Tuesday, January 19, 2010

जिंदादिल जिंदगी के सफहों पर तजुर्बे की सुर्ख इबारत - बाबू विद्यारामजी गुप्‍ता

कहने को तो उनके व्‍यक्तित्‍व और कृतित्‍व के बारे में एक संक्षिप्‍त-सा परिचय यहां रखा जा सकता है...परंतु उनके जीवन की किताब के सफहों से बहुत ज्‍यादा रूबरू होने का मौका मुझे नहीं मिल पाया है...और उनके बारे में जितना जान पाता हूं उससे ज्‍यादा जानने की उत्‍कंठा बार-बार जोर मारती रहती है...और जितना जान पाऊंगा उतना जान करके भी एक अफसोस रहेगा और ज्‍यादा ना जान पाने का और अंदर एक ये गर्वानुभूति भी साथ में रहेगी कि कम से कम जीवन में उन जैसे व्‍यक्तित्‍व को इतने निकट से जानने का और उनसे बहुत कुछ सीखने का अवसर मिल सका या यों कहें कि एक पूरा जीवन-दर्शन विकसित कर पाने के लिए उनके जैसा पथप्रदर्शक जीवन में मिला...

मैं बात कर रहा हूं मेरे सीनियर एडवोकेट और मेरे गुरू बाबू श्री विद्याराम गुप्‍ताजी के बारे में...जिनके सान्निध्‍य में मुझे वकालत के व्‍यवसाय को शुरू करने का अवसर मिला...विगत वर्ष से ही मैंने उनके साथ एक जूनियर के नाते काम शुरू किया...

कल कोटा,राजस्‍थान के वरिष्‍ठ अधिवक्‍ता श्री दिनेशराय द्विवेदीजी, जिन्‍हें मैं अपना गुरू और मार्गदर्शक भी मानता हूं, ने अपने ब्‍लॉग पर हिंदी के विख्‍यात साहित्‍यकार रांगेय राघवजी के बारे में लिखा था....कल रात ही मेरी उनसे बात हुई थी, मैंने उन्‍हें बताया भी था कि बाबू विद्यारामजी ने अपने छात्र जीवन में रांगेयजी के साथ आगरा में काफी समय बिताया...बाबूजी से ही कुछेक बार उनका नाम भी मैंने सुन रखा था. ...द्विवेदी सर ने बाबूजी से मिलने की और उनके बारे में जानने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की थी तो मैंने उन्‍हें सहर्ष मुरैना आने का निमंत्रण दे डाला...देखते हैं मेरे दोनों ही मार्गदर्शक और प्रेरणापुरूष शख्सियतों की मुलाकात कब संभव होती है....इस बहाने मुझे भी पहली बार द्विवदीजी से मिलने का सौभाग्‍य मिलेगा...खैर आज दिमाग में आया कि क्‍यों ना ये ब्‍लॉग ही बाकी लोगों के लिए बाबूजी से परिचित हो पाने का माध्‍यम बने...

अपने निवास स्‍ि‍थत कार्यालय में बाबूजी
बकौल पंडित नेहरू भारतवासियों के 'नियति के साक्षात्‍कार' वाले दिन से भी पहले 4 अगस्‍त सन् 1947 के दिन से लेकर अनवरत रूप से बाबूजी वकालत में आज भी 63 वर्षों से सक्रिय बने हुए हैं....छात्र जीवन के दिनों में भारत छोड़ो आंदोलन के समय से ही कम्‍युनिस्‍ट पार्टी से जुड़कर स्‍वाधीनता आंदोलन के लिए काम करने और काफी समय भूमिगत रहने से लेकर आजादी के बाद भी लंबे समय तक राजनीतिक गतिविधियों में पूरे जोर के साथ सन् 1977 तक सक्रिय रहने और उसी समय पार्टी और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था की कमियों के कारण मोहभंग होकर राजनीति छोड़ने तक उन्‍होंने एक लंबा सफर तय किया....शायद ही किसी को मालूम होगा कि सन् 1942 में बाबूजी ने ही पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी का कम्‍युनिस्‍ट पार्टी में प्रवेश कराया...जब वे कॉलेज में साथ-साथ पढ़ाई कर रहे थे...बाद में किन्‍हीं कारणों से अटलजी संघ से जुड़ गए...

