Sunday, December 31, 2006
नंबरप्लेट का ओहदा
ज्यादातर ओहदेदार नंबरप्लेट्स पुलिस विभाग से ताल्लुक रखती हैं। 'ताल्लुक रखने' का मतलब है कि जितनी नंबरप्लेट्स पुलिस विभाग में पदस्थ होती हैं उससे ज्यादा ताल्लुक रखने वाली नंबरप्लेट्स सड़कों पर दौड़ती-भागती नजर आ जाती हैं। 'ताल्लुकदार नंबरप्लेट' का अलग ही रौब होता है। जब ये चार की बजाय दो पहियों पर हो तब तो ये इस प्रकार लहरा के चलती हैं जैसे आशिक-मिजाज लड़के लड़कियों को कट मारते हैं। वैसे रास्ता खाली कराने के लिए ये सायरन की बजाय सर्वप्रिय और सर्वप्रचलित गालियों का ही प्रयोग करती हैं।
पुलिस विभाग के अलावा नंबरप्लेट्स कई और विभागों से भी ताल्लुक रखती हैं। जिनमें से अधिकांश पत्रकार, वकील आदि होते हैं। ऐसी नंबरप्लेट्स का भी अच्छा-खासा रौब होता है। यदि राह चलते किसी पत्रकार नंबरप्लेट को पुलिस रोक ले तो अगले दिन अखबार में खबर छपती है- "शहर की यातायात व्यवस्था भगवान भरोसे।" या फ़िर "पुलिस द्वारा अवैध वसूली जोरों पर।"
कभी-कभार जब मैं हाईवे से गुजरता हूँ तो मुझे कुछ देशभक्त नंबरप्लेट भी दिखाई दे जाती हैं। जिन पर हमारे राष्ट्रध्वज के तीन रंग दिखलाई पड़ते हैं। मेरे दिल को इस बात से तसल्ली हो जाती है कि भारत में अभी भी देशभक्त खत्म नहीं हुए। परंतु कभी-कभी एक राजनैतिक दल के लोग इन तीन रंगों से अपनी पार्टी और उससे ज्यादा अपना विज्ञापन कर लेते हैं। खैर जो भी हो हमारे तिरंगे को गाड़ी की नंबरप्लेट में ही सर छुपाने की जगह मिल जाती है ये क्या कम है।
मेरे जिले में कुछ समय पहले एक विधायक हुए। उनके विधायक होने का परिणाम यह हुआ कि उनकी सभी पहचान वाली नंबरप्लेट्स विधायक बन गईं। सड़कों पर विधायक ही विधायक दौड़ने लगे। विधायक साब ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे तो खेतों में चलने वाले ट्रैक्टर भी विधायक बन गये। अक्सर ये ट्रैक्टर शहर में तफ़रीह के लिए आया करते तो यातायात पुलिस विधायकजी को ससम्मान रास्ता देने के लिए खड़ी मिलती। कुछ समय बाद विधायकजी मंत्री पद से नवाजे गए। उस दिन के बाद सड़कें मंत्रियों से पटी दिखने लगीं। हर कोई नंबरप्लेट ऐंठ के कहती- "अरे रास्ता छोड़ो! देखते नहीं मंत्रीजी की सवारी आ रही है।" भवन-निर्माण सामग्री ले जाने वाले ट्रैक्टर-ट्राली भी कहाँ पीछे रहते। जगह-जगह मंत्रीजी भवन-निर्माण सामग्री ढोते नजर आते। कुछ साल बाद सरकार बदल जाने से मंत्रीजी घर बैठे हुए हैं और उनकी नंबरप्लेट को पूर्वमंत्री के ओहदे से ही संतोष करना पड़ रहा है। हालाँकि वह नंबरप्लेट पूरी तरह आशान्वित है कि अगले चुनाव में उस पर से 'पूर्व' का धब्बा जरूर हटेगा।
नंबरप्लेट्स ने हमारे समाज की पहचान उस 'जाति-व्यवस्था' को पुन:स्थापित करने में भी बहुत योगदान दिया है, जो काफ़ी समय से अपनी पहचान खोती जा रही है। नंबरप्लेट्स ने जाति-व्यवस्था को पुन: उसी रूप में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसमें वह पहले हुआ करती थी। उच्च श्रेणी की नंबरप्लेट्स ही अब शान से सड़क पर लहराती हुई चलती हैं क्योंकि निम्न श्रेणी के वाहनों यानी सायकिल वालों को नंबरप्लेट लगाने का अधिकार अभी नहीं मिल पाया है।
आज की व्यवस्था में मेरे स्कूटर की नंबरप्लेट खुद को हीन समझने लगी है। इसलिए मुझे लगता है उसका मेक-अप करने का वक्त आ गया है। पर उलझन यह है कि उस पर क्या चिपकाऊँ? चूँकि मैं कानून का छात्र हूँ और मोटरयान अधिनियम के अनुसार ये सब कृत्य अवैध श्रेणी में आते हैं। इसलिए किसी लफ़ड़े में पड़ने की बजाय मैं अपनी नंबरप्लेट को दिलासा देता हूं कि- "मेरे साथ तुम्हें भी एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका का निर्वहन करना चाहिए।"
पर उस समय मेरे कान खड़े हो जाते हैं जब मेरी समझदार नंबरप्लेट मुझ पर हँसती है- "कैसा कानून पढ़े हो, जो कानून तोड़ना तक नहीं सीखे!"
