Wednesday, September 17, 2008
मोनिका बेदीजी हम आपको नमन करते हैं
शिल्पा शेट्टी जिन्होंने विदेश में जाकर भारत की महानता का परचम लहराया जिससे कि स्वामी विवेकानंद तक की उपलब्धियां हमें छोटी लगने लगती हैं, इस शो को होस्ट कर रही हैं। आखिर बिग ब्रदर के घर में अपनी ऐसी-तैसी कराकर और कुछ टसुए बहाकर इस बिल्ली के भागों ऐसा छींका फूटा कि वो अब तक साथ निभा रहा है। पर धन्य है भारतीय परंपरा जो हर विदेशी चीज को ऐसे अपनाती है जिससे ब्रिटेनवासियों को अब तक गर्व होता होगा कि हम भले अब उनके शासक नहीं पर दिल से वे खुद को हमारा गुलाम ही मानते हैं तभी तो जेड गुडी जिसके बारे में ना जाने बिग ब्रदर के समय क्या-क्या लिखा गया था, जब भारत में आती है तो पूरा मीडिया उसके सामने ऐसे बिछ जाता है जैसे स्वयं महारानी एलिजाबेथ अपनी रियाया को दर्शन देकर धन्य करने निकली हों।
रियेलिटी शोज में कितनी रियेलिटी होती है यह किसी से छिपा नहीं है। कुछ झगड़ालू और विवादास्पद छवि के लोगों को इकट्ठा कर एक घर में बंद कर दो और फिर चटखारे ले-लेकर उनकी गंदी हरकतों को दिखा-दिखाकर टीआरपी बटोरो। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे शोज में सभी कुछ पहले से फिक्स होता है।
सो इस बार बिग ब्रदर के घर में ऐसे सेलेब्रिटी (मीडिया ऐसा मानता है जनता नहीं ) बुलाये गये जिनकी महानता का वर्णन सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा। इनमें हैं राहुल महाजन, मोनिका बेदी जैसी राष्ट्रीय हस्तियां, ऐसी पुण्यात्माएं जिनके पुण्यकर्मों का लेखा-जोखा खोलने की यहां जरूरत नहीं वैसे भी कहा जाता है कि प्रतिभा किसी तारीफ की मोहताज नहीं होती सो इन जैसे प्रतिभाशाली और महान विभूतियों को बिग बॉस के अन्य प्रतिभागियों से ज्यादा महत्व देना निहायत जरूरी है।
कुछ समय पहले शायद भारत-श्रीलंका क्रिकेट सीरीज के ही दौरान बीच-बीच में बिग ब्रदर के विज्ञापन दिखाये जाते थे। जिनमें ये दोनों बड़ी मासूम सी सूरत बनाकर खुद को ही नैतिकता का सर्टिफिकेट देते दिखाई देते थे। मोनिका बेदीजी का कहना था कि उन्होंने इतने कष्ट सहे, इतनी मुश्किलें उनके सामने आईं फिर भी वे हिम्मत नहीं हारीं और डटकर खड़ी रहीं और जैसा कि किताबों में बच्चे पढ़ते हैं कि अंत में सच्चाई की जीत होती है कुछ वैसे ही उनको भी जीत मिली और जेल से बाहर अब वे आजाद हैं।
राहुल महाजन कहां पीछे रहने वाले थे। एक समय भारत के सबसे बड़े दलाल रहे व्यक्ति का यह सपूत भी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था कि उसने भी जीवन में कुछ कम कष्ट नहीं सहे, उसको भी बुरा समय देखना पड़ा, उसने भी मुंबई की बसों में धक्के खाए। लग रहा था कि जनता उसे उसके सुकर्मों का सर्टिफिकेट दे ना दे, वह खुद इसमें सक्षम है और खुद को सर्टिफिकेट देने के लिए उसे किसी दूसरे की जरूरत नहीं है। हाय भगवान हमें भी ऐसे बुरे दिन दिखाए और फिर हजारों करोड़ के कालेधन का एकमात्र वारिस बनने के लिए कुछेक कष्ट सहने में कोई बुराई नहीं है।
कुल मिलाकर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि उक्त दोनों ही लोग बेचारे इस गलत सिस्टम के मारे हैं। राहुल महाजन जैसे बेचारों को अदालतों के चक्कर काटने पड़ते हैं अरबपति होकर तो ये तो भाई सरासर जुलम है। हमारे पास इतना पैसा हो तो हम अदालत, पुलिस, सिस्टम सबको खरीद लें। पर बेचारे राहुल को कितना कष्ट भोगना पड़ा होगा इसकी तो बस कल्पना ही की जा सकती है। और मोनिका बेदीजी उनकी मासूमियत पर तो बस मर-मिटने को जी चाहता है। बेचारी कैसी रोनी सूरत बनाकर रोज कहती फिरती हैं कि वे अबू सलेम के बारे में कुछ नहीं जानतीं ना ही उससे उनका कोई संपर्क है। सही है जी एक आतंकवादी की रखैल होकर उन्हें इतनी फुर्सत ही कहां मिली होगी कि वे उसके बारे में कुछ जानें-समझें। फिर भी लोग अब तक शक करते हैं कि उनके अबू सलेम से संबंध हैं। कैसे इस देश के लोग एक बेचारी अबला के चरित्र पर कीचड़ उछालते हैं शर्म आनी चाहिए उन्हें और अब उन्हें जो फिल्मों के आफर मिल रहे हैं वे तो बस उनकी महान अभिनय प्रतिभा के कारण हैं।
मोनिकाजी आप वाकई में अब प्रेरणा का स्रोत बन चुकी हैं ऐसे देश में जहां अब भी पैसे तथा पहुंच होने के बावजूद सिस्टम को ना खरीद सकने वाले लोगों के लिए जो बेचारे अदालत के चक्कर काट-काटकर परेशान हैं और इस कारण उन्हें जो कष्ट भोगने पड़ रहे हैं उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। मोनिकाजी आप ही उन्हें कुछ मार्ग दिखाएं। आज के युग में आप ही उनकी तारणहार हैं। ऐसे प्रेरणादायी व्यक्तित्व को हमारा नमन।
फोटोग्राफी या संयोग ?