मध्‍यप्रदेश के उत्‍तरी छोर पर स्थित जिले मुरैना की तहसील अम्‍बाह में 1923 में बाबूजी का जन्‍म हुआ....छात्र जीवन का लंबा सफर ग्‍वालियर में गुजारने के बाद आगरा से एल.एल.बी की डिग्री लेकर बाबूजी ने अम्‍बाह कस्‍बे में ही आकर वकालत शुरू की...कुछ समय बाद जिला मुख्‍यालय पर आकर जिला अदालत पर अपने व्‍यवसाय में नाम कमाते हुए ग्‍वालियर उच्‍च न्‍यायालय में भी काफी वर्षों तक प्रैक्टिस करते रहने और सफलता के लगातार सोपान तय करने के बाद सन् 1972 में एक सड़क दुर्घटना में बुरी तरह घायल होकर और महीनों बिस्‍तर पर पड़े रहकर अपनी अदम्‍य इच्‍छाशक्ति के बल पर फिर उठ खड़े हुए....उसके बाद से मुरैना जिला मुख्‍यालय पर लगातार सभी अदालतों दीवानी, फौजदारी, रेव्‍हेन्‍यू इत्‍यादि सभी में सफलता के उच्‍चतम पायदान पर पहुंचने के बाद मुरैना जिला अधिवक्‍ता परिषद् के वरिष्‍ठतम अधिवक्‍ता के तौर पर आज भी पक्षकारों को अपनी सेवायें दे रहे हैं....आसपास के कई जिलों में और मध्‍यप्रदेश उच्‍च न्‍यायालय ग्‍वालियर खंडपीठ में अपनी सफलता के झंडे गाढ़ने के पश्‍चात इस व्‍यवसाय के इतिहास पुरूष के रूप में उनका नाम उनके जीवित रहते ही लिया जाता है....जिन्‍हें यहां के अधिवक्‍तागण अधिवक्‍ता परिषद् के पितामह के नाम से भी संबोधित करते हैं....पिछले काफी समय से बाकी क्षेत्रों को छोड़कर केवल फौजदारी मुकदमों तक ही उन्‍होंने खुद को सीमित कर रखा है....और इस क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता को देखते हुए पूरे प्रदेश-भर की न्‍यायपालिका के लोग(जो उन्‍हें जानते हैं या जिन्‍होंने उनके बारे में सुना है) उनके सामने नतमस्‍तक हैं

हम जूनियर्स के साथ बाबूजी: बायें से- धर्मेंद्र तिवारीजी, बाबूजी और मैं

उनके व्‍यक्तित्‍व के कई आयाम हैं...जब वे किसी विषय पर बात करते हैं तो उन्‍हें सुनना एक बेहतरीन अनुभव होता है...प्रखर वक्‍ता और विद्वान होने के साथ-साथ उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी गजब का है....एक पूरे इतिहास को वे स्‍वयं में समेटे हुए हैं...उनकी भाषा शैली और उनकी कहावतें जिन्‍हें लोग अक्‍सर पहली बार ही सुनते हैं का भी एक निराला अंदाज है....एक और सबसे बड़ी बात है उनकी बोल्‍डनेस....जिस बिंदास तरीके से वे अपनी बात रखते हैं उनसे रूबरू होने वाले व्‍यक्ति को अहसास हो जाता है कि शायद ही वो अपने जीवन में ऐसे बोल्‍ड और स्‍पष्‍टवक्‍ता से रूबरू हुआ हो और आगे कभी होगा.... राजनीतिक सफर से विदा लेने के बावजूद सामाजिक रूप से आज भी वे सक्रिय हैं और अब भी उसी दमखम से बात करते हैं जैसे अपने युवाकाल में मंच से हजारों की भीड़ को संबोधित करते नजर आते थे....आज भी माइक पर उन्‍हें सुनना विरल अनुभव है हालांकि ऐसे मौके आजकल बिरले ही होते हैं....आज भी 87 वर्ष की उमर में सुबह पांच बजे उठकर रात तक लंबे समय तक काम करते रहने के बावजूद ऊर्जा से हर समय लबरेज नजर आते हैं.....लोग उनकी इस ऊर्जा का कारण पूछते हैं तो वे हंसकर कहते हैं- हम बस हंसते रहते हैं और काम करते रहते हैं...ज्‍यादा कुरेदने पर अक्‍सर वे इस पंक्ति को दोहरा देते हैं- 'जिंदगी जिदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्‍या खाक जिया करते हैं.'