Saturday, December 09, 2006
नववर्ष महोत्सव के लिए आपकी रचनाएँ आमंत्रित हैं
teamanuatanubhti-hindi.org
हिंदी की ऑनलाइन साहित्यिक पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 'नववर्ष विशेषांक' के लिए भी हिंदी चिट्ठाकारों और लेखकों की रचनाएँ आमंत्रित हैं। रचनाएँ किसी भी श्रेणी में भेजी जा सकती हैं- कहानी, निबंध,लेख आदि। श्रेणियाँ पत्रिका के मुखपृष्ठ पर सबसे ऊपर दी हुई हैं। विषय रहेगा 'नववर्ष'। रचनाएँ पहुँचाने की अंतिम तिथि है २० दिसंबर। अपनी रचनाएँ इस पते पर भेजें-
teamabhiatabhivyakti-hindi.org
सभी हिन्दी चिट्ठाकारों/रचनाकारों से आग्रह है कि 'अनुभूति' और 'अभिव्यक्ति' के इस नववर्ष कार्यक्रम में शामिल हों और नूतन वर्ष पर अपनी रचनाओं से हिंदी वेब-जगत को समृद्ध करें।
"सागर भाई को हँसाना है" -हास्य एवं मनोरंजन मंत्रालय से साभार
कविराजजी ने अपनी पोस्ट "सागर भाई को हँसाना है" में हमारी आपस की बातचीत उजागर कर दी और यह रहस्य सभी के सामने खुल गया कि हमारी रचनाएँ मौलिक न होकर कहीं से मारी हुई होती हैं। अब जब रहस्य खुल ही गया है कि जब सारी पोस्ट कहीं से चुरा के कापी-पेस्ट की गई हैं तो यह भी बताना पड़ेगा कि हमने यह महान कला कहाँ से सीखी।
आजकल जिसे देखो वो ऑरकुट देव का भक्त है। जरा समय मिला नहीं कि भग्वद्भक्ति में हो गए लीन। दूसरों के प्रोफ़ाइल देखना, "हाय", " "वाना बी फ़्रेंड" जैसे वाक्य दूसरों की स्क्रैपबुक में छोड़ना, पूजा-पाठ के सामान्य तरीके हैं। पर एक तरीका जिसको ऑरकुट पर कुछ विद्वान पंडित लोग प्रयोग करते हैं, वह है दूसरों की स्क्रैपबुक में झाँकना और उसमें से कुछ माल चुराकर तीसरे की स्क्रैपबुक में पेस्ट कर देना। ऐसे ही एक विद्वान पंडित हमारे मित्र हैं। एक दिन उन्होंने जब हमारा मूड कुछ उखड़ा देखा तो मानसिक शांति के लिए वे हमें ऑरकुट देव के मंदिर ले गए। मंदिर जाने में अपन को कुछ खास रुचि नहीं पर उन्होंने जब कुछ अप्सराओं से हमारी मित्रता कराई तो हमें इस मंदिर की सार्थकता का एहसास हुआ। उसके बाद हम भी करोडों भक्तों की तरह ऑरकुट देव की आराधना में लीन रहने लगे। एक दिन हमारे पंडितजी मंदिर में कुछ विशेष ढंग से पूजा-अर्चना करते दिखे। वे कुछ पंक्तियाँ एक भक्त की स्क्रैपबुक में से चुराकर कुछ अन्य भक्तजनों को पेस्ट रहे थे। पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं-
ऑरकुट बिना चैन कहाँ रे,
स्क्रैपिंग बिना चैन कहाँ रे,
सोना नहीं चाँदी नहीं,
ऑरकुट तो मिला,
अरे स्क्रैपिंग कर ले...