Tuesday, September 16, 2008
पुलिस थाने पर पुलिसकर्मियों का हमला
इतने प्रतिष्ठित न्यूज वेबसाइट पर ऐसी गलतियां पहले देखने को रही हैं। इनसे अनुरोध है कृपया इसे सुधारें और पाठकों को भ्रम में ना डालें।
Monday, September 15, 2008
मीडिया वालों शिवराज पाटिल को मत डराओ, हिम्मत है तो खुलकर सामने आओ
पर इस बार बच्चू मीडिया के शिकंजे में आ ही गए। बहुत सही समय पर मीडिया ने एक जिम्मेदार ओहदे पर बैठे और नीचता के सभी रिकार्ड तोड़ चुके लोकतंत्र की आयातित महारानी के इस चरणसेवक की वो बखिया उधेड़नी शुरू की कि 10 जनपथ तक सकते में आ गया। मीडिया से इस प्रकार की जोरदार प्रतिक्रिया के साथ ही जनता की ये राय कि ऐसे मक्कार गृहमंत्री को लात मारकर बाहर कर देना चाहिए भी इटैलियन महारानी के कानों में जरूर गूंज रही होगी। आज 10 जनपथ पर हुई बैठक में पाटिल को ना बुलाने से लोग जरूर कुछ कयास लगा रहे होंगे पर बेकार में कोई उम्मीद ना पालें ऐसा मेरा सुझाव है क्योंकि कुछ भी बदलने वाला नहीं है। ऐसे समय में किसी भी बदलाव की उम्मीद करना खुद को धोखा देना है जब देश में सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है और सत्ता एक विदेशी महिला, जो हमेशा भारत देश के लिए अपने किये गये त्याग का ढोंग करती है, के पैर की जूती बनकर रह गई है।
देश के नागरिकों के लिए बहुत सहजता से समझ में आने वाली बात है कि एक विदेशी महिला जो कदम-कदम पर भारत की प्रतिष्ठा की धज्जियां उड़ाती है, जिसके सामने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, खुद एक राष्ट्राध्यक्ष की तरह व्यवहार करती है और दुनिया को यह संदेश देती है कि भारत भले सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हो उसके प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की हैसियत मेरे पालतू से ज्यादा की नहीं है, की निष्ठा इस देश और इसके लोगों में कैसे हो सकती है। यदि यह ऐसी ही त्यागवान महिला है और इस महान त्याग की भावना के कारण इसने सभी पदों का त्याग कर दिया है तो क्या इसे मालूम नहीं है कि भारत के लोकतंत्र में एक प्रधानमंत्री की क्या गरिमा है, एक राष्ट्रपति का कितना सम्मान है। बम विस्फोटों के बाद प्रधानमंत्री आवास की बजाय 10 जनपथ पर आपात बैठक का होना क्या दुनिया वालों को ये दिखाने के लिए काफी नहीं है कि इस देश में आजकल प्रधानमंत्री नाम की कोई चीज है ही नहीं और है भी तो केवल मैडम के सामने दुम हिलाने के लिए। खुदा ना खास्ता इटली का कोई पर्यटक ही इन विस्फोटों का शिकार बन जाता तो पूरी की पूरी कैबिनेट ऐसे गला फाड़-फाड़कर रोती जैसे इनका कोई सगा मर गया हो खासकर हमारे चाटुकार-श्रेष्ठ मन्नू भाई। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब ये कंधमाल की घटनाओं पर ऐसे मातम मना रहे थे जैसे इनके घर में ही गमी हो गई हो क्योंकि मरने वाले ईसाई थे। उनका बस चलता तो सिक्ख होने के बावजूद ऐसे गम के मौके पर अपने बाल तक मुंडवा लेते पर मैडम ने कहा होगा कि ईसाई धर्म में इसकी कोई जरूरत नहीं है।
