Saturday, April 05, 2008

ग से ‘गाय’ नहीं सी फॉर ‘काऊ’

मेरे चिट्ठे पर प्रकाशित डा. निरंजन कुमार का आलेख पढ़कर हमें पता चला कि कैसे इस देश का नाम इंडिया पड़ा और अपने देश के लिए आजकल भारत या हिन्‍दुस्‍तान की बजाय लोग विदेशियों की तर्ज पर इंडिया शब्‍द का प्रयोग करना अपनी शान समझते हैं।

पर ये इंडियंस वास्‍तव में चाहते क्‍या हैं ? इंडिया शब्‍द कहने से केवल इस बात का बोध नहीं होता कि फलां व्‍यक्ति अपने देश का नाम अंग्रेजी में ले रहा है बल्कि इसके बहुत गहरे निहितार्थ हैं और इसके पीछे की मंशा पर भी विचार किया जाना चाहिए।

सीधे शब्‍दों में कहा जाए तो यह तीन अक्षर का शब्‍द इंडिया हमारी हजारों वर्षों की पहचान को मिटाने की विदेशी साजिशों और हमारे देश में रहने वाले इंडियंस की नासमझी और विकृत मानसिकता का प्रतीक है।

मेरे पड़ौस में रहने वाले शर्माजी अपने दो वर्षीय नाती को घुमाने ले जाते हैं तो रास्‍ते में मिलने वाले जानवरों से उसका परिचय कराते हैं। परिचय कराते समय वे इस बात का विशेष ध्‍यान रखते हैं कि जिन भी जानवरों का नाम वे अपने नाती को बतायें वे अंग्रेजी में हों। गाय के लिए काउ, कुत्‍ते के लिए डॉग, सुअर के लिए पिग और चिडि़या के लिए बर्ड जैसे शब्‍द वे अपने छोटे से नाती को सिखाते हैं। एक दिन वे सिखा रहे थे- काउ इज अवर मदर। मुझे लगा कि अगले दिन वे यह न सिखाने लगें कि एलिजाबेथ इज अवर मदर।

खैर ये तो एक उदाहरण है। पर आप कहीं भी नजर दौड़ाईये आप ये अवश्‍य पाएंगे कि जो इंडियंस खुद अपनी पूरी उमर में अंग्रेजी नहीं सीख पाए वे बच्‍चे को अंग्रेजी में धुरंधर बनाने का अजीब सा हठ रखते हैं। हर कोई इस बात पर तुल गया है कि कैसे भी करके अपने बच्‍चे को अंग्रेजी ही सिखाई जाए और ऐसे में भले बच्‍चा अपनी भाषा हिंदी सीखने से वंचित रह जाए। हिंदी सीखने को एक गैरजरूरी और समय बर्बाद करने वाला काम समझा जाने लगा है। मेरे एक परिचित डॉक्‍टर के पास एक सज्‍जन अपने बेटे को दिखाने लाए। डॉक्‍टर ने कहा- बेटे जीभ दिखाओ। बच्‍चे ने नहीं दिखाई। फिर उसके पिता ने कहा- बेटे टंग दिखाओ और बेटे ने जीभ दिखा दी।

अपनी उमर भर गाय को गैया कहने वाले और पक्षियों को परेबा कहने वाले जब छोटे बच्‍चों के सामने बनावटी ढंग से अंग्रेजी में काउ और बर्ड हांकने लगते हैं तो दिल को बहुत कोफ्त होती है। अंग्रेजी को एक विषय के रूप में सिखाये जाने की बजाय हम बच्‍चों को पूरा ही अंग्रेज बनाने पर तुल गये हैं। इस तरह के ब्रेनवॉश से जो पीढ़ी सामने आयेगी वो बाद में अपने बुजुर्ग मां-बाप से यही पूछेगी कि- व्‍हाट इज दिस फ्रीडम फाइटर एंड व्‍हाई डिड दे फाईट फार इंडिया। तो फिर वे क्‍या जवाब देंगे ? क्‍या ऐसे लोग जो खुद अपनी पहचान मिटाने पर तुले हैं अपने बच्‍चों को समझायेंगें कि हमारे स्‍वतंत्रता-सेनानी अपनी पहचान, अपने भारत के लिए अंग्रेजों से लड़े। ये कैसे अपने बच्‍चों को ये समझा पाएंगे कि वे किस भारत देश के लिए लड़े जबकि ये लोग अब उसी भारत के खिलाफ, उसकी पहचान के खिलाफ हैं। भाषा केवल शब्‍दों के माध्‍यम से अपनी बात कहना भर नहीं है। उससे हमारी पहचान, हमारा इतिहास, हमारा सम्‍मान बहुत कुछ जुड़ा होता है।