हमने पूछा पंडितजी इस विशेष पूजा का का कोई विशेष प्रयोजन है क्या? उन्होंने कहा- "अरे तुम भी बस दूसरों को स्क्रैप ही लिखना जानते हो। सही माल तो ये है। दूसरों की स्क्रैपबुक में से कापी करो और पेस्ट करो। खालीपीली लिखने के झंझट से मुक्ति और थोड़े टाइम में कई लोगों को भेजो। क्यों दिमाग पर जोर डालते हो।"
पंडितजी की बात हमारी समझ में आ गई। दिमाग पर जोर न डालते हुए दूसरों को इम्प्रेस करने का सस्ता और टिकाऊ तरीका मिल गया। तभी एक दिन दूसरों के प्रोफ़ाइल्स में झाँकते हुए हमे कविराज के दर्शन हो गए और हमारी उनसे मित्रता हो गई। उनके माध्यम से हमें चिट्ठाजगत के बारे में जानने का अवसर प्राप्त हुआ। कुछ ही दिन बाद कविराज ने हमें भी इस बहती गंगा में कुदा लिया, कहा- "आप भी चिट्ठा लिखें।" अब चूँकि लिखने का अपना कभी अनुभव नहीं रहा। नोट्स दूसरों के फ़ोटोकापी करवा के पढ़ते हैं। इम्तहान में उतना ही लिखते हैं जितने से पास हो जाएँ। ज्यादा लिखने से हाथ दुखता है न। सो हमने इस संबंध में सलाह लेने के लिए अपने पंडितजी को फ़ोन घुमाया।
पंडितजी को जब हमने चिट्ठा-लेखन नामक विधा के बारे में बताया तो वे हड़बड़ाते हुए हमारे घर आए और पसीना पोंछते हुए बोले- "दिखाओ तो यार क्या बताया था तुमने फ़ोन पे।"
हमने तुरंत उन्हें कविराज के चिट्ठे का दर्शन कराया और पूछा कि हमें चिट्ठा लेखन के बारे में कुछ टिप्स दीजिए। पंडितजी जो इंटरनेट के मामले में स्वयंभू पंडित थे इस नयी बला को देखकर सोच में पड़ गये। उन्होंने हमें कुछ दिन इंतजार करने को कहा। एक दिन पंडितजी ने हमें बुलाया और आशीर्वाद दिया कि आप निर्भय होकर चिट्ठा लेखन में कूदें। अब कोई समस्या नहीं है। हमने पूछा- "पर पंडितजी उसमें लिखेंगे क्या? हमें तो कुछ लिखना आता ही नहीं"
पंडितजी ने कहा- "कापी-पेस्ट करना तो याद है न कि भूल गये?"
हम- "पंडितजी इतनी अच्छी चीज को कोई भूलता है क्या?"
पंडितजी- "तो फ़िर ये लिंक लो और शुरू कर दो।"
पंडितजी ने बड़े अथक परिश्रम से कुछ ऐसे हिंदी चिट्ठों की लिंक दीं जो शौकिया तौर पर शुरू किये गये थे और शौक पूरा होने पर बंद पड़े हुए थे। हमने प्रसाद-स्वरूप वह लिंक ग्रहण कीं और उनका मैटर अपने चिट्ठे में चिपकाना शुरू कर दिया। उस दिन के बाद से आज तक यह क्रम अनवरत रूप से जारी है और आगे भी जारी रहता। पर इसी बीच हमें हास्य एवंमनोरंजन मंत्रालय का कार्यभार सँभालना पड़ गया। इसलिए आज का यह चिट्ठा मंत्रालय के एक कर्मचारी से लिखवाया गया है। और टिप्पणियों की संख्या के आधार पर उसकी वेतनवृद्धि करने की भी हमारी योजना है। इसलिए सागरजी से आग्रह है कि उस कर्मचारी के भविष्य को ध्यान में रखते हुए इतनी जोर का ठहाका लगायें कि उसकी गूँज आंध्र प्रदेश से मध्य प्रदेश तक हो।
साथ ही चिट्ठाकार बंधुओं के लिए खुशखबरी है कि हमारे मंत्रालय में शीघ्र ही नयी नियुक्तियाँ होने वाली हैं। इसलिए ऐसे उम्मीदवार जो स्वतंत्र रूप से अपने-अपने चिट्ठों में हास्य और मनोरंजन का इस्तेमाल करते हैं, हमसे संपर्क करें। यदि बाद में कोई चिट्ठाकार हास्य और मनोरंजन का प्रयोग अपने चिट्ठे में करता पाया गया तो मंत्रालय के विशेषाधिकार हनन के मामले में उस पर मुकदमा चलाया जायेगा। इसलिए अपने उज्जवल भविष्य को ध्यान में रखते हुए मंत्रालय में होने वाली नियुक्तियों के लिए संपर्क करें। नियुक्ति के लिए किसी प्रकार का कोई फ़ार्म आदि भरने संबंधी औपचारिकता नहीं रखी गई है। नियुक्तियों में पूरी पारदर्शिता बरती जायेगी। यदि आप मंत्रालय में नियुक्ति के इच्छुक हैं तो हमें बस एक मेल करें। आपको एक बैंक अकाउंट नंबर दिया जायेगा। वहाँ आपको मात्र साढ़े नौ लाख रुपये जमा करने होंगे। चिट्ठाकारों से इतर उम्मेदवारों के लिए रेट दस लाख है पर चिट्ठा-जगत से पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए पचास हजार की विशेष छूट दी गई है। बैंक में पैसा जमा करने के पश्चात नियुक्ति-पत्र का इंतजार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सीधे आकर अपना स्थान ग्रहण करें।
Saturday, December 02, 2006
स्वर्ग का टिकट
बहुत बढ़िया खुशबू आ रही है। तरह-तरह के पकवान बने हैं। लोग चटखारे ले-लेकर खा रहे हैं।
उनके बीच बातचीत कुछ यों हो रही है -
"वाह देखिए फ़लां स्वर्गीय के लड़के कितने सपूत हैं।"
"क्या बढ़िया तेरहवीं कराई है।"
"सब कुछ देशी घी में।"
"पिछली बार उस हरकिशन की तेरहवीं में गये थे। वनस्पति खाकर पेट खराब हो गया। जाने किस क्वालिटी का था।"
"जिसके लड़के ऐसे कपूत हों उसको ऊपर जाकर भी क्या शांति मिलेगी। यार खाना तो कम से कम देशी घी में करवा देते।"
"यहाँ देखो क्या बढ़िया निपनिया दूध में खीर बनवाई है और मालपुए कितने नरम।"
"दही-बड़ेवाला कहाँ गया?"