फिलहाल तो ऐसा लगता है कि इस देश में केवल एक विदेशी महिला की जूतियों का ही सम्मान हो रहा है जिनकी राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और कैबिनेट तक वंदना करते हैं और इसके अलावा उनकी किसी में कोई निष्ठा नहीं है। भारत के संविधान में चाहे कुछ भी लिखा हो पर अब तो यहां कोई भी माई का लाल मैडम के प्रसाद-पर्यन्त ही अपने पद पर बना रह सकता है चाहे वह राष्ट्रपति ही क्यों ना हो। ऐसी महिला जिसकी इस देश और यहां के संविधान में कोई आस्था नहीं है और उसके चरणवंदकों, जिनकी उसकी चरणवंदना के अलावा किसी और में कोई आस्था नहीं है, से इस देश के भोले-भाले लोग ये उम्मीद लगाकर बैठे हैं कि अब नहीं तो तब ये लोग कुछ करेंगे पर इन लोगों को अपनी महारानी के प्रशस्तिगान और उसकी सुविधाओं का ख्याल रखने से फुर्सत मिले तब तो वे कुछ सोचें
देश में कहीं भी बम धमाके हों, लोग मरे इनका घिसा-पिटा रिकॉर्ड बजता ही रहता है। सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखें, आतंकवादी कभी सफल नहीं होंगे, शांति बनाये रखें। ऐसा लगता है कि हिंदुस्तान की जनता हाथ धोकर सांप्रदायिक सौहार्द के पीछे पड़ी हुई है और देश में जो शांति है वो इन्हीं के कारण है। नहीं तो ये हिंदुस्तानी तो इतने जंगली लोग हैं कि रोज एक-दूसरे के खून के प्यासे हो उठें पर इनके रोज-रोज बजने वाले रिकॉर्ड को सुनकर ही रुके हुए है।
और वह शिवराज पाटिल वह तो बेचारा महारानी के इस दरबार का एक अदना सा नौकर है। अब आप यदि उसे गृहमंत्री समझने की भूल कर बैठे हैं तो इसमें उस बेचारे का क्या दोष ! वह तो बेचारा अपनी ड्यूटी बजाने के अलावा कुछ जानता ही नहीं। उस बेचारे को यदि कपड़े पहनने का शौक है तो पहनने दीजिए और इसके अलावा उसे कुछ आता हो तो कुछ करे ना। जब अहमदाबाद गया था तो वहां की बारिश में बेचारे के जूते में कीचड़ लगने के भय से कितना चिंतित हो गया था। हो भी क्यों ना, इतनी मेहनत करके बेचारे ने अपना वार्डरोब सजाया हुआ है। इतने भय के माहौल में उसे भी डर लगता होगा ना पर लोग उस बेचारे को और डरा रहे हैं। शास्त्रों तक में ऐसे निरीह प्राणियों पर दया करने की बात कही गई है फिर भी लोग ऐसे पापकर्म के भागी बन रहे हैं तो भगवान उनको सदबुद्धि दे।
मीडिया जो इस मामले में बड़े जोर-शोर से अपनी पीठ ठोंक रहा है अपने गिरेबान में झांके। एक अदने से व्यक्ति को बलि का बकरा बनाकर वाहवाही तो उसने लूट ली पर उसे भी पता है कि इससे कुछ होना-जाना नहीं है पर उसे इससे क्या मतलब। सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठे व्यक्ति तक अब उस बेचारे के पीछे पड़े हैं, खुद कई कांग्रेसी नेता तक उनको बुरा-भला कह रहे हैं क्योंकि उन्हें भी अपनी गोटियां फिट करनी हैं। ऐसे में उस व्यक्ति को नंगा करने से मीडिया को भला काहे कोई गुरेज हो पर ऐसा करके उसने कोई बड़ा वीरता का काम नहीं किया है। यदि मीडिया कुछ करना ही चाहता है तो खुलकर सामने आए और जो वास्तविक जिम्मेदार हैं उनकी ओर उंगली उठाए। पर उसे अपनी दुकान चलानी है और इसीलिए वह ऐसे विलेन खोजता है जो उसे कोई नुकसान तो नहीं पहुंचा सकते अव्वल वाहवाही जरूर दिला सकते हैं।
Saturday, June 07, 2008
कोई तो सुने इन दहेज कानून पीडि़तों की
ऐसी ही कई कहानियॉं आपको मिल जाएंगी जिनमे पत्नी-पीडि़त पति के पास सिवाय घुट-घुटकर जीने के कोई विकल्प ही नहीं बचता। क्योंकि हमारे भारतीय कानूनों के अनुसार पीडि़त केवल पत्नी ही हो सकती है पति(या उसके परिजन) नहीं। हालांकि ये कानून बनाये तो गये थे समाज मे स्त्रियों के शोषण को रोकने और शोषितों को सजा दिलवाने के लिए और इनका उपयोग आरोपियों को सजा दिलाने में हो भी रहा है। पर उन निर्दोष पतियों और उनके परिजनों का क्या जो बिना मतलब घुन की तरह पिस रहे हैं क्योंकि कानून मे उनके लिए कोई उपचार है ही नहीं ?