अभिभावकों द्वारा ऐसी मानसिकता को अपना लिये जाने के भी कुछ कारण हैं। हर किसी के अंदर एक बहुत बड़ा डर बैठा हुआ है कि हमारा बच्‍चा किसी से कमतर न हो और इस कमतरी का मतलब हिंदी में बात करना, अंकल को चाचा कहना और टेंपल को मंदिर कहना समझ लिया गया है। लोगों को लगता है यदि बच्‍चे को जिंदगी की रेस में दौड़ाना है तो उन्‍हें घोड़े को घोड़े की बजाय हॉर्स कहना सिखाना होगा। हर कोई अपनी पहचान को मिटाने और अंग्रेज बन जाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। भारतीयता को मूर्खता, पिछड़ेपन और गँवारपन का पर्याय मान लिया गया है। लोग खुद के भारतीय होने पर शर्म महसूस करते हैं। हम खुद के भारतीय होने के खिलाफ लड़ रहे हैं। अपनी पहचान के खिलाफ लड़ रहे हैं। हम उस पहचान के‍ खिलाफ लड़ रहे हैं जिससे हमारा अस्तित्‍व है और अपने ही अस्तित्‍व के खिलाफ इस लड़ाई में हम खुद को ही हार जाने वाले हैं।

एक देश दो नाम

अमेरिका में प्रोफेसर डा. निरंजन कुमार का यह लेख 3 अप्रैल के दैनिक जागरण में छपा था। इस लेख में उन्‍होंने भारत के विविध नामों और उनकी उत्‍पत्ति पर प्रकाश डाला है। बेहद जानकारीपूर्ण यह लेख मैं दैनिक जागरण और डा. निरंजन कुमार के आभार सहित यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं-