"कैसे सपूत लड़के पैदा किये। महान आत्मा थे। भगवान स्वर्ग में उनकी आत्मा को शांति दे।"
जो लोग मर जाते हैं उनका मरण दिन पुण्यतिथि कहलाने लगता है। पर सभी का मरण दिन पुण्यतिथि हो ऐसा भी नहीं। पुण्यतिथि केवल उन्हीं लोगों की होती है जिनके लड़के हर साल अखबार में बढ़िया विज्ञापन छपवाते हैं। साथ में जलती हुई अगरबत्तियाँ भी छपी रहती हैं पर पता नहीं क्यों उनकी खुशबू मेरी नाक तक नहीं पहुँचती। शायद ऊँची नाक वाले लोगों की नाक में पहुँचती हो, पर मेरी नाक जरा छोटी है। कुछ विशेष स्वर्गीय लोगों की पुण्यतिथि तो अखबार के मुखपृष्ठ पर रंगीन फ़ोटो और अगरबत्तियाँ लगाकर मनाई जाती है। विज्ञापन की रंगीनियत को देखकर समझ में आ जाता है कि मरने वाला स्वर्ग में कितने रंगीन दिन गुजार रहा होगा।
मुझे लगता है स्वर्ग एक अय्याशी का अड्डा है। सुना है वहाँ अप्सराएँ होती है जो कैबरे डांस करती हैं। सोमरस का भी इंतजाम रहता ही होगा। कुछ लोग उमर अधिक हो जाने पर भी अपनी आदतें नहीं छोड़ते। रात को बार में जाते हैं। लड़कियों का नाच देखते हैं, मौका मिल जाए तो छेड़ भी देते हैं। उनके लड़के कहते हैं कि अब तो स्वर्गीय हो जाईये। अब हमारा टाइम है हमको भी कर लेने दीजिए। आपके सामने ये सब करने में थोड़ी शर्म आती है। आपके लिए वहाँ भी सब इंतजाम है। बाकी रहा टिकट का बंदोबस्त तो वो हम कर ही देंगे।
एक बार मैं एक शवयात्रा में गया। वहाँ क्या रीति-रिवाज होते हैं मुझे पता नहीं था। जब चिता बन गई और लाश को उस पर लिटा दिया गया तो मृत व्यक्ति के पुत्र ने उनके सर में एक डंडा मारा। मैंने चौंककर बगल में खड़े सज्जन से इसका कारण पूछा। पता लगा कि मरने वाला अगले जन्म में अपनी पिछले जन्म की बातें याद रखता है। उसी को भुलाने के लिए डंडा मारा जाता है। मैं समझ गया। अगले जन्म में किसी और के यहाँ जन्मने पर मरने वाला अपने घरवालों की कलई न खोल दे कि मेरा लड़का अपनी तनख्वाह से दस गुना ज्यादा घर में लाता है। मेरी लड़की के फ़लां लड़के से संबंध थे, बड़ी मुश्किल से गर्भपात की बात दबाई। या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि मरने वाला किसी भिखारी के यहाँ जन्म ले और सब बात उगल दे कि मैं पिछले जन्म में पंडित बकवासानन्द शास्त्री था और भागवत कहता था। खूब पैसा बनाया। और बाद में लड़कों की थू-थू हो कि छि: ऐसे महान पंडितजी ने अगले जन्म में भिखारी के यहाँ जन्म लिया। जरूर तेरहवीं में शुद्ध घी की बजाय वनस्पति खिलाया होगा। पिंडदान नहीं किया होगा या गंगाघाट पे पंडे को अच्छी दक्षिणा नहीं दी होगी। डंडा मारने का रहस्य पूरी तरह मेरी समझ में आ गया। पर एक रहस्य यह पैदा हो गया कि जब उनके परिजनों ने उन्हें सीधा स्वर्ग के लिए रवाना किया है तो वे अगला जन्म क्यों लेंगे? हो सकता है यमदूत को उन्होंने स्वर्ग तक ले जाने के टिकट के कम पैसे दिये हों। नर्क तो हर कोई फ़्री में पहुँच ही जाता है। पर उन्होंने स्वर्ग के टिकट के आधे पैसे दे दिये होंगे इसलिए यमदूत उन्हें स्वर्ग या नर्क ले जाने की बजाय आधे रास्ते में ही उतार गया होगा।
