Wednesday, September 17, 2008

मोनिका बेदीजी हम आपको नमन करते हैं

आजकल छोटे पर्दे पर एक चैनल पर बिग बॉस का प्रसारण हो रहा है पर हल्‍ला हर चैनल पर मचा हुआ है। कुछेक चैनल जिनका काम बस सेलेब्रिटी गॉसिप जैसे महत्‍वपूर्ण राष्‍ट्रीय विषयों को दिखाने का है उनके अलावा हमारे लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ का पट्टा भी जिन्‍होंने लिखाया हुआ है वे सब मिलकर बिग बॉस के घर मे बंद लोगों की बातें, उनके झगड़े, उनके फैशन, उनके अफेयर जैसी बातों को चटखारा ले-लेकर दिन-रात दिखाने में लगे हैं। ऐसा दिखाया जा रहा है मानो इस समय देश में एक बहुत ही महान राष्‍ट्रीय उत्‍सव चल रहा है जिसके बारे में मीडिया वालों का दायित्‍व बनता है कि उसकी पल-पल की अपडेट जनता तक पहुंचाए।
शिल्‍पा शेट्टी जिन्‍होंने विदेश में जाकर भारत की महानता का परचम लहराया जिससे कि स्‍वामी विवेकानंद तक की उपलब्धियां हमें छोटी लगने लगती हैं, इस शो को होस्‍ट कर रही हैं। आखिर बिग ब्रदर के घर में अपनी ऐसी-तैसी कराकर और कुछ टसुए बहाकर इस बिल्‍ली के भागों ऐसा छींका फूटा कि वो अब तक साथ निभा रहा है। पर धन्‍य है भारतीय परंपरा जो हर विदेशी चीज को ऐसे अपनाती है जिससे ब्रिटेनवासियों को अब तक गर्व होता होगा कि हम भले अब उनके शासक नहीं पर दिल से वे खुद को हमारा गुलाम ही मानते हैं तभी तो जेड गुडी जिसके बारे में ना जाने बिग ब्रदर के समय क्‍या-क्‍या लिखा गया था, जब भारत में आती है तो पूरा मीडिया उसके सामने ऐसे बिछ जाता है जैसे स्‍वयं महारानी एलिजाबेथ अपनी रियाया को दर्शन देकर धन्‍य करने निकली हों।
रियेलिटी शोज में कितनी रियेलिटी होती है यह किसी से छिपा नहीं है। कुछ झगड़ालू और विवादास्‍पद छवि के लोगों को इकट्ठा कर एक घर में बंद कर दो और फिर चटखारे ले-लेकर उनकी गंदी हरकतों को दिखा-दिखाकर टीआरपी बटोरो। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे शोज में सभी कुछ पहले से फिक्‍स होता है।
सो इस बार बिग ब्रदर के घर में ऐसे सेलेब्रिटी (मीडिया ऐसा मानता है जनता नहीं ) बुलाये गये जिनकी महानता का वर्णन सूरज को दिया दिखाने जैसा होगा। इनमें हैं राहुल महाजन, मोनिका बेदी जैसी राष्‍ट्रीय हस्तियां, ऐसी पुण्‍यात्‍माएं जिनके पुण्‍यकर्मों का लेखा-जोखा खोलने की यहां जरूरत नहीं वैसे भी कहा जाता है कि प्रतिभा किसी तारीफ की मोहताज नहीं होती सो इन जैसे प्रतिभाशाली और महान विभूतियों को बिग बॉस के अन्‍य प्रतिभागियों से ज्‍यादा महत्‍व देना निहायत जरूरी है।
कुछ समय पहले शायद भारत-श्रीलंका क्रि‍केट सीरीज के ही दौरान बीच-बीच में बिग ब्रदर के विज्ञापन दिखाये जाते थे। जिनमें ये दोनों बड़ी मासूम सी सूरत बनाकर खुद को ही नैतिकता का सर्टिफिकेट देते दिखाई देते थे। मोनिका बेदीजी का कहना था कि उन्‍होंने इतने कष्‍ट सहे, इतनी मुश्किलें उनके सामने आईं फिर भी वे हिम्‍मत नहीं हारीं और डटकर खड़ी रहीं और जैसा कि किताबों में बच्‍चे पढ़ते हैं कि अंत में सच्‍चाई की जीत होती है कुछ वैसे ही उनको भी जीत मिली और जेल से बाहर अब वे आजाद हैं।
राहुल महाजन कहां पीछे रहने वाले थे। एक समय भारत के सबसे बड़े दलाल रहे व्‍यक्ति का यह सपूत भी चिल्‍ला-चिल्‍लाकर कह रहा था कि उसने भी जीवन में कुछ कम कष्‍ट नहीं सहे, उसको भी बुरा समय देखना पड़ा, उसने भी मुंबई की बसों में धक्‍के खाए। लग रहा था कि जनता उसे उसके सुकर्मों का सर्टिफिकेट दे ना दे, वह खुद इसमें सक्षम है और खुद को सर्टिफिकेट देने के लिए उसे किसी दूसरे की जरूरत नहीं है। हाय भगवान हमें भी ऐसे बुरे दिन दिखाए और फिर हजारों करोड़ के कालेधन का एकमात्र वारिस बनने के लिए कुछेक कष्‍ट सहने में कोई बुराई नहीं है।
कुल मिलाकर यह साबित करने की कोशिश की जा रही है कि उक्‍त दोनों ही लोग बेचारे इस गलत सिस्‍टम के मारे हैं। राहुल महाजन जैसे बेचारों को अदालतों के चक्‍कर काटने पड़ते हैं अरबपति होकर तो ये तो भाई सरासर जुलम है। हमारे पास इतना पैसा हो तो हम अदालत, पुलिस, सिस्‍टम सबको खरीद लें। पर बेचारे राहुल को कितना कष्‍ट भोगना पड़ा होगा इसकी तो बस कल्‍पना ही की जा सकती है। और मोनिका बेदीजी उनकी मासूमियत पर तो बस मर-मिटने को जी चाहता है। बेचारी कैसी रोनी सूरत बनाकर रोज कहती फिरती हैं कि वे अबू सलेम के बारे में कुछ नहीं जानतीं ना ही उससे उनका कोई संपर्क है। सही है जी एक आतंकवादी की रखैल होकर उन्‍हें इतनी फुर्सत ही कहां मिली होगी कि वे उसके बारे में कुछ जानें-समझें। फिर भी लोग अब तक शक करते हैं कि उनके अबू सलेम से संबंध हैं। कैसे इस देश के लोग एक बेचारी अबला के चरित्र पर कीचड़ उछालते हैं शर्म आनी चाहिए उन्‍हें और अब उन्‍हें जो फिल्‍मों के आफर मिल रहे हैं वे तो बस उनकी महान अभिनय प्रतिभा के कारण हैं।
मोनिकाजी आप वाकई में अब प्रेरणा का स्रोत बन चुकी हैं ऐसे देश में जहां अब भी पैसे तथा पहुंच होने के बावजूद सिस्‍टम को ना खरीद सकने वाले लोगों के लिए जो बेचारे अदालत के चक्‍कर काट-काटकर परेशान हैं और इस कारण उन्‍हें जो कष्‍ट भोगने पड़ रहे हैं उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता। मोनिकाजी आप ही उन्‍हें कुछ मार्ग दिखाएं। आज के युग में आप ही उनकी तारणहार हैं। ऐसे प्रेरणादायी व्‍यक्तित्‍व को हमारा नमन।

फोटोग्राफी या संयोग ?