वे अक्‍सर कहते हैं क‍ि एक वकील और सफल वकील बनने के लिए सबसे जरूरी है कि आपको मानव-मनोविज्ञान की गहरी समझ हो....उनके बारे में उनके कनिष्‍ठ अधिवक्‍तागण मजाक करते हैं कि वे आदमी का जूता देखकर बता सकते हैं कि फलां व्‍यक्ति कैसा है...और भले ही लोगों को अतिश्‍योक्ति लगे पर इस बात पर अविश्‍वास करना भी मुश्किल ही लगता है...बहुत से लोग उन्‍हें इन्‍हीं बातों के कारण बहुत बड़ा ज्‍योतिषी भी समझते हैं....

खैर एक और सबसे महत्‍वपूर्ण पक्ष है साहित्‍य के प्रति उनका प्रेम और उनका खुद का शोधकर्म और रचनाकर्म....चंबल के इस बीहड़ी इलाके में रहकर इस क्षेत्र का गांव-गांव वे घूमे हैं....बहुत कठिन मार्गों की यात्रा करके और अपने साथियों के राजनीतिक सफर में उनके चुनाव अभियान की जिम्‍मेदारी उठाने के साथ में यहां के लोगों को, गांवों को, उनकी कठिनाईयों को, बीहड़ी जीवन के आतंक को, उसके कारणों को, उसके प्रभावों को और उसके विविध पक्षों को जानने और समझने के लिए उन्‍होंने सैकड़ों किलोमीटर के क्षेत्र में आसपास के पड़ौसी राज्‍यों तक में भटकने का संघर्ष भी किया है....चंबल की डकैत समस्‍या पर इस शोध को को उन्‍होंने एक पुस्‍तक में संकलित किया है....पुस्‍तक का नाम है 'डाकू समस्‍या का अभिशाप- खोजपूर्ण विवेचन, कारण व हल'...प्रकाशन वर्ष है 1972....पुस्‍तक में उन्‍होंने इस समस्‍या की एतिहासिक पृष्‍ठभूमि में इसके कारण, इसकी उत्‍पत्‍ित और समस्‍या के बने रहने में विभिन्‍न कारकों के योगदान, यहां की जातीय संरचना, भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों जैसे विभिन्‍न पहलुओं की विवेचना के साथ जो सबसे महत्‍वपूर्ण बात प्रस्‍तुत की है वो है- इस समस्‍या के निदान के उपाय....

इसके अलावा उन्‍होंने विगत पांच-छह दशकों में समय-समय पर कविताएं भी लिखी हैं जो सैकड़ों की तादाद में हैं और अब तक अप्रकाशित हैं....अपनी काव्‍य-रचना में उन्‍होंने राजनीतिक और सामाजिक व्‍यंग्‍य के साथ-साथ हास्‍य और प्रेम जैसे विषयों पर भी कागज रंगे हैं साथ ही दुनियावी दर्शन और जीवन को प्रभावित करने वाले लगभग सभी पहलुओं पर उन्‍होंने अपने विचारों को कविता में पिरोया है....अंग्रेजी भाषा में रचित कविताओं से भी उनकी दशकों पुरानी डायरियां भरी पड़ी हैं....

अपने व्‍यस्‍त जीवन में कई विषयों पर लिख पाने और खासकर कानूनी विषयों पर लिख पाने के लिए बहुत सी बार उन्‍होंने सोचा...पर किन्‍हीं कारणों से ऐसी योजनाएं मूर्त रूप नहीं ले सकीं.... बहुत अधिक व्‍यस्‍तता और पारिवारिक जिम्‍मेदारियों से राहत पाने और पंद्रह वर्ष पहले हुई बाईपास सर्जरी के कारण अब उनका इरादा काम को धीरे-धीरे खतम करके केवल लेखन का है....हालांकि वे अपने इस इरादे को अमलीजामा पहनाने के लिए हर साल रिटायरमेंट की बात करते हैं और इस साल भी कर रहे हैं....पर सभी लोग जानते हैं कि उसका एक्‍सटेंशन होना है... और वे अपना काम बंद नहीं करने वाले....