एक देश दो नाम

-डॉ. निरंजन कुमार

विदेश में रहते हुए अपने देश को नए तरीके से देखने-समझने की दृष्टि मिलती है। इनमें से एक है कि अपने देश का नाम क्या हो? वैसे अपने देश के कई नाम रहे हैं-जंबूद्वीप आर्यावर्त, आर्यदेश या आर्यनाडु, भारत, हिंद, हिंदुस्तान, इंडिया आदि। जंबूद्वीप नाम धार्मिक होने की वजह से एवं आर्यावर्त और आर्यदेश या आर्यनाडु जाति बोधक होने से खुद ही अप्रचलित हो गए। आज प्रमुख रूप से तीन नाम मिलते हैं- इंडिया, हिंदुस्तान, और भारत। सबसे पहले इंडिया को देखें। इंडिया काफी पुराना शब्द है और ग्रीक भाषा से आया है। ईसा पूर्व चौथी-पांचवीं सदी में ग्रीक लोगों ने सिंधु नदी के लिए इंडस शब्द का प्रयोग किया और इससे आगे की भूमि को इंडिया कहा, जो बाद में चलकर इंडिया बन गया। ग्रीक से यह दूसरी सदी में लैटिन में आया और फिर 9वीं सदी में अंग्रेजी में, लेकिन अंग्रेजी में इसका बहुलता से प्रयोग 16वीं- 17वीं सदी में हुआ। इंडिया शब्द पर विचार करें तो एक ओर तो यह पश्चिम/अंग्रेजी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी शासन की देन है और दूसरी तरफ यह शब्द उन देशवासियों को अपने में समाहित करता नहीं दिखाई पड़ता है, जो देश की मेहनतकश आम जनता है, जो गांवों और छोटे शहरों में रहती है या बड़े शहरों में हाशिए पर है। इंडिया और इंडियन से हमें ऐसे लोगों या वर्ग का बोध होता है जो शक्ल और सूरत में भले ही देश के अन्य लोगों की तरह हों, पर अपने व्यवहार, वेशभूषा, बोली और संस्कृति में मानो पश्चिम की फोटोकापी हों। इस तरह इंडिया शब्द में एक तरफ जहां साम्राज्यवादी गंध है तो दूसरी ओर यह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता दिखाई नहीं पड़ता। दूसरा शब्द है हिंदुस्तान। यह शब्द भी काफी पुराना है। इसका उद्गम भी उसी सिंधु नदी से हुआ है। ईरानी लोग स का उच्चारण नहीं कर पाते थे, इसे वे ह कहते थे। इसलिए प्राचीन ईरानी और अवेस्ता भाषाओं (ईपू10वीं सदी) में सिंधु के लिए हिंदू मिलता है। ईपू 486 की पुस्तक नक्श-ई-रुस्तम में उल्लेख मिलता है कि ईरान के एक शासक डारीयस ने इस प्रदेश को हिंदुश कहा। अवेस्ता भाषा में स्थान के लिए स्तान शब्द मिलता है। इस प्रकार यह प्रदेश हिंदुस्तान कहा जाने लगा और यहां के निवासी हिंदू। उस समय हिंदू शब्द धर्म का पर्याय नहीं था। अरबी में इसे अलहिंद कहा जाता था। 11वीं सदी की इतिहास की पुस्तक है तारीख अल-हिंद। इसी से हिंद शब्द आया। इस प्रकार हिंदुस्तान शब्द शुद्ध रूप से एक सेकुलर शब्द था, लेकिन मुख्य रूप से यह उत्तर भारत के लिए इस्तेमाल होता था। अंग्रेजी शासन काल में फूट डालो और राज करो कि नीति के तहत हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई पैदा होनी शुरू हुई। इसी समय दुर्भाग्यवश नारा आया हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का, जो कि धार्मिक- राजनीतिक भावना से प्रेरित था। इस बढ़ती हुई दूरी का दुष्परिणाम सामने आया जिन्ना की टू नेशन थ्योरी के रूप में। इस द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के अनुसार, हिंदू और मुस्लिम, दो अलग-अलग राष्ट्र या राष्ट्रीयता हैं। हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है, इसलिए मुसलमानों के लिए एक अलग देश होना चाहिए। इसी से पाकिस्तान की मांग आई। इस तरह हिंदुस्तान शब्द, जो पूरी तरह से पंथनिरपेक्ष शब्द था, एक तरह से सेकुलर नही रह गया। अधिकांश बड़े नेता-गांधीजी, नेहरू, मौलाना आजाद आदि जिन्ना से सहमत नहीं थे, लेकिन विशिष्ट ऐतिहासिक, राजनीतिक परिस्थितियों में पाकिस्तान बन गया। हमारे नेताओं ने यह कभी नहीं माना की हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का देश है। यह अनायास नहीं था कि जब देश का संविधान बना तो इसके पहले ही अनुच्छेद में कहा गया है कि इंडिया अर्थात भारत राज्यों का एक संघ होगा। इस मिले-जुले धर्म, समाज और संस्कृति वाले देश को पूरी दुनिया आश्चर्य और सम्मान से देखती है। इंडिया शब्द को अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण था, शायद इसके पीछे औपनिवेशिक शासन का मनोवैज्ञानिक दबाव रहा होगा। औपनिवेशिक-मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण ही अनुच्छेद 343 के तहत दुर्भाग्यवश हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा बना दिया गया। इसी मानसिकता के तहत कालिदास को भारत का मिल्टन, समुद्र गुप्त को नेपोलियन बोनापार्ट और कह दिया जाता है, जो कि बिल्कुल औपनिवेशिक व्याख्या है, लेकिन आज वह दबाव खत्म हो चुका है। भारत नाम सबसे सार्थक है। यह शब्द संस्कृत के भ्र धातु से आया है, जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, वहन करना निर्वाह करना। इस तरह भारत का शाब्दिक अर्थ है-जो निर्वाह करता है या जो उत्पन्न करता है। भारत का एक अन्य अर्थ है ज्ञान की खोज में संलग्न। अपने अर्थ और मूल्य में यह शब्द सेकुलर भी है। यह नाम प्राचीन राजा भरत से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसका कोई धार्मिक मतलब नहीं। संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित 23 भाषाओं में से लगभग सभी में इसे भारत, भारोत, भारता या भारतम कहा जाता है। क्या अच्छा हो कि हम इसे इंडिया की जगह भारत पुकारें।

साभार: दैनिक जागरण

Friday, April 04, 2008

चीन के आगे गिड़गिड़ाने के मायने

अब तो रोजमर्रा की बात हो चली है कि हमारे माननीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी चीन को आश्‍वासन देते रहते हैं कि हमारी धरती से आपके खिलाफ हम कोई गतिविधि नहीं होने देंगे। उधर चीन कभी आंखें दिखाता है तो कभी पीठ थपथपाता है।