Tuesday, September 16, 2008

पुलिस थाने पर पुलिसकर्मियों का हमला

यदि वाकई में ऐसा हो जाए तो क्‍या हाल हो ? बीबीसी हिन्‍दी ने अपने होमपेज पर आज सुबह ये खबर लगाई जो अभी भी दायीं तरफ की इस लिंक पर जाकर पढ़ी जा सकती है जबकि वाकई में थाने पर भीड़ द्वारा हमला किया गया था जिसमें एक पुलिसकर्मी की मौत भी हो गई थी।


इतने प्रतिष्ठित न्‍यूज वेबसाइट पर ऐसी गलतियां पहले देखने को रही हैं। इनसे अनुरोध है कृपया इसे सुधारें और पाठकों को भ्रम में ना डालें।

Monday, September 15, 2008

मीडिया वालों शिवराज पाटिल को मत डराओ, हिम्‍मत है तो खुलकर सामने आओ

लंबे समय से इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के रंग-ढंग देखकर टीवी देखना छोड़ ही दिया था। चाहे कितनी भी बड़ी, कैसी भी घटना हो सबकी जानकारी इंटरनेट पर मिल ही जाती है सो टीवी की कोई जरूरत ही नहीं है। परसों दिल्‍ली में धमाके हुए तब जरूर कुछेक मिनट को टीवी खोलकर देखा। उसके बाद कल एक मित्र ने बताया कि शिवराज पाटिल के बारे में टीवी पर न्‍यूज चल रही है तो उत्‍सुकतावश देखा। पता लगा कि महाशय शनिवार रात को बम-धमाकों के समय बार-बार अपने कपड़े बदल रहे थे मानो दिल्‍ली में कोई फैशन परेड हो रही हो और पाटिल साहिब को रैंप पर चलना हो।

पर इस बार बच्‍चू मीडिया के शिकंजे में आ ही गए। बहुत सही समय पर मीडिया ने एक जिम्‍मेदार ओहदे पर बैठे और नीचता के सभी रिकार्ड तोड़ चुके लोकतंत्र की आयातित महारानी के इस चरणसेवक की वो बखिया उधेड़नी शुरू की कि 10 जनपथ तक सकते में आ गया। मीडिया से इस प्रकार की जोरदार प्रतिक्रिया के साथ ही जनता की ये राय कि ऐसे मक्‍कार गृहमंत्री को लात मारकर बाहर कर देना चाहिए भी इटैलियन महारानी के कानों में जरूर गूंज रही होगी। आज 10 जनपथ पर हुई बैठक में पाटिल को ना बुलाने से लोग जरूर कुछ कयास लगा रहे होंगे पर बेकार में कोई उम्‍मीद ना पालें ऐसा मेरा सुझाव है क्‍योंकि कुछ भी बदलने वाला नहीं है। ऐसे समय में किसी भी बदलाव की उम्‍मीद करना खुद को धोखा देना है जब देश में सरकार नाम की कोई चीज ही नहीं है और सत्‍ता एक विदेशी महिला, जो हमेशा भारत देश के लिए अपने किये गये त्‍याग का ढोंग करती है, के पैर की जूती बनकर रह गई है।

देश के नागरिकों के लिए बहुत सहजता से समझ में आने वाली बात है कि एक विदेशी महिला जो कदम-कदम पर भारत की प्रतिष्‍ठा की धज्जियां उड़ाती है, जिसके सामने राष्‍ट्रपति और प्रधानमंत्री हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, खुद एक राष्‍ट्राध्‍यक्ष की तरह व्‍यवहार करती है और दुनिया को यह संदेश देती है कि भारत भले सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हो उसके प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति की हैसियत मेरे पालतू से ज्‍यादा की नहीं है, की निष्‍ठा इस देश और इसके लोगों में कैसे हो सकती है। यदि यह ऐसी ही त्‍यागवान महिला है और इस महान त्‍याग की भावना के कारण इसने सभी पदों का त्‍याग कर दिया है तो क्‍या इसे मालूम नहीं है कि भारत के लोकतंत्र में एक प्रधानमंत्री की क्‍या गरिमा है, एक राष्‍ट्रपति का कितना सम्‍मान है। बम विस्‍फोटों के बाद प्रधानमंत्री आवास की बजाय 10 जनपथ पर आपात बैठक का होना क्‍या दुनिया वालों को ये दिखाने के लिए काफी नहीं है कि इस देश में आजकल प्रधानमंत्री नाम की कोई चीज है ही नहीं और है भी तो केवल मैडम के सामने दुम हिलाने के लिए। खुदा ना खास्‍ता इटली का कोई पर्यटक ही इन विस्‍फोटों का शिकार बन जाता तो पूरी की पूरी कैबिनेट ऐसे गला फाड़-फाड़कर रोती जैसे इनका कोई सगा मर गया हो खासकर हमारे चाटुकार-श्रेष्‍ठ मन्‍नू भाई। अभी ज्‍यादा दिन नहीं हुए जब ये कंधमाल की घटनाओं पर ऐसे मातम मना रहे थे जैसे इनके घर में ही गमी हो गई हो क्‍योंकि मरने वाले ईसाई थे। उनका बस चलता तो सिक्‍ख होने के बावजूद ऐसे गम के मौके पर अपने बाल तक मुंडवा लेते पर मैडम ने कहा होगा कि ईसाई धर्म में इसकी कोई जरूरत नहीं है।

फिलहाल तो ऐसा लगता है कि इस देश में केवल एक विदेशी महिला की जूतियों का ही सम्‍मान हो रहा है जिनकी राष्‍ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और कैबिनेट तक वंदना करते हैं और इसके अलावा उनकी किसी में कोई निष्‍ठा नहीं है। भारत के संविधान में चाहे कुछ भी लिखा हो पर अब तो यहां कोई भी माई का लाल मैडम के प्रसाद-पर्यन्‍त ही अपने पद पर बना रह सकता है चाहे वह राष्‍ट्रपति ही क्‍यों ना हो। ऐसी महिला जिसकी इस देश और यहां के संविधान में कोई आस्‍था नहीं है और उसके चरणवंदकों, जिनकी उसकी चरणवंदना के अलावा किसी और में कोई आस्‍था नहीं है, से इस देश के भोले-भाले लोग ये उम्‍मीद लगाकर बैठे हैं कि अब नहीं तो तब ये लोग कुछ करेंगे पर इन लोगों को अपनी महारानी के प्रशस्तिगान और उसकी सुविधाओं का ख्‍याल रखने से फुर्सत मिले तब तो वे कुछ सोचें