हालांकि ऐसे बेचारे पत्नी-पीडि़तों के किस्से तो बहुत हैं । पर मुद्दे की बात पर आते हैं। कुछ दिन पहले राजेश रोशनजी के ब्लॉग पर एक चित्र छपा था-
इसे पढ़कर लगा कि क्या वाकई दहेज संबंधी कानूनों ने कुछ पतियों का जीना मुहाल कर रखा है ?
हालांकि आस-पास के क्षेत्र में ऐसी एक-दो घटनाओं के बारे में सुना तो था पर नेट पर खोजा तो इस साइट पर काफी सारे मामले ऐसे देखने को मिले। भारतीय महिला से शादी करने से पहले सोचने की चेतावनी के साथ धारा 498a एवं घरेलू हिंसा अधिनियम के बारे में काफी सारी बातें कही गई हैं। और तो और कई शहरों में उपलब्ध टेलीफोन हेल्पलाइन के साथ-साथ यहां ऑनलाइन सलाह भी दी जा रही है। पर बेचारे पति करें भी तो क्या ?
आप सभी की प्रतिक्रियाओं के इंतजार में-
Saturday, April 05, 2008
ग से ‘गाय’ नहीं सी फॉर ‘काऊ’
मेरे चिट्ठे पर प्रकाशित डा. निरंजन कुमार का आलेख पढ़कर हमें पता चला कि कैसे इस देश का नाम इंडिया पड़ा और अपने देश के लिए आजकल भारत या हिन्दुस्तान की बजाय लोग विदेशियों की तर्ज पर इंडिया शब्द का प्रयोग करना अपनी शान समझते हैं।
पर ये इंडियंस वास्तव में चाहते क्या हैं ? इंडिया शब्द कहने से केवल इस बात का बोध नहीं होता कि फलां व्यक्ति अपने देश का नाम अंग्रेजी में ले रहा है बल्कि इसके बहुत गहरे निहितार्थ हैं और इसके पीछे की मंशा पर भी विचार किया जाना चाहिए।
एक देश दो नाम
एक देश दो नाम
साभार: दैनिक जागरण
Friday, April 04, 2008
चीन के आगे गिड़गिड़ाने के मायने
अब तो रोजमर्रा की बात हो चली है कि हमारे माननीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी चीन को आश्वासन देते रहते हैं कि हमारी धरती से आपके खिलाफ हम कोई गतिविधि नहीं होने देंगे। उधर चीन कभी आंखें दिखाता है तो कभी पीठ थपथपाता है।
फिर से प्रणब मुखर्जी ने चीन के आगे घुटने टेकने वाले रुख के साथ वही बात दोहराई कि भारत तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और भारत में ओलंपिक मशाल को पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी। साथ ही दलाईलामा को फिर से समझाया गया है कि वे भारत में बस मेहमान बनकर रहें और चीन के खिलाफ कोई हरकत न करें। हालांकि वैसे भी वे कुछ करने के मूड में नहीं लगते।
विदेश नीति के हिसाब से देखा जाए तो भारत और चीन के रिश्तों में लंबे समय की कटुता के बाद अब संबंध सामान्य हो चले हैं। हालांकि जानकारों का कहना है कि द्विपक्षीय संबंधों के इस मधुर दौर में भारत को चीन के खिलाफ कुछ भी कहने से बचना चाहिए। पर मेरा मानना है कि भारत भले ऐसा सोचता हो चीन कभी भारत के साथ संबंध मधुर रखने का पक्षधर नहीं रहा है। वह केवल दबाव की विदेश नीति भारत जैसे देशों पर लागू करता रहा है और संभवत: आगे भी करता रहेगा। दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध भी इस कारण सामान्य हैं कि भारत के साथ उसका कारोबार 60 अरब डॉलर के आंकड़े पर दस्तक दे रहा है और आर्थिक संबंधों को बनाये रखने तथा भारत में अपना माल खपाने के लिए वह अच्छे संबंधों की बात कर रहा है। यदि भारत-चीन कारोबार ऐसी ऊंचाईयां नहीं छू रहा होता तब भी क्या वह भारत के साथ ऐसे ही संबंधों का पक्षधर होता इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। संबंधों की इस कथित मधुरता के दौर में भी वह भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही एक सीमांत प्रदेश में दौरे पर आपत्ति उठाता है और प्रणब मुखर्जी जैसे लोगों को उसका बचाव करना पड़ता है।
कूटनीतिक नजरिए से देखा जाए तो भारत ने तिब्बत मसले पर प्रारंभ में समझदारी का परिचय दिया और तिब्बत को चीन का घरेलू मामला मानकर उससे दूरी बनाये रखी। यहां तक कि पूरा विश्व समुदाय इस बात पर चीन को गरियाता रहा पर भारत यही दोहराता रहा कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है और वह अपनी जमीन से चीन विरोधी कोई गतिविधि नहीं होने देगा। वैसे भी भारत को चीन से सुधरते संबंधों की कीमत पर तिब्बत मसले में कोई टांग नहीं अड़ानी चाहिए। खासकर तब जब तिब्बती धर्मगुरू और उनकी निर्वासित सरकार भारतीय क्षेत्र में रहती है। क्योंकि इससे सीधा-सीधा संदेश जाता कि भारत अपनी जमीन से चीन विरोधी त्त्वों को समर्थन दे रहा है।
Thursday, April 03, 2008
ऐसे आरक्षण से किसका भला होगा ?