फिर से प्रणब मुखर्जी ने चीन के आगे घुटने टेकने वाले रुख के साथ वही बात दोहराई कि भारत तिब्‍बत को चीन का हिस्‍सा मानता है और भारत में ओलंपिक मशाल को पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी। साथ ही दलाईलामा को फिर से समझाया गया है कि वे भारत में बस मेहमान बनकर रहें और चीन के खिलाफ कोई हरकत न करें। हालांकि वैसे भी वे कुछ करने के मूड में नहीं लगते।

विदेश नीति के हिसाब से देखा जाए तो भारत और चीन के रिश्‍तों में लंबे समय की कटुता के बाद अब संबंध सामान्‍य हो चले हैं। हालांकि जानकारों का कहना है कि द्विपक्षीय संबंधों के इस मधुर दौर में भारत को चीन के खिलाफ कुछ भी कहने से बचना चाहिए। पर मेरा मानना है कि भारत भले ऐसा सोचता हो चीन कभी भारत के साथ संबंध मधुर रखने का पक्षधर नहीं रहा है। वह केवल दबाव की विदेश नीति भारत जैसे देशों पर लागू करता रहा है और संभवत: आगे भी करता रहेगा। दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध भी इस कारण सामान्‍य हैं कि भारत के साथ उसका कारोबार 60 अरब डॉलर के आंकड़े पर दस्‍तक दे रहा है और आर्थिक संबंधों को बनाये रखने तथा भारत में अपना माल खपाने के लिए वह अच्‍छे संबंधों की बात कर रहा है। यदि भारत-चीन कारोबार ऐसी ऊंचाईयां नहीं छू रहा होता तब भी क्‍या वह भारत के साथ ऐसे ही संबंधों का पक्षधर होता इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। संबंधों की इस कथित मधुरता के दौर में भी वह भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही एक सीमांत प्रदेश में दौरे पर आ‍पत्ति उठाता है और प्रणब मुखर्जी जैसे लोगों को उसका बचाव करना पड़ता है।

कूटनीतिक नजरिए से देखा जाए तो भारत ने तिब्‍बत मसले पर प्रारंभ में समझदारी का परिचय दिया और तिब्‍बत को चीन का घरेलू मामला मानकर उससे दूरी बनाये रखी। यहां तक कि पूरा विश्‍व समुदाय इस बात पर चीन को गरियाता रहा पर भारत यही दोहराता रहा कि तिब्‍बत चीन का अभिन्‍न अंग है और वह अपनी जमीन से चीन विरोधी कोई गतिविधि नहीं होने देगा। वैसे भी भारत को चीन से सुधरते संबंधों की कीमत पर तिब्‍बत मसले में कोई टांग नहीं अड़ानी चाहिए। खासकर तब जब तिब्‍बती धर्मगुरू और उनकी निर्वासित सरकार भारतीय क्षेत्र में रहती है। क्‍योंकि इससे सीधा-सीधा संदेश जाता कि भारत अपनी जमीन से चीन विरोधी त्‍त्‍वों को समर्थन दे रहा है।

पर शुरू से ही चीन को भारत के द्वारा अपना रुख स्‍पष्‍ट कर दिये जाने के बावजूद वह भारत पर दबाव बना रहा है या कहें कि भारत की कमजोर विदेश नीति का वह पूरा फायदा उठाना चाहता है। जब भारत की धरती पर आकर अमेरिका की नेता नैंसी पेलोसी चीन को खरी-खोटी सुनाती हैं तब भी भारत खुद को इससे दूर रखता है। फिर भी हमारे नेताओं को बार-बार सफाई देने की जरूरत क्‍यों पड़ती है। उल्‍टा भारत कम से कम इस मामले में चीन को यह तो कह ही स‍कता था कि उसे अंतर्राष्‍ट़ीय समुदाय की भावनाओं का ख्‍याल रखना चाहिए था या तिब्‍बत मसले का वह शांतिपूर्वक समाधान खोजे। पर हमारे नेताओं को चीन से अपनी पीठ थपथपाये जाने का चस्‍का लग गया है और शुरू से ही स्‍पष्‍ट रुख रखने के बावजूद चीन की मनमर्जी के हिसाब से बयान दे रहे हैं। इससे अप्रत्‍यक्ष रूप से अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय के चीन पर पड़ने वाले दबाव को कम करने की साजिश की बू आती है और संदेश जाता है कि भारत इस मामले में चीन के साथ है। कहने की जरूरत नहीं कि इसमें बहुत बड़ा हाथ भारत के देशद्रोही वामदलों का है जो हमेशा फिलिस्‍तीन, कश्‍मीर या ईरान मसले पर चिल्‍ला-चिल्‍लाकर आसमान एक कर देते हैं। पर तिब्‍बत मसले पर मुंह पर पट्टी बांध लेते हैं क्‍योंकि इससे उनका चहेते चीन के हित जुड़े हैं जिसे वो अपना माई-बाप मानते हैं। पर भारत सरकार को यह तो सोचना चाहिए कि वह गद्दारों के दबाव में अपनी विदेश नीति चलाए या भारतीय हितों के मद्देनजर।

