं तो चंद पढे-लिखे लोग इस पर हल्ला क्यों मचा रहे हैं। उनकी इन बुद्धिमत्तापूर्ण बातों को सुनकर हमारा मन वाह वाह कर उठा।
परंतु मित्रों हमें खेद के साथ ये बताना पड़ रहा है कि श्रीमान चंपूजी के परिवार के किसी दूसरे शहर में शिफ्ट हो जाने के कारण वे हमसे दूर जा चुके हैं परंतु उनका दर्शन आज भी हमें नयी राह दिखाता है।

Sunday, September 17, 2006

मेरा पहला ब्लॉग

इंटरनेट प्रयोग करते हुए वर्षों बाद अपना पहला ब्लाग लिखते समय एक सुखद अनुभव हो रहा है। इंटरनेट ने दुनिया भर के लोगों के मध्य संवाद को कितना सरल एवं सहज बना दिया है। अब तक इंटरनेट का प्रयोग मैं नयी नयी सूचनाओं की खोज एवं मित्रों से संवाद अर्थात् चैटिंग में करता आया हूं परंतु ब्लाग लिखना एक अलग ही अनुभव है। कई मित्रों के ब्लाग मैंने देखे और जाना कि लोग कितनी खूबसूरती से इसका प्रयोग अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिये कर रहे हैं। सो मैने सोचा कि क्यों ना मैं भी इस बहती गंगा में कूद पडूं। पहले मैं अक्सर डायरी लिखा करता था परंतु ब्लाग में सबसे बढिया बात ये है कि इसे एक डायरी के रूप में इस्तेमाल के साथ साथ दोस्तों को भी उपलब्ध कराया जा सकता है। साथ ही इस पर मित्रों की प्रतिक्रिया जानना भी एक अच्छा अनुभव होगा।सबसे अच्छी बात जिसके कारण मैं ब्लाग लिखने के लिए प्रेरित हुआ वो है युनीनागरी जैसे सरल सॉफ्टवेयर की उपलब्धता। मेरा एसा मानना है कि इंसान जो अभिव्यक्त करना चाहता है वो उसके दिल से निकलता है और दिल से निकले हुए शब्दों की अभिव्यक्ति मातृभाषा में हो तभी वह सार्थक है।