ज्यादा समय नहीं हुआ जब भाजपा ने चिल्ला-चिल्लाकर महिला आरक्षण के मामले में यूपीए सरकार को कठघरे में खडा़ किया कि वह महिला आरक्षण मामले में गंभीर नहीं दिखती और अपने संगठन में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा भी की। वहीं कांग्रेस की नेता और महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा कि सरकार इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाना चाहती है। हालांकि मामला अभी तक लटका हुआ है और हो सकता है आगे भी लटका रहे। महिला अधिकारों की बात करने वालों से माफी मांगते हुए मेरा ये प्रश्न है कि क्या उन्होंने गंभीरता से कभी विचार किया है कि इस प्रकार के आरक्षण से महिलाओं की स्थिति में वाकई कुछ परिवर्तन हो सकता है ?
पहला- मेरे शहर में स्थानीय नगरपालिका में महिलाओं के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं और जिले में कुछ नगरपालिकाओं में कहीं-कहीं अध्यक्ष भी महिला ही हो सकती है। जिस प्रकार से चुनावों में साधारणतया ईमानदार, समाज के लिए कुछ करने का जज्बा रखने वाले कर्तव्यनिष्ठ भद्र पुरुष भाग लेने से कतराते हैं तो जाहिर है कि कोई पढ़ी-लिखी, जागरूक और अधिकारसंपन्न महिला से चुनाव लड़ने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती क्योंकि उसके पास ना तो समर्थकों के रूप में गुंडों की फौज है और ना ही वोट-बैंक या फर्जी वोट डलवाने की कूबत।
विभिन्न वार्डों के बाहुबलियों या प्रभावशाली लोग महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को ऐसे ही तो नहीं छोड़ देने वाले। ऐसे में इन दबंगों, गुंडों और बाहुबलियों के द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों को चुनाव लड़वाना आम बात है। चुनाव में प्रचार भी इनके खुद के नाम पर ही किया जाता है और कहा जाता है कि फलानेराम चुनाव लड़ रहे हैं। कई बार तो जनता को उम्मीदवार महिला का नाम तक नहीं पता होता। यहां तक कि जीतने के बाद भी ये महिलाएं स्थानीय स्तर पर जनता की नुमाइंदगी करने की बजाय घर का चूल्हा-चौका करते ही नजर आती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ होती हैं तो इन्हें अपने पद और कार्यक्षेत्र के बारे में कतई कोई जानकारी नहीं होती। ऐसे में इनके पति महोदय ही इनके नाम पर अपने क्षेत्र में अपनी राजनीति करते हैं और स्थानीय निकाय की बैठकों में भी भाग लेते देखे जाते हैं।
कल के स्थानीय अखबार ने नगरपालिका परिषद की बैठक की रिपोर्ट छापी जिसके अनुसार सभी महिला पार्षद इस बैठक में शामिल हुईं पर केवल श्रोता के रूप में जबकि बहस आदि कार्यवाही करने का काम इनके पतियों ने किया। ऐसे में इनकी महिलाओं की उस बैठक और यहां तक कि उस पद पर क्या अहमियत है।
दूसरा- मेरे पड़ौस के विधानसभा क्षेत्र की विधायक एक महिला हैं। हालांकि विधायक होने के नाते वे क्षेत्र में लोगों से मिलती-जुलती हैं और उनकी समस्याएं सुनती हैं पर हर समय उनके पति महाशय उनके साथ मौजूद रहते हैं और साफ-साफ कहें तो लोगों से बात भी वही करते हैं और बाकी सारे काम भी जो उनकी विधायक पत्नी के जिम्मे हैं और विधायक महोदया हर जगह मूकदर्शक ही बनी रहती हैं। गनीमत है कि पति महोदय विधानसभा में उनकी कुर्सी पर नहीं बैठते।
तीसरा- पास ही के जिले की एक नगरपालिका अध्यक्ष जो महिला हैं, को उनके पति महोदय के अवैध कार्यों और जमकर भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया गया। जबकि अध्यक्ष महोदय जिनके ऊपर सारा कार्यभार होना चाहिए बस नाम के लिए ही थीं। अफसरों को धमकाने, उनसे मन-मुताबिक काम करवाने, नगरपालिका के फैसलों और पैसे खाने का पूरा जिम्मा उनके पति के ऊपर ही था।