कुल मिलाकर शुरूआत में सही नीति अपनाने के बावजूद हमारे नेता अब पूरी तरह से चीन के दबाव मे दिख रहे हैं और बेवजह भारत की छवि को खराब करने के लिए चीन की जी-हुजूरी करने में जुट गये हैं।

Thursday, April 03, 2008

ऐसे आरक्षण से किसका भला होगा ?

ज्‍यादा समय नहीं हुआ जब भाजपा ने चिल्‍ला-चिल्‍लाकर महिला आरक्षण के मामले में यूपीए सरकार को कठघरे में खडा़ किया कि वह महिला आरक्षण मामले में गंभीर नहीं दिखती और अपने संगठन में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा भी की। वहीं कांग्रेस की नेता और महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा कि सरकार इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाना चाहती है। हालांकि मामला अभी तक लटका हुआ है और हो सकता है आगे भी लटका रहे। महिला अधिकारों की बात करने वालों से माफी मांगते हुए मेरा ये प्रश्‍न है कि क्‍या उन्‍होंने गंभीरता से कभी विचार किया है कि इस प्रकार के आरक्षण से महिलाओं की स्थिति में वाकई कुछ परिवर्तन हो सकता है ?

आईये कुछ उदाहरणों पर नजर डालते हैं-

पहला- मेरे शहर में स्‍थानीय नगरपालिका में महिलाओं के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं और जिले में कुछ नगरपालिकाओं में कहीं-कहीं अध्‍यक्ष भी महिला ही हो सकती है। जिस प्रकार से चुनावों में साधारणतया ईमानदार, समाज के लिए कुछ करने का जज्‍बा रखने वाले कर्तव्‍यनिष्‍ठ भद्र पुरुष भाग लेने से कतराते हैं तो जाहिर है कि कोई पढ़ी-लिखी, जागरूक और अधिकारसंपन्‍न महिला से चुनाव लड़ने की उम्‍मीद तो नहीं की जा सकती क्‍योंकि उसके पास ना तो समर्थकों के रूप में गुंडों की फौज है और ना ही वोट-बैंक या फर्जी वोट डलवाने की कूबत।
विभिन्‍न वार्डों के बाहुबलियों या प्रभावशाली लोग महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को ऐसे ही तो नहीं छोड़ देने वाले। ऐसे में इन दबंगों, गुंडों और बाहुबलियों के द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों को चुनाव लड़वाना आम बात है। चुनाव में प्रचार भी इनके खुद के नाम पर ही किया जाता है और कहा जाता है कि फलानेराम चुनाव लड़ रहे हैं। कई बार तो जनता को उम्‍मीदवार महिला का नाम तक नहीं पता होता। यहां तक कि जीतने के बाद भी ये महिलाएं स्‍थानीय स्‍तर पर जनता की नुमाइंदगी करने की बजाय घर का चूल्‍हा-चौका करते ही नजर आती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ होती हैं तो इन्‍हें अपने पद और कार्यक्षेत्र के बारे में कतई कोई जानकारी नहीं होती। ऐसे में इनके पति महोदय ही इनके नाम पर अपने क्षेत्र में अपनी राजनीति करते हैं और स्‍थानीय निकाय की बैठकों में भी भाग लेते देखे जाते हैं।

कल के स्‍थानीय अखबार ने नगरपालिका परिषद की बैठक की रिपोर्ट छापी जिसके अनुसार सभी महिला पार्षद इस बैठक में शामिल हुईं पर केवल श्रोता के रूप में जबकि बहस आदि कार्यवाही करने का काम इनके पतियों ने किया। ऐसे में इनकी महिलाओं की उस बैठक और यहां तक कि उस पद पर क्‍या अहमियत है।