ये जो ब्राह्मण लोग होते हैं वे स्वर्ग के रियल एस्टेट डीलर के कमीशन एजेंट होते हैं। जितनी तगड़ी दक्षिणा स्वर्ग में उतना ही बढ़िया स्थान। कमीशन लेने के बाद ब्राह्मण सीधे रियल एस्टेट डीलर को फ़ोन कर देते हैं कि साहब पेमेंट हो गया आप आकर इंस्पेक्शन कर लो कि फ़लां की किस प्रकार के मकान में रहने की हैसियत है। साहब आकर देखेते हैं कि कहीं भतौर में से वनस्पति घी की खुशबू तो नहीं आ रही, सब्जी पनीर वाली है या बिना पनीर की, खीर में काजू-किशमिश बराबर पड़े हैं न, मिठाई में केवड़े की खुशबू है या नहीं, दान दी गई बछिया देशी है या जरसी। सब देख-दाखकर डीलर साहब स्वर्ग में मकान एलॉट करते हैं।
कुछ लोग अपने स्वर्गीय परिजन की तेरहवीं में धुंआबंद भोज (जिसमें संबंधित गांव या इलाके के किसी घर में चूल्हा नहीं जलता है।) का आयोजन करते हैं जिससे मृतव्यक्ति के लिए स्वर्ग में एयरकंडीशंड कोठी एलॉट हो जाती है। हालांकि अब के जमाने में ऐसा चलन नहीं रहा तो लोग कमीशन एजेंटों को ही मोटी रकम थमा देते हैं और वो फ़ोन पर कहते हैं- "साहब इंस्पेक्शन के लिए आने की जरूरत नहीं है। हमने देख लिया है आदमी ऊँची हैसियत का है। आप बस एक बढ़िया कोठी एलॉट कीजिए हम पैसे भिजवाते हैं।"
शवयात्राओं और तेरहवियों के अब तक के अनुभव के बाद मेरा विचार है कि एक डाँसबार खोला जाए। जिसमें रॉयल स्टैग और किंगफ़िशर का आनंद लेते हुए सुंदरियों के नृत्य का आनंद लिया जाए। चूंकि मैं अभी इस माहौल का अभ्यस्त नहीं हूँ और मुझे पता है कि मेरे मरने पर मुझे जबर्दस्ती स्वर्ग ही भेजा जायेगा (चाहता तो मैं भी यही हूँ।) इसलिए क्यों न अभी से इस माहौल में रहने की आदत डाल ली जाए। और लगे हाथ डांसबार की कमाई से कमीशन एजेंटों को भी पहले से ही बढ़िया सा पेमेंट कर दिया जाए।
वैसे थोड़ा सा परमार्थ करने का भी इच्छुक हूँ। मेरी योजना है कि अपने डांसबार में समय-समय पर ट्रेनिंग कैंप लगाऊँ। जिससे जो लोग पूरे दिन भगवान को मस्का लगाकर स्वर्ग जाने का सपना देखते हैं, पर इस माहौल में रहने के अभ्यस्त नहीं हैं उनका भी कुछ भला हो जाए। आजकल सुना है सरकारें डांसबारों में नाचने वाली सुंदरियों को भगाने पर तुली हैं। मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न बेचारी बेरोजगार बारबालाओं को स्वर्ग पहुँचाने वाला ट्रेवल एजेंट बन जाऊँ आखिर स्वर्ग के मेरे भावी बंधुओं के प्रति भी तो मेरा कुछ कर्तव्य बनता है। जो बेचारे युगों से उन्हीं पुरानी अप्सराओं का नाच देख-देखकर बोर हो रहे हैं। उन्हें भी बढ़िया आइटम नंबर देखने को मिलेगा। ये भी संभव है कि जब मैं वहाँ जाऊँ तो इंद्र मेरी भेजी सुंदरियों के साथ 'कजरारे-कजरारे' करने में व्यस्त हो और मैं झट से उसकी कुर्सी पर जा बैठूँ।
Thursday, November 30, 2006
रात बाकी है अभी
रात बाकी है अभी
दिन में देखा था उसे
अपनी गली में आते
नजरें झुकाकर
जुल्फ़ें सँवारते
पर बात बाकी है अभी
मुझे पता है
आँखें मूँदते ही
फ़िर से दबे पाँव
सपने में आयेगी वो
उसकी आँखों में डूब जाने को
दिल बेताब है अभी
Sunday, November 26, 2006
जय हो पपीता देव की