महिला आरक्षण के समर्थकों का यह तर्क होगा कि पूरी तौर पर न सही कुछ तो परिवर्तन हुआ है। पर कब तक हम हर चीज में कुछ भी जैसी चीजों पर संतोष करते रहेंगे। जिस कछुआ चाल से परिवर्तन आ रहा है उससे तो शायद अभी और सौ साल लग सकते हैं स्थिति को सुधारने में। हम इस बात पर क्यों विचार नहीं करते कि और कौन से ऐसे उपाय हैं जिनसे अभी और कम से कम अगली पीढ़ी को वास्तविक अर्थों मे न्याय मिल सके।
Monday, March 31, 2008
जिंदगी की नहीं फिल्मी रेस
फिल्म की कहानी बहुत दमदार तो नहीं पर अंत तक दर्शक को बांधे रखती है। कहानी के हिसाब से किरदारों का प्रयोग बढि़या तरीके से निर्देशकद्वय ने किया है। फिल्म के गाने टीवी के प्रोमो के हिसाब से तो बहुत अच्छे हैं पर फिल्म में ठूंसे हुए हैं। तेज गति से भागती फिल्म में गाने बोर ही करते हैं। फिल्म के अंत में तेज संगीत के साथ कारों की रेस दिखाई जाती है। इसे देखकर लगता है अब्बास-मस्तान ने अपनी थ्रिलर शैली और मसाला सिनेमा का कॉकटेल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
प्रीतम चक्रबर्ती जैसे संगीत के लिए जाने जाते हैं वैसा ही उन्होंने इस फिल्म में भी दिया है। गानों के वीडियोज प्रभावित करते हैं पर फिल्म में सिचुएशन के हिसाब से नहीं लगते। कुमार तौरानी की यह फिल्म भीड़ खींचने में कामयाब हो रही है। हालांकि इस हफ्ते रिलीज हुई ‘वन टू थ्री’ इसे कड़ी टक्कर देगी। जिंदगी की रेस दिखाकर फिल्म को पैसे कमाने की रेस में दौड़या गया है और काफी हद तक यह सफल भी है।
Thursday, March 20, 2008
लड़कियों अभी तुम्हें मरना होगा, कमोडिटी मार्केट में तेजी है.......
मध्यप्रदेश में हाल ही में लोक सेवा आयोग और न्यायिक सेवा परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद कमोडिटी मार्केट खूब उछालें मार रहा है। ऊंची जातियों में जहां तैयारी से पहले कमोडिटीज के औने-पौने दाम मिल रहे थे वहीं अब इनके रेट 25 से 50 लाख तक पहुंच रहे हैं। हालांकि बोली लगाने वालों की तो कोई कमी नहीं पर कम ही हैं पर उछलते मार्केट में हैसियत वाले ही भाव-ताव कर पा रहे हैं।
अगली पोस्ट में ऐसे भयावह आंकड़े जिन्हें देखकर भारत की महान संस्कृति का डंका पीटने वालों को जूते मारने का मन करता है ............
Tuesday, March 18, 2008
जरूरत है बलवीर सिंह जैसे नायकों की
160 किलोमीटर लंबी काली बेई नदी पंजाब में सतलज की सहायक नदी है। एक समय था जब 32 शहरों की गंदगी और समाज की उपेक्षा की मार सहती इस नदी की हालत देश की अनगिनत नालों में तब्दील हो चुकी नदियों की तरह ही थी। यह वही नदी है जिसके किनारे सिखों के गुरू नानकदेवजी को दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था। पर समय के साथ देश की अन्य नदियों की तरह ही इस नदी के लिए भी अस्तित्व का संकट पैदा हो गया। तब इस नदी के पुनरुद्धार करने का बीड़ा उठाया बाबा बलवीर सिंह ने।