देश में कहीं भी बम धमाके हों, लोग मरे इनका घिसा-पिटा रिकॉर्ड बजता ही रहता है। सांप्रदायिक सौहार्द बनाये रखें, आतंकवादी कभी सफल नहीं होंगे, शांति बनाये रखें। ऐसा लगता है कि हिंदुस्‍तान की जनता हाथ धोकर सांप्रदायिक सौहार्द के पीछे पड़ी हुई है और देश में जो शांति है वो इन्‍हीं के कारण है। नहीं तो ये हिंदुस्‍तानी तो इतने जंगली लोग हैं कि रोज एक-दूसरे के खून के प्‍यासे हो उठें पर इनके रोज-रोज बजने वाले रिकॉर्ड को सुनकर ही रुके हुए है।

और वह शिवराज पाटिल वह तो बेचारा महारानी के इस दरबार का एक अदना सा नौकर है। अब आप यदि उसे गृहमंत्री समझने की भूल कर बैठे हैं तो इसमें उस बेचारे का क्‍या दोष ! वह तो बेचारा अपनी ड्यूटी बजाने के अलावा कुछ जानता ही नहीं। उस बेचारे को यदि कपड़े पहनने का शौक है तो पहनने दीजिए और इसके अलावा उसे कुछ आता हो तो कुछ करे ना। जब अहमदाबाद गया था तो वहां की बारिश में बेचारे के जूते में कीचड़ लगने के भय से कितना चिंतित हो गया था। हो भी क्‍यों ना, इतनी मेहनत करके बेचारे ने अपना वार्डरोब सजाया हुआ है। इतने भय के माहौल में उसे भी डर लगता होगा ना पर लोग उस बेचारे को और डरा रहे हैं। शास्‍त्रों तक में ऐसे निरीह प्राणियों पर दया करने की बात कही गई है फिर भी लोग ऐसे पापकर्म के भागी बन रहे हैं तो भगवान उनको सदबुद्धि दे।

मीडिया जो इस मामले में बड़े जोर-शोर से अपनी पीठ ठोंक रहा है अपने गिरेबान में झांके। एक अदने से व्‍यक्ति को बलि का बकरा बनाकर वाहवाही तो उसने लूट ली पर उसे भी पता है कि इससे कुछ होना-जाना नहीं है पर उसे इससे क्‍या मतलब। सत्‍ता के शीर्ष पदों पर बैठे व्‍यक्ति तक अब उस बेचारे के पीछे पड़े हैं, खुद कई कांग्रेसी नेता तक उनको बुरा-भला कह रहे हैं क्‍योंकि उन्‍हें भी अपनी गोटियां फिट करनी हैं। ऐसे में उस व्‍यक्ति को नंगा करने से म‍ीडिया को भला काहे कोई गुरेज हो पर ऐसा करके उसने कोई बड़ा वीरता का काम नहीं किया है। यदि मीडिया कुछ करना ही चाहता है तो खुलकर सामने आए और जो वास्‍तविक जिम्‍मेदार हैं उनकी ओर उंगली उठाए। पर उसे अपनी दुकान चलानी है और इसीलिए वह ऐसे विलेन खोजता है जो उसे कोई नुकसान तो नहीं पहुंचा सकते अव्‍वल वाहवाही जरूर दिला सकते हैं।

Saturday, June 07, 2008

कोई तो सुने इन दहेज कानून पीडि़तों की

ये शिकायत है अहमदाबाद के योगेश कुमार जैन की, जिनका 43 वर्षीय बड़ा भाई, जो कि पेशे से डॉक्‍टर है, विगत 16-17 वर्षों से मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। उसकी पत्‍नी इन्‍हें ब्‍लैकमेल कर रही है कि अपनी मां के नाम पर जो मकान है, जिसकी कीमत तकरीबन 50 लाख रुपये है, उसे उसके नाम कर दिया जाए नहीं तो वह भारतीय दंड संहिता की धारा 498a के तहत उनकी शिकायत दर्ज कराएगी।

ऐसी ही कई कहानियॉं आपको मिल जाएंगी जिनमे पत्‍नी-पीडि़त पति के पास सिवाय घुट-घुटकर जीने के कोई विकल्‍प ही नहीं बचता। क्‍योंकि हमारे भारतीय कानूनों के अनुसार पीडि़त केवल पत्‍नी ही हो सकती है पति(या उसके परिजन) नहीं। हालांकि ये कानून बनाये तो गये थे समाज मे स्त्रियों के शोषण को रोकने और शोषि‍तों को सजा दिलवाने के लिए और इनका उपयोग आरोपियों को सजा दिलाने में हो भी रहा है। पर उन निर्दोष पतियों और उनके परिजनों का क्‍या जो बिना मतलब घुन की तरह पिस रहे हैं क्‍योंकि कानून मे उनके लिए कोई उपचार है ही नहीं ?

हालांकि ऐसे बेचारे पत्‍नी-पीडि़तों के किस्‍से तो बहुत हैं । पर मुद्दे की बात पर आते हैं। कुछ दिन पहले राजेश रोशनजी के ब्‍लॉग पर एक चित्र छपा था-


इसे पढ़कर लगा कि क्‍या वाकई दहेज संबंधी कानूनों ने कुछ पतियों का जीना मुहाल कर रखा है ?
हालां‍कि आस-पास के क्षेत्र में ऐसी एक-दो घटनाओं के बारे में सुना तो था पर नेट पर खोजा तो इस साइट पर काफी सारे मामले ऐसे देखने को मिले। भारतीय महिला से शादी करने से पहले सोचने की चेतावनी के साथ धारा 498a एवं घरेलू हिंसा अधिनियम के बारे में काफी सारी बातें कही गई हैं। और तो और कई शहरों में उपलब्‍ध टेलीफोन हेल्‍पलाइन के साथ-साथ यहां ऑनलाइन सलाह भी दी जा रही है। पर बेचारे पति करें भी तो क्‍या ?

आप सभी की प्रतिक्रियाओं के इंतजार में-

Saturday, April 05, 2008

ग से ‘गाय’ नहीं सी फॉर ‘काऊ’

मेरे चिट्ठे पर प्रकाशित डा. निरंजन कुमार का आलेख पढ़कर हमें पता चला कि कैसे इस देश का नाम इंडिया पड़ा और अपने देश के लिए आजकल भारत या हिन्‍दुस्‍तान की बजाय लोग विदेशियों की तर्ज पर इंडिया शब्‍द का प्रयोग करना अपनी शान समझते हैं।

पर ये इंडियंस वास्‍तव में चाहते क्‍या हैं ? इंडिया शब्‍द कहने से केवल इस बात का बोध नहीं होता कि फलां व्‍यक्ति अपने देश का नाम अंग्रेजी में ले रहा है बल्कि इसके बहुत गहरे निहितार्थ हैं और इसके पीछे की मंशा पर भी विचार किया जाना चाहिए।

सीधे शब्‍दों में कहा जाए तो यह तीन अक्षर का शब्‍द इंडिया हमारी हजारों वर्षों की पहचान को मिटाने की विदेशी साजिशों और हमारे देश में रहने वाले इंडियंस की नासमझी और विकृत मानसिकता का प्रतीक है।

