Saturday, January 12, 2008

दुनियां हसीनों का मेला अब भी है

मेरे एक मित्र हैं- स्‍वभाव से ही मनचले। मनचलापन, टुच्‍चापन, मोटरसायकल लहराकर लड़की को छेड़ते हुए निकलना जैसे गुण उनके व्‍यक्तित्‍व में चार चांद लगाते हैं। मुझे उनसे बड़ी जलन होती है क्‍योंकि चालू भाषा में बोलें तो उन्‍होंने अब तक के अपने जीवन में ऐश ही ऐश कीं पर हम जैसे लोग आमतौर पर जिंदगी को ऐश से जीने की बजाय काटते हैं।

पर पिछले साल उनकी इस खूबसूरत जिंदगानी में ट्विस्‍ट आ गया। उनका ब्‍याह हो गया। भाभी को घर ले आए। ब्‍याह होने के बाद काफी समय तक हम यार लोग उनसे सहानुभूति जताते रहे। वे भी बड़ा सीरियस होकर हामी भरते रहे कि हां अब वे दिन कहां रहे ! अब तो जिंदगी की गाड़ी में जुत जाना है। पर वक्‍त बदल जाता है लोग नहीं बदलते। दोस्‍तों की भाषा में कहें तो वे आज भी अपने लड़की पटाओ अभियान में उसी तरह तन-मन-धन से जुटे हैं जैसे शादी के पहले थे। बल्कि यूं कहें कि अब पहले से अधिक कन्‍याएं उनसे पटी हैं। एक दिन मिल गए तो अपने मुंह से निकल ही गया कि भाई अब तो सुधर जाईये- आप अब पति-परमेश्‍वर हो गए हैं। ये सब शोभा नहीं देता, अब तो छोड़ दीजिए। मुझे उनके बिदकने की आशा थी। हुआ उल्‍टा। कहने लगे यार सही कहते हो- मैं तो पहले से ही सुधरने के बारे में सोचने लगा हूं। बस फिर क्‍या होना था अपन कुछ कहने लायक ही नहीं बचे।

कहते हैं समय अच्‍छे-अच्‍छों को बदल देता है। पर समय अच्‍छों को ही बदल पाया है चालुओं को नहीं। और अच्‍छों का बदलना भी क्‍या बदलना। अच्‍छे तो अक्‍सर चाहकर भी चालू नहीं हो पाते। मिल गए एक दिन मोटरसायकल पर सवारी करते हुए। अपन भी पीछे लद लिए और श्रीमान जब मोटरसायकल पर और मूड में हों तो शहर की सड़कें नापते हुए सौंदर्य-दर्शन का कर्तव्‍य बखूबी निभाते हैं। दर्शनार्थियों में तो हम भी हैं पर दर्शन के आगे के विधि-विधान के मामले में अपना तो डब्‍बा गोल है। श्रीमानजी सौंदर्य-दर्शन का लुत्‍फ लेते हुए अपनी कुछ पूर्व प्रेमिकाओं की गलियों में भी चक्‍कर काट रहे थे और अपन उनके सुधरने के प्रति किये गये वादों को याद कर रहे थे। कुछ दिन बाद हमने उनसे उनकी एक पूर्व प्रेमिका का जिक्र छेड़ दिया तो मुंह बिचका कर बोले- छोड़ो यार अब उन कहानियों को। हमें आस बंधी कि भाईसाहब धीरे-धीरे ही सही कम से कम भाभी के लिए पति परमेश्‍वर की भूमिका में आने का उपक्रम तो कर रहे हैं। पर ऐसी सब उम्‍मीदें तब टें बोल गयीं जब पता लगा कि श्रीमान पुरानी कन्‍याओं से और उनके नखरों से उकता गये हैं और नयी वालियों पर लाइन मार रहे हैं।

कभी-कभी लगता है कि अपन खाली-पीली वैसे ही लाइफ खराब किये। खाता तक नहीं खोल पाये। यहां आदमी चौके-छक्‍के लगा रहा है। कमीनेपन और दोहरी जिंदगी जीने का अपना मजा है। जब मन में आध्‍यात्‍म का कीड़ा कुलबुलाये तब मंदिर हो आये। शादी हो जाये तो दूसरों के सामने एक शरीफ गृहस्‍थ भी बन गए और इससे टाइम मिलने पर अपनी जानू के साथ मोबाइल पे प्रोग्राम भी फिक्‍स कर रहे हैं।

कभी-कभी आमिर खान को जूते मारने का मन करता है। गाना तो गा दिये- "दुनियां हसीनों का मेला मेले में ये दिल अकेला"। पर हमें ऐसा मेला कहीं नजर ही नहीं आया। हालांकि हमारे मित्र आमिर खान से पूरी तरह सहमत हैं और चूंकि दुनियां एक हसीनों का मेला है इसलिए उनकी भी मजबूरी है कि इस दुनियां का लुत्‍फ उठायें। हमें भी तो कोई इस मेले में ले चले !