Monday, February 15, 2010

अकेला राही- कविता

मैं स्‍वयं बढ़ता चलूंगा
और को मैं क्‍यों बुलाऊं

राह भी मैं खुद बनाऊं
चाल भी चलकर बताऊं
साथ में कोई न आये
राही चिन्‍ह का पत्‍थर बने
सदियों की सदियां गुजारे
दूसरा राही तब उसे
और थोड़ी दूर चलकर
वह भी चिन्‍ह का पत्‍थर बने

ऐसे युगों के बीतने पर
शाश्‍वतों की डग बने
फिर वहीं अवतार आयें
स्‍वयं चल कंटक डगर पर
शूल पग से सोख जायें
तब कहीं दुनियां चलेगी
सत्‍य शिव की राह पर

तू रोक मत डग खोदना
मत किसी की परवाह कर
स्‍वयं अकेला बढ़ता चल
और को तो मत बुला
ऐसे मेरे हैं विश्‍वास
मैं किसी को क्‍यों बुलाऊं

मैं स्‍वयं बढ़ता चलूंगा,
और को मैं क्‍यों बुलाऊं

- बाबू विद्यारामजी गुप्‍ता द्वारा दिनांक 2-2-1972 को रचित

Saturday, February 13, 2010

कुछ दिन तो जी लूं और

कुछ दिन तो जी लूं और
अब तक रही जिलाती मुझको
मां का अंक, पिता की उंगली
गुरू की शिक्षा, मित्र की बगली
नभ के तारे, नभ की बदली
यौवन की वह स्‍वयं कल्‍पना
आशा नव जीवन निर्माण की
भुजबल का व्‍यर्थ डींगना
रचने डग, नव निर्माण की
आशायें काफूर हुईं
अड़ी निराशा मध्‍य कंठ में
उसे निगल बाद करने जुगाली
दुनिया को सब स्‍वाद बताने
और मूर्खता पर पछताने
कुछ दिन तो जी लूं और

- बाबू विद्याराम गुप्‍ता द्वारा 26-11-1977 को रचित