मेरे पड़ौस में रहने वाले शर्माजी अपने दो वर्षीय नाती को घुमाने ले जाते हैं तो रास्‍ते में मिलने वाले जानवरों से उसका परिचय कराते हैं। परिचय कराते समय वे इस बात का विशेष ध्‍यान रखते हैं कि जिन भी जानवरों का नाम वे अपने नाती को बतायें वे अंग्रेजी में हों। गाय के लिए काउ, कुत्‍ते के लिए डॉग, सुअर के लिए पिग और चिडि़या के लिए बर्ड जैसे शब्‍द वे अपने छोटे से नाती को सिखाते हैं। एक दिन वे सिखा रहे थे- काउ इज अवर मदर। मुझे लगा कि अगले दिन वे यह न सिखाने लगें कि एलिजाबेथ इज अवर मदर।

खैर ये तो एक उदाहरण है। पर आप कहीं भी नजर दौड़ाईये आप ये अवश्‍य पाएंगे कि जो इंडियंस खुद अपनी पूरी उमर में अंग्रेजी नहीं सीख पाए वे बच्‍चे को अंग्रेजी में धुरंधर बनाने का अजीब सा हठ रखते हैं। हर कोई इस बात पर तुल गया है कि कैसे भी करके अपने बच्‍चे को अंग्रेजी ही सिखाई जाए और ऐसे में भले बच्‍चा अपनी भाषा हिंदी सीखने से वंचित रह जाए। हिंदी सीखने को एक गैरजरूरी और समय बर्बाद करने वाला काम समझा जाने लगा है। मेरे एक परिचित डॉक्‍टर के पास एक सज्‍जन अपने बेटे को दिखाने लाए। डॉक्‍टर ने कहा- बेटे जीभ दिखाओ। बच्‍चे ने नहीं दिखाई। फिर उसके पिता ने कहा- बेटे टंग दिखाओ और बेटे ने जीभ दिखा दी।

अपनी उमर भर गाय को गैया कहने वाले और पक्षियों को परेबा कहने वाले जब छोटे बच्‍चों के सामने बनावटी ढंग से अंग्रेजी में काउ और बर्ड हांकने लगते हैं तो दिल को बहुत कोफ्त होती है। अंग्रेजी को एक विषय के रूप में सिखाये जाने की बजाय हम बच्‍चों को पूरा ही अंग्रेज बनाने पर तुल गये हैं। इस तरह के ब्रेनवॉश से जो पीढ़ी सामने आयेगी वो बाद में अपने बुजुर्ग मां-बाप से यही पूछेगी कि- व्‍हाट इज दिस फ्रीडम फाइटर एंड व्‍हाई डिड दे फाईट फार इंडिया। तो फिर वे क्‍या जवाब देंगे ? क्‍या ऐसे लोग जो खुद अपनी पहचान मिटाने पर तुले हैं अपने बच्‍चों को समझायेंगें कि हमारे स्‍वतंत्रता-सेनानी अपनी पहचान, अपने भारत के लिए अंग्रेजों से लड़े। ये कैसे अपने बच्‍चों को ये समझा पाएंगे कि वे किस भारत देश के लिए लड़े जबकि ये लोग अब उसी भारत के खिलाफ, उसकी पहचान के खिलाफ हैं। भाषा केवल शब्‍दों के माध्‍यम से अपनी बात कहना भर नहीं है। उससे हमारी पहचान, हमारा इतिहास, हमारा सम्‍मान बहुत कुछ जुड़ा होता है।

अभिभावकों द्वारा ऐसी मानसिकता को अपना लिये जाने के भी कुछ कारण हैं। हर किसी के अंदर एक बहुत बड़ा डर बैठा हुआ है कि हमारा बच्‍चा किसी से कमतर न हो और इस कमतरी का मतलब हिंदी में बात करना, अंकल को चाचा कहना और टेंपल को मंदिर कहना समझ लिया गया है। लोगों को लगता है यदि बच्‍चे को जिंदगी की रेस में दौड़ाना है तो उन्‍हें घोड़े को घोड़े की बजाय हॉर्स कहना सिखाना होगा। हर कोई अपनी पहचान को मिटाने और अंग्रेज बन जाने की जद्दोजहद में लगा हुआ है। भारतीयता को मूर्खता, पिछड़ेपन और गँवारपन का पर्याय मान लिया गया है। लोग खुद के भारतीय होने पर शर्म महसूस करते हैं। हम खुद के भारतीय होने के खिलाफ लड़ रहे हैं। अपनी पहचान के खिलाफ लड़ रहे हैं। हम उस पहचान के‍ खिलाफ लड़ रहे हैं जिससे हमारा अस्तित्‍व है और अपने ही अस्तित्‍व के खिलाफ इस लड़ाई में हम खुद को ही हार जाने वाले हैं।

एक देश दो नाम

अमेरिका में प्रोफेसर डा. निरंजन कुमार का यह लेख 3 अप्रैल के दैनिक जागरण में छपा था। इस लेख में उन्‍होंने भारत के विविध नामों और उनकी उत्‍पत्ति पर प्रकाश डाला है। बेहद जानकारीपूर्ण यह लेख मैं दैनिक जागरण और डा. निरंजन कुमार के आभार सहित यहां प्रस्‍तुत कर रहा हूं-