सहारा समय मध्य प्रदेश के पत्रकार ने लाइव बातचीत में जब इन सज्जन को समझाने की कोशिश की कि ये पपीते में आई किसी विकृति का परिणाम है। ऐसा कभी-कभार मनुष्यों और पशुओं के बच्चों में भी देखा जाता है। तो ये सज्जन उनकी आस्था पर कुठाराघात समझकर उस पत्रकार पर भड़क गये। पत्रकार का ये भी कहना था कि आपके कारण लोग अपने काम-धंधों पर जाने की बजाय आपके यहाँ पूजा-अर्चना में लगे हैं। और आप पपीते की जगह पर मंदिर बनवाकर भगवान के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाना चाहते हैं।
खैर ये तो बात हुई सहारा समय पर प्रसारित हुई खबर की। पर हमारे देश में ऐसी असंख्य घटनाएं हर रोज ही घटा करती हैं। कुछ समय पहले की ही बात है मेरे गाँव में एक आदमी के यहाँ विकृत अंगों वाली बालिका पैदा हुई। गाँव वालों ने उसे देवी मानकर चढ़ावा चढ़ाना शुरू कर दिया। उस गरीब ने कुछ दिनों के लिए इस अफ़वाह से अपनी गरीबी दूर कर ली। ये हाल तब है जब गाँव शहर से ही लगा हुआ है, और लोगों की जीवन-शैली भी शहर के लोगों से अलग नहीं हैं।
हाल ही में मेरा एक मित्र बता रहा था कि कुछ बाबा लोग किसी स्थान पर कोई पत्थर की प्रतिमा गाड़ देते हैं और फ़िर उस इलाके में लोगों के पास जाकर कहते हैं कि हमें भगवान ने सपना दिया है कि फ़लां जगह उनकी मूर्ति निकलेगी। खुदाई करने पर मूर्ति निकल आती है और फ़िर ये लोग उसे दैवीय स्थान मानकर लोगों से चंदा इकट्ठा कर अपनी दुकानदारी चलाने के लिए मंदिर बना देते हैं।
ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था होने का दावा करने वाले देश के लोगों के ज्ञान का स्तर कितना है ये सर्वविदित है। हालात ग्रामीण क्षेत्रों या छोटे शहरों में ही ऐसे हों ऐसा भी नहीं। हाल ही में मुंबई और सूरत की घटनाओं के बारे में सब जानते ही हैं। हम विद्यालयों और महाविद्यालयों में आज किस प्रकार की शिक्षा दे रहे हैं? आज शिक्षा ऐसे छात्र पैदा कर रही है जो विचारशून्य होकर केवल मशीन की तरह काम करना जानते हैं। महज किताबी ज्ञान देने या रोजगारपरक शिक्षा ले लेने से क्या हम अच्छे नागरिक पैदा कर सकते हैं? क्या हम किसी भी घटना को व्यापक वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में देखने का दृष्टिकोंण उन्हें दे पा रहे हैं?
कुछ लोगों को ये बात लीक से हटकर लगे पर मैंने खुद कई उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों को ऐसी हरकतें करते देखा है। जब हमारे उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ही इस प्रकार की घटनाओं में कोई वैज्ञानिक कारण होना स्वीकार नहीं करते तब गरीब अनपढ़ लोगों से इस प्रकार की आशा करना तर्कसंगत नहीं है। मैंने अक्सर पाया है कि पढ़े-लिखे लोग घर के अंदर तो कहते मिल जायेंगे कि हां इसमें कोई वैज्ञानिक कारण ही होगा। पर भीड़ के साथ वे भी समान कृत्य करते ही नजर आयेंगे। हम मनुष्यों के नहीं भेड़-बकरियों के समाज में रहते हैं। जहाँ अधिकांश लोगों को धर्म, आध्यात्म, ईश्वर का नाम लेकर किसी भी दिशा में हांका जा सकता है।
इसलिए मैं सोच रहा हूँ क्यों ना ये चिट्ठालेखन छोड़कर कोई धर्म और आध्यात्म की दुकान खोल लूँ और इस चिट्ठे को अपनी दुकान की मार्केटिंग के लिए प्रयोग करूँ।
Saturday, November 25, 2006
क्या लिखूँ?