पंजाब के एक छोटे से गांव सींचेवाल के इस संत ने अपने बलबूते इस नदी को साफ करने का बीड़ा उठाया। संत बलवीर सिंह ने अपने शिष्यों के साथ इस काम को अंजाम देने के साथ-साथ अपने गुरुद्वारे में आने वाले श्रद्धालुओं को इस नदी के उद्धार के लिए जुट जाने को प्रेरित किया। उन्होंने लोगों को समझाया कि वे गुरुनानक के चरण स्पर्श प्राप्त इस नदी की सफाई कर भगवान की सच्चे अर्थों में सेवा कर सकेंगे। सन 2000 में उनके द्वारा शुरू किये गये प्रयासों के कुछ वर्षों में ही इसका असर दिखा और आज इसकी निर्मल धारा को देखकर सहसा विश्वास नहीं होता कि बिना कुछ खर्च किये केवल मानवीय प्रयासों से कैसे एक खत्म हो चुकी नदी को पुनर्जीवन दिया जा सकता है।
Saturday, March 15, 2008
और भी रंग हैं जिंदगी के: ब्लैक एंड व्हाइट
Sunday, February 24, 2008
Online Hindi Literature- Useful Links
विगत समय में इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति से हिंदी भाषी इंटरनेट उपयोगकर्ता को बहुत सहूलियत हो गई है। आज हिंदी में दिनों-दिन नई वेबसाइट आ जाने से लोगों को अपनी मनचाही सामग्री आसानी से उपलब्ध है। पर फिर भी बहुत से इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को अनेक उपयोगी हिंदी जालस्थलों के बारे में जानकारी न होने से चाही गई जानकारी सुलभ नहीं है।
2006 में मैंने ऑरकुट पर हिंदी ई-पुस्तक नाम से एक समूह बनाया था। उस समय भी इंटरनेट पर काफी सारा हिंदी साहित्य ई-बुक के रूप में उपलब्ध था। पर लोगों को जानकारी न होने के कारण उस तक पहुंच नहीं हो पाती थी। मैंने और प्रतीक पांडे ने सोचा कि क्यों न ऐसा एक समूह बनाया जाए जहां लोग आसानी से इस विषय में अपनी जानकारी एक-दूसरे से बांट सकें। वर्तमान में 1100 से भी अधिक लोग इस समूह के सदस्य हैं।
मैं यहां हिंदी ई-बुक्स और साहित्य से संबंधित लिंक दे रहा हूं जिससे एक ही स्थान पर हिंदी-साहित्य प्रेमियों को उनकी मनचाही जानकारी उपलब्ध हो जाए।
सहस्त्राब्दी की हिन्दी कविताओं का संकलन
यहाँ पर पिछले हजार सालों के प्रमुख हिन्दी कवियों की कविताओं का संकलन है
जिनमें प्रमुख हैं-
अमीरखुसरो
कबीरदास
सूरदास
मीराबाई
जायसी
नानक
रैदास
रसखान
रहीम
श्रीमद भागवद गीता, दोहावली और कवितावली पढ़िये
हिन्दी कहानियाँ और प्रेरणास्पद लेख
तिरुक्कुरळ हिन्दी मे (तमिल से)
हिन्दी सुभाषित सहस्र
हिंदी सूक्तियां
डिजिटल सांस्कृतिक संपदा पुस्तकालय
उपरोक्त पुस्तकों के अतिरिक्त मैंने स्वयं कुछ बेहतरीन हिंदी ईबुक्स का संकलन Hindi Ebooks के नाम से बनाया है-
जिसमें कुछ चुनिंदा हिंदी ई-पुस्तकों को संग्रहित किया है। जिनमें से कुछ हैं-
गोदान- मुंशी प्रेमचंद
देवदास- शरतचंद्र
कुरूक्षेत्र- रामधारी सिंह दिनकर
मधुशाला- हरिवंशराय बच्चन
आनंदमठ- बंकिमचंद्र
अंधायुग- धर्मवीर भारती
कनुप्रिया- धर्मवीर भारती
रहीम के दोहे
कबीर के दोहे
कामायनी- जयशंकर प्रसाद
एक गधे की वापसी- कृष्ण चंदर
गालिब की रचनाएं
हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाएं
तरकश- जावेद अख्तर
शरद जोशी के व्यंग्य लेख
बच्चन की प्रतिनिधि रचनाएं
आंखन देखी- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
हिंदी काव्य संग्रह
इन ई-पुस्तकों के संग्रह और संपादन में कुछ लोगों का विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है जिनका मैं आभारी हूं- श्री अनूप शुक्लाजी, प्रतीक पांडे, अनुनादजी, आलोकेश्वर, सागर नाहरजी और भी बहुत से सहयोगी जिनका शायद मैं नाम भूल रहा हूं।
इसके अलावा रवि रतलामीजी से भी मुझे रचनाकार पर प्रकाशित कुछ पुस्तकों के पीडीएफ संस्करणों को यहां रखने की अनुमति मिली जिसके लिए मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूं।
Saturday, February 23, 2008
आर यू गे ? Are You Gay?