एक देश दो नाम

-डॉ. निरंजन कुमार

विदेश में रहते हुए अपने देश को नए तरीके से देखने-समझने की दृष्टि मिलती है। इनमें से एक है कि अपने देश का नाम क्या हो? वैसे अपने देश के कई नाम रहे हैं-जंबूद्वीप आर्यावर्त, आर्यदेश या आर्यनाडु, भारत, हिंद, हिंदुस्तान, इंडिया आदि। जंबूद्वीप नाम धार्मिक होने की वजह से एवं आर्यावर्त और आर्यदेश या आर्यनाडु जाति बोधक होने से खुद ही अप्रचलित हो गए। आज प्रमुख रूप से तीन नाम मिलते हैं- इंडिया, हिंदुस्तान, और भारत। सबसे पहले इंडिया को देखें। इंडिया काफी पुराना शब्द है और ग्रीक भाषा से आया है। ईसा पूर्व चौथी-पांचवीं सदी में ग्रीक लोगों ने सिंधु नदी के लिए इंडस शब्द का प्रयोग किया और इससे आगे की भूमि को इंडिया कहा, जो बाद में चलकर इंडिया बन गया। ग्रीक से यह दूसरी सदी में लैटिन में आया और फिर 9वीं सदी में अंग्रेजी में, लेकिन अंग्रेजी में इसका बहुलता से प्रयोग 16वीं- 17वीं सदी में हुआ। इंडिया शब्द पर विचार करें तो एक ओर तो यह पश्चिम/अंग्रेजी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी शासन की देन है और दूसरी तरफ यह शब्द उन देशवासियों को अपने में समाहित करता नहीं दिखाई पड़ता है, जो देश की मेहनतकश आम जनता है, जो गांवों और छोटे शहरों में रहती है या बड़े शहरों में हाशिए पर है। इंडिया और इंडियन से हमें ऐसे लोगों या वर्ग का बोध होता है जो शक्ल और सूरत में भले ही देश के अन्य लोगों की तरह हों, पर अपने व्यवहार, वेशभूषा, बोली और संस्कृति में मानो पश्चिम की फोटोकापी हों। इस तरह इंडिया शब्द में एक तरफ जहां साम्राज्यवादी गंध है तो दूसरी ओर यह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करता दिखाई नहीं पड़ता। दूसरा शब्द है हिंदुस्तान। यह शब्द भी काफी पुराना है। इसका उद्गम भी उसी सिंधु नदी से हुआ है। ईरानी लोग स का उच्चारण नहीं कर पाते थे, इसे वे ह कहते थे। इसलिए प्राचीन ईरानी और अवेस्ता भाषाओं (ईपू10वीं सदी) में सिंधु के लिए हिंदू मिलता है। ईपू 486 की पुस्तक नक्श-ई-रुस्तम में उल्लेख मिलता है कि ईरान के एक शासक डारीयस ने इस प्रदेश को हिंदुश कहा। अवेस्ता भाषा में स्थान के लिए स्तान शब्द मिलता है। इस प्रकार यह प्रदेश हिंदुस्तान कहा जाने लगा और यहां के निवासी हिंदू। उस समय हिंदू शब्द धर्म का पर्याय नहीं था। अरबी में इसे अलहिंद कहा जाता था। 11वीं सदी की इतिहास की पुस्तक है तारीख अल-हिंद। इसी से हिंद शब्द आया। इस प्रकार हिंदुस्तान शब्द शुद्ध रूप से एक सेकुलर शब्द था, लेकिन मुख्य रूप से यह उत्तर भारत के लिए इस्तेमाल होता था। अंग्रेजी शासन काल में फूट डालो और राज करो कि नीति के तहत हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई पैदा होनी शुरू हुई। इसी समय दुर्भाग्यवश नारा आया हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान का, जो कि धार्मिक- राजनीतिक भावना से प्रेरित था। इस बढ़ती हुई दूरी का दुष्परिणाम सामने आया जिन्ना की टू नेशन थ्योरी के रूप में। इस द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत के अनुसार, हिंदू और मुस्लिम, दो अलग-अलग राष्ट्र या राष्ट्रीयता हैं। हिंदुस्तान हिंदुओं के लिए है, इसलिए मुसलमानों के लिए एक अलग देश होना चाहिए। इसी से पाकिस्तान की मांग आई। इस तरह हिंदुस्तान शब्द, जो पूरी तरह से पंथनिरपेक्ष शब्द था, एक तरह से सेकुलर नही रह गया। अधिकांश बड़े नेता-गांधीजी, नेहरू, मौलाना आजाद आदि जिन्ना से सहमत नहीं थे, लेकिन विशिष्ट ऐतिहासिक, राजनीतिक परिस्थितियों में पाकिस्तान बन गया। हमारे नेताओं ने यह कभी नहीं माना की हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का देश है। यह अनायास नहीं था कि जब देश का संविधान बना तो इसके पहले ही अनुच्छेद में कहा गया है कि इंडिया अर्थात भारत राज्यों का एक संघ होगा। इस मिले-जुले धर्म, समाज और संस्कृति वाले देश को पूरी दुनिया आश्चर्य और सम्मान से देखती है। इंडिया शब्द को अपनाना दुर्भाग्यपूर्ण था, शायद इसके पीछे औपनिवेशिक शासन का मनोवैज्ञानिक दबाव रहा होगा। औपनिवेशिक-मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण ही अनुच्छेद 343 के तहत दुर्भाग्यवश हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी राजभाषा बना दिया गया। इसी मानसिकता के तहत कालिदास को भारत का मिल्टन, समुद्र गुप्त को नेपोलियन बोनापार्ट और कह दिया जाता है, जो कि बिल्कुल औपनिवेशिक व्याख्या है, लेकिन आज वह दबाव खत्म हो चुका है। भारत नाम सबसे सार्थक है। यह शब्द संस्कृत के भ्र धातु से आया है, जिसका अर्थ है उत्पन्न करना, वहन करना निर्वाह करना। इस तरह भारत का शाब्दिक अर्थ है-जो निर्वाह करता है या जो उत्पन्न करता है। भारत का एक अन्य अर्थ है ज्ञान की खोज में संलग्न। अपने अर्थ और मूल्य में यह शब्द सेकुलर भी है। यह नाम प्राचीन राजा भरत से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसका कोई धार्मिक मतलब नहीं। संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित 23 भाषाओं में से लगभग सभी में इसे भारत, भारोत, भारता या भारतम कहा जाता है। क्या अच्छा हो कि हम इसे इंडिया की जगह भारत पुकारें।

साभार: दैनिक जागरण

Friday, April 04, 2008

चीन के आगे गिड़गिड़ाने के मायने

अब तो रोजमर्रा की बात हो चली है कि हमारे माननीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी चीन को आश्‍वासन देते रहते हैं कि हमारी धरती से आपके खिलाफ हम कोई गतिविधि नहीं होने देंगे। उधर चीन कभी आंखें दिखाता है तो कभी पीठ थपथपाता है।

फिर से प्रणब मुखर्जी ने चीन के आगे घुटने टेकने वाले रुख के साथ वही बात दोहराई कि भारत तिब्‍बत को चीन का हिस्‍सा मानता है और भारत में ओलंपिक मशाल को पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी। साथ ही दलाईलामा को फिर से समझाया गया है कि वे भारत में बस मेहमान बनकर रहें और चीन के खिलाफ कोई हरकत न करें। हालांकि वैसे भी वे कुछ करने के मूड में नहीं लगते।

विदेश नीति के हिसाब से देखा जाए तो भारत और चीन के रिश्‍तों में लंबे समय की कटुता के बाद अब संबंध सामान्‍य हो चले हैं। हालांकि जानकारों का कहना है कि द्विपक्षीय संबंधों के इस मधुर दौर में भारत को चीन के खिलाफ कुछ भी कहने से बचना चाहिए। पर मेरा मानना है कि भारत भले ऐसा सोचता हो चीन कभी भारत के साथ संबंध मधुर रखने का पक्षधर नहीं रहा है। वह केवल दबाव की विदेश नीति भारत जैसे देशों पर लागू करता रहा है और संभवत: आगे भी करता रहेगा। दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध भी इस कारण सामान्‍य हैं कि भारत के साथ उसका कारोबार 60 अरब डॉलर के आंकड़े पर दस्‍तक दे रहा है और आर्थिक संबंधों को बनाये रखने तथा भारत में अपना माल खपाने के लिए वह अच्‍छे संबंधों की बात कर रहा है। यदि भारत-चीन कारोबार ऐसी ऊंचाईयां नहीं छू रहा होता तब भी क्‍या वह भारत के साथ ऐसे ही संबंधों का पक्षधर होता इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। संबंधों की इस कथित मधुरता के दौर में भी वह भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही एक सीमांत प्रदेश में दौरे पर आ‍पत्ति उठाता है और प्रणब मुखर्जी जैसे लोगों को उसका बचाव करना पड़ता है।