इस वर्ष मेरा उनसे आग्रह है कि वे अपनी काव्‍य रचनाओं को प्रकाशित कराने हेतु कुछ समय निकालें....मैं स्‍वयं इसके लिए प्रयास कर रहा हूं...पर बहुत से देशज शब्‍दों और प्रूफ संबंधी बातों व अन्‍य पहलुओं को लेकर उनका बहुत-सा समय मुझे चाहिए होगा....देखते हैं बात कब तक आगे बढ़ती है और एक पुस्‍तक के रूप में उनके चाहने वालों के हाथ में कब तक पहुंचती है....वैसे प्रयास तो ये है कि इस वर्ष ये पुनीत कार्य संपन्‍न कर लिया जावे....साथ ही डकैत समस्‍या को लेकर भी उनकी पुस्‍तक पुनर्प्रकाशित करा ली जाये ऐसा भी प्रयास रहेगा....इंटरनेट पर भी उनके रचनाकर्म को लाने का प्रयास इस वर्ष रहेगा....जब मैंने उनसे इस बारे में एक बार बात की तो उन्‍होंने पुस्‍तक के प्रकाशन के पश्‍चात उसका विमोचन अपने छात्र-जीवन के साथी और मित्र अटलजी से कराने की बात कही....देखें कब और कितनी जल्‍दी ये सब संभव हो पाता है...

बाकी अंत में एक बात उन्‍हीं के शब्‍दों में कहना चाहूंगा जो वे अक्‍सर कहा करते हैं- हर आदमी में एक खुशबू होती है, आप कोशिश कीजिए और अपनी खुशबू दूर-दूर तक फैलाईये.....उनके साथ रह पाने पर उनकी खूशबू चरम रूप में महसूस कर पा रहा हूं....उनके स्‍वस्‍थ एवं सक्रिय बने रहने की कामना के साथ इन शब्‍दों की गति को यहीं विराम दे रहा हूं...

Saturday, January 16, 2010

अच्‍छा एक्‍टर होना ही सफल होना है

फलां व्‍यक्ति कैसा है....उसमें क्‍या अच्‍छा है...क्‍या खराब है इसका विश्‍लेषण सतत चलता रहता है उसके आसपास के जनमानस में....और एक ही व्‍यक्ति के बारे में सामान्‍यतया अलग-अलग राय बना लेते हैं लोग...जिनको उससे बेहतर रिस्‍पांस मिल रहा है उसके लिए वो बढि़या है...भले वो उसे केवल मतलब निकल जाने तक या मतलब का होने से ही ऐसा कहते है...बाकी कुछ लोग उसकी बुराई करते भी पाये जा सकते हैं...जरूरी नहीं कि उसमें बुराई हों भी ना.
जैसे एक आदमी ऑफिस में अच्‍छा बॉस हो सकता है पर बीवी के लिए अच्‍छा पति नहीं....
साधारणतया कहा जाता है कि जो व्‍यक्ति अच्‍छा इंसान होता है वो सभी के लिए अच्‍छा होता है....हो सकता है कुछ लोग उसे अपने माफिक ना पाकर उसे अच्‍छा ना भी कहें...
पर बहुमत ऐसे लोगों का ही है जिनका व्‍यवहार किसी व्‍यक्ति के प्रति एक तरह का है तो दूसरों के प्रति दूसरी तरह का, परिस्थिति के अनुसार भी व्‍यवहार में परिवर्तन संभव है....कई लोग काम के दिनों में बहुत चिढ़चिढे़ होते हैं और छुट्टी में बड़े खुशमिजाज इंसान की तरह पेश आते हैं...कई बातें हैं जो इंसानी व्‍यवहार पर प्रभाव डालती हैं..

पर भाई आजकल सेल्‍फ इंप्रूवमेंट बुक्‍स का जमाना है....कई लोग खुद के व्‍यवहार में सकारात्‍मक बदलाव की खातिर इनको आजमाते भी हैं....मैं तो मानता हूं ये सब बहुत मजबूत इच्‍छाशक्ति वाले लोगों के बस की बात है कि खुद की कमियां खोजकर, खुद पर कंट्रोल कर और आदतों में बदलाव लाकर खुद को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं
पर ये तथ्‍य तो स्‍वीकार करना ही पड़ेगा कि ज्‍यादातर लोग अपनी आदतों से मजबूर होते हैं....वे खुद को बदल पाने में खुद को लाचार ही महसूस करते हैं या इसकी ओर ध्‍यान नहीं देते या उनको इस बारे में सोचने का वक्‍त ही नहीं..