लिखने के लिए यूँ तो बहुत कुछ है। पर लगता है क्यों लिखूँ। क्या लिखने भर से मन की सारी भड़ास निकल जायेगी। या फ़िर कुछ हल्का-फ़ुल्का लिखूँ। आज का अखबार पढ़ने के बाद कुछ हल्का-फ़ुल्का लिखने का भी मन नहीं कर रहा। शाम को पुस्तकालय से लौटा। अखबार रोज नये पर खबरें वही। द इकोनॉमिस्ट के सर्वे में बतलाया गया कि दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र में ढेरों खामियाँ। हमारे लोकतंत्र की झोली में एक और तमगा आ गिरा। वैसे ये तमगा जनता द्वारा रोज ही मिला करता है। पर इस बार तमगा इंपोर्टेड होने से बुद्धिजीवियों को बहस के लिए एक मुद्दा मिल गया। एक-दो दिन चर्चा होगी कि फ़लां-फ़लां परिस्थिति और नेता इसके दोषी हैं। फ़िर वह भी खतम। सब कुछ उसी ढर्रे पर चलता रहेगा हमेशा की तरह।
चीनी राष्ट्रपति के दौरे के बारे में संपादकीय पेज भरे पड़े हैं। आर्थिक मुद्दों पर सहयोग की बात करके और भारत-पाक शांति वार्ता की तारीफ़ कर वे पाक रवाना हो रहे हैं। जहाँ चीन-पाक मैत्री के नये आयाम गढ़े जायेंगे। बदला कुछ भी नहीं है। इधर जाते-जाते वे वामपंथियों को सलाह दे गये कि थोड़े तो उदार बनो और आर्थिक विकास की प्रक्रिया में बेवजह टांग अड़ाने से बाज आओ। पर कल दिल्ली में सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में उन्होंने हर बार की तरह वही बेसुरा राग अलापा। अब वे इस बात से भी पल्ला झाड़ रहे हैं कि हू ने उन्हें ऐसी कोई सलाह दी।
जैसा कि परंपरा है संसद के शीतकालीन-सत्र की शुरूआत बड़ी हंगामेदार रही। भाजपा-शिवसेना ने संसद नहीं चलने दी और सपा सांसद अबू आजमी की गिरफ़्तारी पर भी खूब बवाल मचा और स्पीकर ने भी वही पुराना घिसा-पिटा डायलॉग दुहराया कि ये सब दुर्भाग्यपूर्ण है। मुझे लग रहा है कि यही लिखूँ कि भारत में संसद का होना ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे क्रिकेटिया शेरों की दहाड़ भी संसद में भी सुनाई दी। इस पर भी खूब चर्चा हुई संसद में अपने आचरण का जब-तब खुलेआम प्रदर्शन करने वालों को मैदान पर भारतीय शेरों के प्रदर्शन पर शर्म आ गई।
आजकल राजनीति की कला में मुँह के साथ-साथ हाथ-पैरों का भी भरपूर प्रयोग करने की परंपरा चल निकली है। सो कल उत्तर-प्रदेश में दो पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने इस कला का भरपूर प्रदर्शन किया। परंतु केवल हाथ-पैरों से इस कला में वह निखार नहीं आ पाता। इसलिए लगता है जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जायेंगे, कलाकार कुछ और उपकरणों का भी प्रयोग करते नजर आयेंगे।
वैसे कला के प्रदर्शन में तो टीम-इंडिया के शेर भी कम नहीं हैं। क्रिकेट की पिच पर भी वे रैंप की तरह कैटवाक करते हुए आते हैं और थोड़ी अदायें दिखाकर झट से दूसरे मॉडल को भेज देते हैं। वैसे गलती उनकी भी नहीं है। जब रात के एक बजे सारी भारत की जनता जम्हाईयाँ लेते हुए अपनी आँखों को जबर्दस्ती टीवी स्क्रीन पर टिकाये हुए है तो उनका भी फ़र्ज बनता है कि जल्दी से पैवेलियन लौटकर जनता को चैन की नींद सोने दें। पर उनके इतना करने के बावजूद वही जनता सुबह उठकर सबसे पहले उन्हीं को गरियाने का काम करती है।
पर इन सब बातों को भी लिखने से क्या फ़ायदा? इस बार भी कुछ नया तो नहीं हो रहा!