कूटनीतिक नजरिए से देखा जाए तो भारत ने तिब्‍बत मसले पर प्रारंभ में समझदारी का परिचय दिया और तिब्‍बत को चीन का घरेलू मामला मानकर उससे दूरी बनाये रखी। यहां तक कि पूरा विश्‍व समुदाय इस बात पर चीन को गरियाता रहा पर भारत यही दोहराता रहा कि तिब्‍बत चीन का अभिन्‍न अंग है और वह अपनी जमीन से चीन विरोधी कोई गतिविधि नहीं होने देगा। वैसे भी भारत को चीन से सुधरते संबंधों की कीमत पर तिब्‍बत मसले में कोई टांग नहीं अड़ानी चाहिए। खासकर तब जब तिब्‍बती धर्मगुरू और उनकी निर्वासित सरकार भारतीय क्षेत्र में रहती है। क्‍योंकि इससे सीधा-सीधा संदेश जाता कि भारत अपनी जमीन से चीन विरोधी त्‍त्‍वों को समर्थन दे रहा है।

पर शुरू से ही चीन को भारत के द्वारा अपना रुख स्‍पष्‍ट कर दिये जाने के बावजूद वह भारत पर दबाव बना रहा है या कहें कि भारत की कमजोर विदेश नीति का वह पूरा फायदा उठाना चाहता है। जब भारत की धरती पर आकर अमेरिका की नेता नैंसी पेलोसी चीन को खरी-खोटी सुनाती हैं तब भी भारत खुद को इससे दूर रखता है। फिर भी हमारे नेताओं को बार-बार सफाई देने की जरूरत क्‍यों पड़ती है। उल्‍टा भारत कम से कम इस मामले में चीन को यह तो कह ही स‍कता था कि उसे अंतर्राष्‍ट़ीय समुदाय की भावनाओं का ख्‍याल रखना चाहिए था या तिब्‍बत मसले का वह शांतिपूर्वक समाधान खोजे। पर हमारे नेताओं को चीन से अपनी पीठ थपथपाये जाने का चस्‍का लग गया है और शुरू से ही स्‍पष्‍ट रुख रखने के बावजूद चीन की मनमर्जी के हिसाब से बयान दे रहे हैं। इससे अप्रत्‍यक्ष रूप से अंतर्राष्‍ट्रीय समुदाय के चीन पर पड़ने वाले दबाव को कम करने की साजिश की बू आती है और संदेश जाता है कि भारत इस मामले में चीन के साथ है। कहने की जरूरत नहीं कि इसमें बहुत बड़ा हाथ भारत के देशद्रोही वामदलों का है जो हमेशा फिलिस्‍तीन, कश्‍मीर या ईरान मसले पर चिल्‍ला-चिल्‍लाकर आसमान एक कर देते हैं। पर तिब्‍बत मसले पर मुंह पर पट्टी बांध लेते हैं क्‍योंकि इससे उनका चहेते चीन के हित जुड़े हैं जिसे वो अपना माई-बाप मानते हैं। पर भारत सरकार को यह तो सोचना चाहिए कि वह गद्दारों के दबाव में अपनी विदेश नीति चलाए या भारतीय हितों के मद्देनजर।

कुल मिलाकर शुरूआत में सही नीति अपनाने के बावजूद हमारे नेता अब पूरी तरह से चीन के दबाव मे दिख रहे हैं और बेवजह भारत की छवि को खराब करने के लिए चीन की जी-हुजूरी करने में जुट गये हैं।

Thursday, April 03, 2008

ऐसे आरक्षण से किसका भला होगा ?

ज्‍यादा समय नहीं हुआ जब भाजपा ने चिल्‍ला-चिल्‍लाकर महिला आरक्षण के मामले में यूपीए सरकार को कठघरे में खडा़ किया कि वह महिला आरक्षण मामले में गंभीर नहीं दिखती और अपने संगठन में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा भी की। वहीं कांग्रेस की नेता और महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा कि सरकार इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाना चाहती है। हालांकि मामला अभी तक लटका हुआ है और हो सकता है आगे भी लटका रहे। महिला अधिकारों की बात करने वालों से माफी मांगते हुए मेरा ये प्रश्‍न है कि क्‍या उन्‍होंने गंभीरता से कभी विचार किया है कि इस प्रकार के आरक्षण से महिलाओं की स्थिति में वाकई कुछ परिवर्तन हो सकता है ?

आईये कुछ उदाहरणों पर नजर डालते हैं-

पहला- मेरे शहर में स्‍थानीय नगरपालिका में महिलाओं के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं और जिले में कुछ नगरपालिकाओं में कहीं-कहीं अध्‍यक्ष भी महिला ही हो सकती है। जिस प्रकार से चुनावों में साधारणतया ईमानदार, समाज के लिए कुछ करने का जज्‍बा रखने वाले कर्तव्‍यनिष्‍ठ भद्र पुरुष भाग लेने से कतराते हैं तो जाहिर है कि कोई पढ़ी-लिखी, जागरूक और अधिकारसंपन्‍न महिला से चुनाव लड़ने की उम्‍मीद तो नहीं की जा सकती क्‍योंकि उसके पास ना तो समर्थकों के रूप में गुंडों की फौज है और ना ही वोट-बैंक या फर्जी वोट डलवाने की कूबत।
विभिन्‍न वार्डों के बाहुबलियों या प्रभावशाली लोग महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को ऐसे ही तो नहीं छोड़ देने वाले। ऐसे में इन दबंगों, गुंडों और बाहुबलियों के द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों को चुनाव लड़वाना आम बात है। चुनाव में प्रचार भी इनके खुद के नाम पर ही किया जाता है और कहा जाता है कि फलानेराम चुनाव लड़ रहे हैं। कई बार तो जनता को उम्‍मीदवार महिला का नाम तक नहीं पता होता। यहां तक कि जीतने के बाद भी ये महिलाएं स्‍थानीय स्‍तर पर जनता की नुमाइंदगी करने की बजाय घर का चूल्‍हा-चौका करते ही नजर आती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ होती हैं तो इन्‍हें अपने पद और कार्यक्षेत्र के बारे में कतई कोई जानकारी नहीं होती। ऐसे में इनके पति महोदय ही इनके नाम पर अपने क्षेत्र में अपनी राजनीति करते हैं और स्‍थानीय निकाय की बैठकों में भी भाग लेते देखे जाते हैं।

कल के स्‍थानीय अखबार ने नगरपालिका परिषद की बैठक की रिपोर्ट छापी जिसके अनुसार सभी महिला पार्षद इस बैठक में शामिल हुईं पर केवल श्रोता के रूप में जबकि बहस आदि कार्यवाही करने का काम इनके पतियों ने किया। ऐसे में इनकी महिलाओं की उस बैठक और यहां तक कि उस पद पर क्‍या अहमियत है।

दूसरा- मेरे पड़ौस के विधानसभा क्षेत्र की विधायक एक महिला हैं। हालांकि विधायक होने के नाते वे क्षेत्र में लोगों से मिलती-जुलती हैं और उनकी समस्‍याएं सुनती हैं पर हर समय उनके पति महाशय उनके साथ मौजूद रहते हैं और साफ-साफ कहें तो लोगों से बात भी वही करते हैं और बाकी सारे काम भी जो उनकी विधायक पत्‍नी के जिम्‍मे हैं और विधायक महोदया हर जगह मूकदर्शक ही बनी रहती हैं। गनीमत है कि पति महोदय विधानसभा में उनकी कुर्सी पर नहीं बैठते।