इन सबके बीच सबसे महत्‍वपूर्ण बात जो हमारे अंदर घूमती रहती है कि हमें अपने प्रोफेशन में, दिनचर्या में और बाकी बहुत से कामों में बहुत से लोगों से डील करना होता है और अपना काम निकालना होता है....ऐसे में हमें खुद के लिए बेहतर नतीजे पाने के लिए क्‍या करना होगा?... ये सबसे ज्‍यादा जरूरी बात है....

हमें खुद को अलग-अलग परिस्थिति और अलग-अलग लोगों के सामने खुद का प्रिजेंटेशन ऐसा रखना होगा कि हमारा काम निकल जाए और सामने वाले से हम जो चाहते हैं वो पा सकें.....चूंकि हमारा जो प्रयास है वो सफलता के लिए हो रहा है सो उसके माफिक हमें खुद के व्‍यवहार में कुछ बातें शामिल करनी होंगी..

हमें ऐसे लोगों से भी काम निकालना है जिन्‍हें हम कतई पसंद नहीं करते...और ऐसे लोगों से भी जो बहुत ही अकड़ू और ढीठ मिजाज के होते हैं....पर हमारी मजबूरी है कि हमें उनके साथ काम करना है या उनके साथ रहना है...हर जगह हमें एक बैलेंस बनाकर चलना है....जिस व्‍यक्ति को हमें गाली देने का मन हो रहा है उसके साथ बहुत ही भद्र तरीके से व्‍यवहार कर हमें तालमेल बिठाना पड़ता है और जहां जरूरत स्‍ट्रेटफॉरवर्डनेस की है वहां वैसे ही बनना पड़ेगा, कभी जानबूझकर किसी को इग्‍नोर भी करना पड़ता है उसे कुछ समझाने हेतु और कभी जिनकी चांद पर जूते बजाने का मन होता है उनके चरण-स्‍पर्श भी करने पड़ सकते हैं.....

कुल मिलाकर लुब्‍बेलुआब ये है कि हमें सामने आने वाली परिस्थिति में से अपना रास्‍ता बनाते हुए निकल जाना है तो हमें उसके अनुरूप व्‍यवहार करना होगा....हम अक्‍सर नेताओं को गालियां देते हैं पर कभी नजर डालिए अपने आसपास के नेता प्रजाति के जीवों पर...कई बार जब हम उनसे मिलते हैं तो वे हमें अपने व्‍यवहार से, विनम्रता से गदगद कर देते हैं...वे वाकई में इंसान कैसे भी होने के बावजूद एक्‍टर बड़े कमाल के होते हैं....और यही स्किल उनकी सफलता का राज भी है..

हमें भी हम जैसे हैं, जो हैं के बजाय खुद को इस तरह से पेश करने की कला सीखनी चाहिए कि सामने वाले को वह जंचे...भले हम उससे बात तक नहीं करना चाहते पर उसे हमारी बातों से ऐसा लगे कि हम उससे बात करके, उससे मिलकर बड़े खुश हैं...उसे ऐसा एहसास हो कि हमने उसे बड़ी तवज्‍जो दी....बाकी चाहे अंदर से मन कह रहा हो कि लगाओ चार जूते साले की चांद में....नैतिकतावादी या आदर्शवादी टाइप की प्रजाति मेरी बातों से कुछ बवाल मचाने लायक मसाला खोज सकती है....पर सौ में से निन्‍यानवे बेईमानों के देश में आपको रहना है और इन्‍हीं के बीच में रहना है और इनसे ही काम निकालना है तो आपके लिए यही सही रास्‍ता है कि सबसे बनाकर चलें...नहीं तो खामखा आप अपने लिए रास्‍ते बंद कर लेंगे....
और रही गलत-सही की बात तो इस देश में इतना कुछ गलत हो रहा है कि भगवान के करे से भी नहीं रुकने वाला...हमें बस ऐसे में ये खयाल रखना है कि हम कहीं आदर्शवाद के चक्‍कर में पड़कर खुद का ही नुकसान ना कर बैठें और खुद को चिड़चिड़ा, अलग-थलग कहलाये जाने से बचा सकें.....
ऐसे में आपकी बेहतर एक्टिंग स्किल ही आपके अस्तित्‍व को बचा पायेगी. क्‍या खयाल है?

( उक्‍त विचारों में डेल कारनेगी के साहित्‍य और स्‍वयं के अनुभवों की बैठे-ठाले खिचड़ी बन गई है। बाकी आगे बहस की गुंजाइश है सो फुरसत मिलने पर...)