कलकत्ता में ग्रीनपीस के कार्यकर्ता लोगों से कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण गंगा मैया संकट में है। पर ऐसा करके भी वे क्या कर लेंगे। जनता और सरकार उसी गैल चलती रहेगी जिस पर पहले से चल रही है। बनारस के गंगा घाट पर शाम की आरती को देखने भी वैसे ही पर्यटक जुटते रहेंगे। इलाहबाद में गंगा की गंदगी के बावजूद उसका धार्मिक अवसरों पर वैसा ही महत्व बना रहेगा। लोगों के लिए ये सब चीजें बेमानी हैं यह लिखकर भी मैं क्या उखाड़ लूँगा
आज शाम को प्रतीक पांडेजी बतला रहे थे कि उनका चिट्ठा 'टाइमपास: समय नष्ट करने का श्रेष्ठ साधन' हिंदी चिट्ठों में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चिट्ठा है। पढ़ा जाने वाला इसलिए नहीं कहा कि उस पर सब देखने के लिए ही होता है पढ़ने के लिए नहीं। प्रतीकजी ने चिंता जताई कि लोग ऐसे चिट्ठे ही ज्यादा देखते हैं पर साथ ही यह संतोष भी कि इस बहाने लोग उनके संजाल हिंदी ब्लॉग्स पर तो आते हैं। पर ये कोई नया ट्रेंड भी नहीं है, समाचार चैनल वाले यह बात वर्षों से कह रहे हैं।
लगता है आज कुछ भी लिखने के लिए नहीं है। जो हो रहा है उसे खिलाफ़ बुद्धिजीवियों के कोरस में सुर मिलाने से कोई हल निकलने वाला नहीं है। और ऐसा कुछ परिवर्तन भी दिखाई नहीं देता जिसके बारे में ही कुछ लिख दिया जाये। पर हर दिन मूड भी एक-सा नहीं रहता। कल शायद मैं भी फ़िर से वही राग अलापूँ। नेताओं को कोसूँ, लोगों के आचरण पर फ़िकरे कसूँ, फ़िल्मी हस्तियों की जीवन-शैली पर कोई व्यंग्य करूँ या किसी के अंधविश्वास को गालियाँ दूँ। हो सकता है कल सुबह के अखबार में कुछ नया हो, कुछ लिखने का मूड भी बने। पर पता नहीं क्यूँ आज कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा।
Wednesday, November 22, 2006
सायबर कैफ़े कैसे चलायें? How to Run a Cyber Cafe
कल रात गूगल चैट पर हैदराबाद निवासी सागरचन्द नाहरजी से मुलाकात हो गयी। उनका सायबर कैफ़े का व्यवसाय है। मैंने जब उनके सायबर कैफ़े के हालचाल के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वहाँ सायबर ढाबों (कैफ़े) की संख्या में बढ़ोत्तरी होने से प्रतियोगिता बढ़ गयी है। इसी कारण से ग्राहकों की संख्या में भी गिरावट आई है। हमने सलाह दी कि प्रतियोगिता बढ़ने पर तो व्यवसाय का मजा ही अलग है, रोज दूसरे के ग्राहक तोड़ो और अपने में जोड़ो। नाहरजी का कहना था कि इस प्रतियोगी माहौल में टिके रहने के लिए उन्हें कुछ सलाह दी जाए। तो हमारे खुराफ़ाती दिमाग में ऑन-द-स्पॉट जो टिप्स आयीं वो हमने धड़ाधड़ टाइप कर दीं। नाहरजी को हमारे सुझाव पसंद आ गये साथ ही उन्होंने अनुरोध भी कर दिया कि इस बाबत् एक पोस्ट भी लिखी जाए, जिसमें विस्तार से सायबर कैफ़े को चलाने के बारे में कुछ सुझाव दिये जाएं। जिस प्रकार किसी कवि के मन में हमेशा एक चाह रहती है कि उसे कोई श्रोता मिले उसी तरह हमारे मन के किसी कोने में भी यह चाह दबी थी कि हमें भी कोई सलाह लेने वाला मिले। लोगों को मुफ़्त की सलाह बाँटने में जो आनंद प्राप्त होता है वही आनंद मैं भी इस पोस्ट को लिखते समय अनुभव कर रहा हूँ और अन्य चिट्ठाकार बंधुओं से भी अपनी टिप्पणियों के माध्यम से इस आनंद को प्राप्त करने का अनुरोध करता हूँ।
मेरे मष्तिष्क में इस समय जो सुझाव उमड़-घुमड़ रहे हैं उनका ब्यौरा मैं यहां क्रमवार ढंग से दे रहा हूँ-
४- लड़कियाँ चैटिंग करते समय चॉकलेट, कुरकुरे आदि खाने की बड़ी शौकीन होती हैं तो यदि संभव हो तो बिक्री के लिए ऐसा ही कुछ सामान भी रख लिया जाए। और कभी-कभी उन्हें ये चीजें मुफ़्त में भी उपलब्ध करवायी जाएं।
मुफ़्त की सलाह देते देते सुझावों की ये श्रृंखला कुछ ज्यादा ही लंबी हो गयी। इसलिए अब नाहरजी से अनुरोध है कि इनमें से जो भी सुझाव उन्हें वयावहारिक लगें वे उन्हें आजमायें, हमारी शुभकामनायें उनके साथ हैं। इस प्रतियोगिता में वे विजयी हों।
साथ ही अन्य चिट्ठाकार बंधुओं से आग्रह है कि वे भी अपने-अपने अमूल्य (मुफ़्त) सुझाव टिप्पणी के माध्यम से दें और नाहरजी को इस रण में विजयी बनायें।