तीसरा- पास ही के जिले की एक नगरपालिका अध्‍यक्ष जो महिला हैं, को उनके पति महोदय के अवैध कार्यों और जमकर भ्रष्‍टाचार के आरोप में हटा दिया गया। जबकि अध्‍यक्ष महोदय जिनके ऊपर सारा कार्यभार होना चाहिए बस नाम के लिए ही थीं। अफसरों को धमकाने, उनसे मन-मुताबिक काम करवाने, नगरपालिका के फैसलों और पैसे खाने का पूरा जिम्‍मा उनके पति के ऊपर ही था।

चौथा- कुछ दिन पहले समाचार देख रहा था जिसमें एक महिला सरपंच से संवाददाता की बात हो रही थी। बातचीत में उसने महिला सरपंच से उनके कार्य करने तरीकों और योजनाओं की जानकारी मांगी तो उस सरपंच का कहना था कि उसे कुछ नहीं मालूम क्‍योंकि उसके वो ही(पति) सारा काम देखते हैं।

ये हैं महिलाओं की राजनीति में स्थिति और आरक्षण की प्रासंगि‍कता को टटोलते कुछ मामले जो मैंने अपने आस-पास देखे और कोई भी ऐसी स्थितियों को अपने आस-पास महसूस कर सकता है।

सवाल ये है कि क्‍या केवल महिला आरक्षण लागू कर देने से महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार होने वाला है ? देश में एक महिला राष्‍ट्रपति के बनने पर खूब हल्‍ला मचता है कि महिला सशक्तिकरण की दिशा में ये मील का पत्‍थर है। पर क्‍या केवल उनके महिला होने से ही देश की महिलाओं के सशक्तिकरण की बात को बल मिलता है। मेरे ख्‍याल से ऐसे कहने वाले धोखे में हैं। जब-तब रटा-रटाया भाषण दे-देने वाली और सक्रियता के मामले में पुराने राष्‍ट्रपतियों के मुकाबले शून्‍य राष्‍ट्रपति भी देश की उन्‍हीं महिलाओं का प्रतीक हैं जिनके हाथ में सत्‍ता होने पर भी वे दूसरों का मुंह ताकती हैं। इसे तो मुझे महिला अशक्तिकरण कहना ज्‍यादा ठीक लगता है।

मध्‍यप्रदेश और बिहार के मुख्‍यमंत्री अपनी लोकलुभावन छवि के मद्देनजर स्‍थानीय निकायों में पचास प्रतिशत महिला आरक्षण की घोषणा करते हैं पर उनके प्रदेशों में महिलाओं का ये हाल है कि महिला संरपंचों को अपने अधिकारों के बारे में जानकारी तक नहीं है और उनके पतियों या परिवार के सदस्‍यों द्वारा पंचायतें बुलाई जाती हैं।

महिला आरक्षण के समर्थकों का यह तर्क होगा कि पूरी तौर पर न सही कुछ तो परिवर्तन हुआ है। पर कब तक हम हर चीज में कुछ भी जैसी चीजों पर संतोष करते रहेंगे। जिस कछुआ चाल से परिवर्तन आ रहा है उससे तो शायद अभी और सौ साल लग सकते हैं स्थिति को सुधारने में। हम इस बात पर क्‍यों विचार नहीं करते कि और कौन से ऐसे उपाय हैं जिनसे अभी और कम से कम अगली पीढ़ी को वास्‍तविक अर्थों मे न्‍याय मिल सके।

मैं न तो यहां महिलाओं की स्थिति को सुधारने के लिए किये जाने वाले प्रयासों का विरोधी हूं और न ही आरक्षण का। पर कम से कम जब हम मौजूदा ढांचे के अनुसार अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहे तो सिवाय यह कहने के कि कुछ तो हो रहा है, हमें इस पर विचार करना चाहिए कि ऐसे कौन से उपाय या संशोधन हैं जिनसे और बेहतर परिणाम लाये जा सकते हैं।

Monday, March 31, 2008

जिंदगी की नहीं फिल्‍मी रेस

अब्‍बास-मस्‍तान से जितनी उम्‍मीद की जाती है वे उससे ज्‍यादा कभी खरे नहीं उतरते। हालिया रिलीज रेस भी उनकी उसी थ्रिलर श्रेणी की फिल्‍म है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। हालांकि थ्रिलर फिल्‍में वे लंबे समय से बनाते आ रहे हैं पर इस बार भी वे अपनी पुरानी लीक पर ही दिखाई देते हैं। भड़काऊ संगीत, स्‍वार्थी किरदारों की आपसी लड़ाई और धुंआधार प्रचार इन सब चीजों का प्रयोग वे खुलकर अपनी फिल्‍मों में करते आए हैं। उनकी खासियत या कहें कौशल कि वे व्‍यावसायिक रूप से औसत दर्जे की फिल्‍म बनाकर सिनेमाघर में लोगों को खींच ही लाते हैं।

इस बार रेस में उन्‍होंने अपनी इसी शैली और भीड़ खेंचू स्‍टारकास्‍ट के साथ अच्‍छा प्रयोग किया है। फिल्‍म दो भाईयों रणवीर(सैफ अली खान) और राजीव(अक्षय खन्‍ना) की आपसी लड़ाई पर केंद्रित है। दौलत के लिए ये दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्‍मन बन जाते हैं। फिल्‍म में बिपाशा बसु, कैटरीना कैफ और समीरा रेड्डी जैसी अभिनेत्रियां महत्‍वपूर्ण किरदारों में हैं। अनिल कपूर भी इनवेस्‍टीगेशन ऑफीसर के कमाल के किरदार में हैं। अनिल कपूर आजकल किसी भी फिल्‍म में और कैसे भी किरदार में दिखाई दें प्रभावित करते हैं। फिल्‍म की शूटिंग दक्षिण अफ्रीका के शानदार लोकेशनों पर हुई है जो फिल्‍म की जान हैं। कैटरीना कैफ और बिपाशा हमेशा की तरह खूबसूरत और सेक्‍सी नजर आती हैं। सैफ अपने पूरे फॉर्म में हैं।

फिल्‍म की कहानी बहुत दमदार तो नहीं पर अंत तक दर्शक को बांधे रखती है। कहानी के हिसाब से किरदारों का प्रयोग बढि़या तरीके से निर्देशकद्वय ने किया है। फिल्‍म के गाने टीवी के प्रोमो के हिसाब से तो बहुत अच्‍छे हैं पर फिल्‍म में ठूंसे हुए हैं। तेज गति से भागती फिल्‍म में गाने बोर ही करते हैं। फिल्‍म के अंत में तेज संगीत के साथ कारों की रेस दिखाई जाती है। इसे देखकर लगता है अब्‍बास-मस्‍तान ने अपनी थ्रिलर शैली और मसाला सिनेमा का कॉकटेल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

प्रीतम चक्रबर्ती जैसे संगीत के लिए जाने जाते हैं वैसा ही उन्‍होंने इस फिल्‍म में भी दिया है। गानों के वीडियोज प्रभावित करते हैं पर फिल्‍म में सिचुएशन के हिसाब से नहीं लगते। कुमार तौरानी की यह फिल्‍म भीड़ खींचने में कामयाब हो रही है। हालांकि इस हफ्ते रिलीज हुई वन टू थ्री इसे कड़ी टक्‍कर देगी। जिंदगी की रेस दिखाकर फिल्‍म को पैसे कमाने की रेस में दौड़या गया है और काफी हद तक यह सफल भी है।

Thursday, March 20, 2008

लड़कियों अभी तुम्‍हें मरना होगा, कमोडिटी मार्केट में तेजी है.......