जी हां यदि आप पुरुष हैं और अपने किसी पुरुष मित्र के साथ उसके कंधे पर हाथ रखे हुए, सटकर या बहुत बिंदास मजाक करते हुए किसी सार्वजनिक जगह से गुजर रहे हैं तो लोगों की नजरें आप पर हैं।
पिछले कुछ समय से खुले या आधुनिक समाज में समलैंगिकता कोई बहुत दबा-छिपा मुद्दा नहीं रह गया है। आजकल ऐसे लोग भी आपको मिल जायेंगे जो खुलेआम इसे स्वीकारते भी मिल जायेंगे। पहले इस प्रकार के मुद्दों पर चर्चा करना तक ठीक नहीं समझा जाता था वहीं आज इसके समर्थन में लोग खुलकर सामने आने लगे हैं। इसलिए लोगों को दो समान लिंग के लोगों के घनिष्ठ व्यवहार को देखकर ये अनुमान लगाने में भी देर नहीं लगती कि दोनों समलैंगिक हैं।
Tuesday, February 19, 2008
मरते घडि़याल, दम तोड़ती जैव विविधता
चंबल नदी में पाये जाने वाले जीवों की संरक्षा के लिए सन् 1979 में राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण की स्थापना की गई। 400 किमी से भी अधिक क्षेत्र में फैले इस अभ्यारण में मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश तीनों ही राज्यों का क्षेत्र सम्मिलित है। चंबल नदी भारत की सबसे कम प्रदूषित और समृद्ध जैव-विविधता वाली नदियों में से है। साफ पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन, जिसे गेंगेटिक डॉल्फिन कहा जाता है, भी इस नदी के पानी में अठखेलियां करती हैं। साथ ही दुर्लभ प्रजाति के कछुए भी यहां पाए जाते हैं। पर चंबल मुख्य रूप से घडि़यालों के लिए जानी जाती है घडि़यालों के अलावा यहां मगर भी पर्याप्त संख्या में हैं। 1979 में सेंचुरी घोषित होने के बाद से ही सरकार द्वारा इन जलीय जीवों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किये जा रहे हैं। पर सरकारी प्रयासों के अलावा यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि यह नदी दुर्गम बीहड़ों से होकर गुजरती है और इसके किनारों पर आबादी और शहरी आबादी नाम मात्र की है(राजस्थान के कोटा को छोड़कर)। इसके अलावा यह इलाका लंबे समय से मानवीय गतिविधियों से अछूता रहा है और चंबल के बीहड़ों में पाये जाने वाले डकैत गिरोहों के कारण भी लोगों को हमेशा इसके आसपास जाने में भय सताता रहा है। इस कारण भी यहां जलीय जीवों पर संकट के मौके ज्यादा नहीं आ पाये हैं। पर पिछले कुछ समय से सेंचुरी क्षेत्र मे मानवीय गतिविधियां बढ़ी हैं।
चंबल में पाये जाने वाले घडि़यालों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए मुरैना जिले के देवरी में और लखनऊ के पास कुकरैल में संरक्षण केंद्र स्थापित हैं। इन केंद्रों में घडि़यालों के अंडों को लाकर रखा जाता है और उनसे निकले बच्चों के नदी में रहने लायक होने के बाद वहां छोड़ दिया जाता है। चंबल सेंचुरी के अधिकारियों का कहना है कि वे इस क्षेत्र को इको टूरिज्म के लिए विकसित करना चाहते हैं। पर अभी तक इस क्षेत्र में पर्यटन को विकसित करने के पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं। मुरैना स्थित घडि़याल केंद्र पर पर्यटकों को मोटरबोट द्वारा नदी की सैर कराने के इंतजाम हैं पर पर्यटकों की संख्या नगण्य सी ही बनी रहती है। मुरैना का देवरी घडि़याल केंद्र राष्ट्रीय राजमार्ग क्र. 3 पर मुरैना शहर से 6-7 किमी की दूरी पर हैं। वहां जरूर घडि़याल और मगरमच्छ देखने के शौकीन पर्यटक देखे जा सकते हैं।
फोटो साभार: बीबीसी और द हिन्दू
Thursday, February 14, 2008
घायल बसंत- हरिशंकर परसाई
आजकल कई ब्लागर बंधु बसंत पर पोस्ट लिख रहे हैं। लिखना भी चाहिए बसंत का मौसम है। पर राग वही पुराना है- अब वह बसंत कहां ! अब तो बसंत यदा-कदा किसी गमले में भले दिख जाए और तो कहीं नहीं दीखता। भई अपना तो कहना है कि- हाय बसंत करने से अच्छा है- “छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी, नये दौर में सीखो तुम वेलेन्टाइन की कहानी” । अभी भी समय है किसी मॉल में जाईये और ढूंढि़ये किसी सुंदरी को।
छि: कैसी गंदी बात आ गई बीच में- भारतीय संस्कृति की मट्टी पलीद कर रखी है हम जैसों ने। क्षमा करो ‘बजरंग(दल) बली’।
चलिए बसंत का मौसम है तो इस बहाने बसंत के बारे में थोड़ा हरिशंकर परसाईजी की लेखनी पर भी दृष्टिपात कर लें। प्रस्तुत है उनकी रचना- घायल बसंत।कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--
प्रिय, फिर आया मादक बसन्त' ।
मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।
कवि मग्न होकर गा रहा था –
'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'
पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त ‘हा हन्त’ से होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त' के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त ' से कर लो, अन्त जरूर ' हा हन्त ' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी , इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त ' से शुरू करके 'हा हन्त' पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं , पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की , उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो , देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?
कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा ' पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा – “कौन?” जवाब आया-- '' मैं वसन्त। '' मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !
वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।
मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - '' कह तो दिया कि फिर आना।'' उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल , अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।''
मैने मुंह उधाड़कर कहा-, '' भई, माफ़ करना , मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है , उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है।'' वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, '' जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है। ''
उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।
मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा , कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया , तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा , ''प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या?'' नायिका लजाकर कहेगी , '' उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था।'' तब नायक कहेगा, '' प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े।'' नायिका चुप हो जायेगी। स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं , क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा 'कॉव-कॉव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, ' हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।' मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया , वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे , तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें , पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी' कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।
यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तार से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।
मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।