दूसरा- मेरे पड़ौस के विधानसभा क्षेत्र की विधायक एक महिला हैं। हालांकि विधायक होने के नाते वे क्षेत्र में लोगों से मिलती-जुलती हैं और उनकी समस्‍याएं सुनती हैं पर हर समय उनके पति महाशय उनके साथ मौजूद रहते हैं और साफ-साफ कहें तो लोगों से बात भी वही करते हैं और बाकी सारे काम भी जो उनकी विधायक पत्‍नी के जिम्‍मे हैं और विधायक महोदया हर जगह मूकदर्शक ही बनी रहती हैं। गनीमत है कि पति महोदय विधानसभा में उनकी कुर्सी पर नहीं बैठते।

तीसरा- पास ही के जिले की एक नगरपालिका अध्‍यक्ष जो महिला हैं, को उनके पति महोदय के अवैध कार्यों और जमकर भ्रष्‍टाचार के आरोप में हटा दिया गया। जबकि अध्‍यक्ष महोदय जिनके ऊपर सारा कार्यभार होना चाहिए बस नाम के लिए ही थीं। अफसरों को धमकाने, उनसे मन-मुताबिक काम करवाने, नगरपालिका के फैसलों और पैसे खाने का पूरा जिम्‍मा उनके पति के ऊपर ही था।

चौथा- कुछ दिन पहले समाचार देख रहा था जिसमें एक महिला सरपंच से संवाददाता की बात हो रही थी। बातचीत में उसने महिला सरपंच से उनके कार्य करने तरीकों और योजनाओं की जानकारी मांगी तो उस सरपंच का कहना था कि उसे कुछ नहीं मालूम क्‍योंकि उसके वो ही(पति) सारा काम देखते हैं।

ये हैं महिलाओं की राजनीति में स्थिति और आरक्षण की प्रासंगि‍कता को टटोलते कुछ मामले जो मैंने अपने आस-पास देखे और कोई भी ऐसी स्थितियों को अपने आस-पास महसूस कर सकता है।

सवाल ये है कि क्‍या केवल महिला आरक्षण लागू कर देने से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार होने वाला है ? देश में एक महिला राष्‍ट्रपति के बनने पर खूब हल्‍ला मचता है कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में ये मील का पत्‍थर है। पर क्‍या केवल उनके महिला होने से ही देश की महिलाओं के सशक्तिकरण की बात को बल मिलता है। मेरे ख्‍याल से ऐसे कहने वाले धोखे में हैं। जब-तब रटा-रटाया भाषण दे-देने वाली और सक्रियता के मामले में पुराने राष्‍ट्रपतियों के मुकाबले शून्‍य राष्‍ट्रपति भी देश की उन्‍हीं महिलाओं का प्रतीक हैं जिनके हाथ में सत्‍ता होने पर भी वे दूसरों का मुंह ताकती हैं। इसे तो मुझे महिला अशक्तिकरण कहना ज्‍यादा ठीक लगता है।

मध्‍यप्रदेश और बिहार के मुख्‍यमंत्री अपनी लोकलुभावन छवि के मद्देनजर स्‍थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिला आरक्षण की घोषणा करते हैं पर उनके प्रदेशों में महिलाओं का ये हाल है कि महिला संरपंचों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी तक नहीं है और उनके पतियों या परिवार के सदस्‍यों द्वारा पंचायतें बुलाई जाती हैं।

महिला आरक्षण के समर्थकों का यह तर्क होगा कि पूरी तौर पर न सही कुछ तो परिवर्तन हुआ है। पर कब तक हम हर चीज में कुछ भी जैसी चीजों पर संतोष करते रहेंगे। जिस कछुआ चाल से परिवर्तन आ रहा है उससे तो शायद अभी और सौ साल लग सकते हैं स्थिति को सुधारने में। हम इस बात पर क्‍यों विचार नहीं करते कि और कौन से ऐसे उपाय हैं जिनसे अभी और कम से कम अगली पीढ़ी को वास्‍तविक अर्थों मे न्‍याय मिल सके।

मैं न तो यहां महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का विरोधी हूं और न ही आरक्षण का। पर कम से कम जब हम मौजूदा ढांचे के अनुसार अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे तो सिवाय यह कहने के कि कुछ तो हो रहा है, हमें इस पर विचार करना चाहिए कि ऐसे कौन से उपाय या संशोधन हैं जिनसे और बेहतर परिणाम लाये जा सकते हैं।