मध्‍यप्रदेश में हाल ही में लोक सेवा आयोग और न्‍यायिक सेवा परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद कमोडिटी मार्केट खूब उछालें मार रहा है। ऊंची जातियों में जहां तैयारी से पहले कमोडिटीज के औने-पौने दाम मिल रहे थे वहीं अब इनके रेट 25 से 50 लाख तक पहुंच रहे हैं। हालांकि बोली लगाने वालों की तो कोई कमी नहीं पर कम ही हैं पर उछलते मार्केट में हैसियत वाले ही भाव-ताव कर पा रहे हैं।

जी हां कमोडिटी मार्केट का मतलब आप समझ रहे होंगे। इस समय नौकरीशुदा और वह भी राज्‍यसेवा में चयनित लड़कों की रेट्स का आप अनुमान नहीं लगा सकते। फिर भी बोली लगाने वालों की यहां कोई कमी नहीं है। अपने विवाह के लिए लाखों की रिश्‍वत लेने वाले इन नए अफसरों से ईमानदारी की उम्‍मीद कतई मत करिएगा और बोली लगाने वाले जो लाखों की रकम लगा रहे हैं वो कहां से आ रही है? नहीं, वो सफेद कमाई तो बिलकुल नहीं है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि यहां महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े भाषण दिये जाते हैं, कानून बन जाते हैं, आरक्षण मिल जाता है पर महिलाओं की स्थिति वही है। वैसे भी सामंतवादी समाज में महिलाओं को क्‍या स्‍थान प्राप्‍त है ये सभी जानते हैं और जिस सामंतवाद के खात्‍मे की बात आजादी से अब तक होती रही है वो अपनी पूरी ताकत से साथ मौजूद है और फल-फूल रहा है

कन्‍या भ्रूण हत्‍या के पीछे हमारे एनजीओ चिल्‍ल-पों मचाते हैं, सरकार रोज नयी-नयी योजनाएं बनाकर इसे खत्‍म करने की प्रतिबद्धता दोहराती रहती है पर इस समस्‍या की भयावहता में कोई कमी नहीं आती। क्‍या कारण है कि इतने प्रयासों के बावजूद हम इसे खतम तो क्‍या कम भी नहीं कर पाए है। इधर-उधर से लेकर गिनाने के लिए बहुत कारण हैं पर एक कारण है जिसकी बात हम कभी नहीं करते और करते भी हैं तो दूसरों के लिए। हमारे खुद के लिए ये बात हमें कतई नहीं सुहाती। दहेज ! जी हां यही वह कारण है जो आज कन्‍या-भ्रूण हत्‍या की एकमात्र और असली वजह है और दिनों-दिन झूठी शानो-शौकत के पीछे पागल हमारे समाज में इस महामारी को खत्‍म करने की बजाय प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है। महानगरो में रहने वाले कुछ लोग इससे भले सहमत न हों पर छोटे शहरों और ग्रामीण भारत की यही हकीकत है।

ऊपर से हमारे मुख्‍यमंत्री सरीखे नेता ऐसे विवाह समारोहों में सम्मिलित होते हैं जहां लाखों-करोड़ों का दहेज खुलेआम दिया जाता है। अफसरी पाने वाले नौजवान या उनके परिवारजन कभी नहीं चाहते कि लड़की वालों से एकमुश्‍त मोटी रकम न वसूली जाए। सभ्‍य समाज लड़कियों को कितना ही पढ़ा-लिखा रहा है। पर उनके लिए ऊंची रकम पर दूल्‍हा खरीदना ही पड़ता है। और दूल्‍हों की खरीद-फरोख्‍त वाले इस सिस्‍टम से हम आशा नहीं कर सकते कि वहां लड़कियों को बराबरी का दर्जा अभी क्‍या पचास साल बाद भी मिल सकेगा। यह वही देश है जहां कभी लोकनायक ने संपूर्ण क्रांति की बात की थी। उन्‍होंने अपने जीते-जी इस प्रकार की खरीद-फरोख्‍त की सख्‍त मुखालफत की पर उनके बाद जितनी तेजी से उनकी क्रांति का पहिया उल्‍टी दिशा में घूमा उसको देखकर तो बस बस सिर ही फोड़ा जा सकता है।

हमारे माननीय मुख्‍यमंत्री ने भी भ्रूण-हत्‍या जैसे मसले पर बड़ी संवेदनशीलता का परिचय दिया। उन्‍होंने लाड़ली बेटी योजना या शायद लाड़ली लक्ष्‍मी योजना शुरू की है जिसमें लड़कियों के जन्‍म के समय उनके नाम बैंक में सरकार कुछ रकम जमा करेगी और ये रकम उसके विवाह के समय काम आयेगी। उनकी शिक्षा के लिए लिए भी कुछ योजनाएं शुरू की गई हैं। पर बात यहीं पर आकर अटक जाती है कि जब शादी पर खर्च करना ही है तो बच्चियों की जरूरत ही क्‍या है। लड़कियों को पालना, उन्‍हें शिक्षा देना ऐसा शेयर हो गया है जिसमें निवेश करते रहने के बावजूद वापस कुछ नहीं मिलता। तो फिर हमारे सभ्‍य समाज के समझदार लोग उन्‍हें दुनियां में आने ही क्‍यों देंगे ?

अगली पोस्‍ट में ऐसे भयावह आंकड़े जिन्‍हें देखकर भारत की महान संस्‍कृति का डंका पीटने वालों को जूते मारने का मन करता है ............

Tuesday, March 18, 2008

जरूरत है बलवीर सिंह जैसे नायकों की

पर्यावरण के प्रति जागरूक लोगों के लिए बाबा बलवीर सिंह सींचेवाल कोई अनजाना नाम नहीं हैं। बलवीर सिंह सींचेवाल ने पंजाब की एक नदी जो गंदा नाला बन चुकी थी, को अपने प्रयासों से पुनर्जीवित करके दिखा दिया कि अनियंत्रित व अनियोजित विकास के इस यु्ग में यदि समाज और सरकारें अपनी भूमिका का ठीक से निर्वहन करें तो सही अर्थों में विकास की निर्मल गंगा बहाई जा सकती है। पर विडंबना है कि वर्तमान में जारी विकास हर तरह से पर्यावरण के लिए अभिशाप साबित हो रहा है और यदि हमने विकास की इस अनवरत प्रक्रिया में अपनी जिम्‍मेदारी को ईमानदारी से स्‍वीकार नहीं किया तो बहुत कुछ हमेशा के लिए पीछे छूट जाएगा।

160 किलोमीटर लंबी काली बेई नदी पंजाब में सतलज की सहायक नदी है। एक समय था जब 32 शहरों की गंदगी और समाज की उपेक्षा की मार सहती इस नदी की हालत देश की अनगिनत नालों में तब्‍दील हो चुकी नदियों की तरह ही थी। यह वही नदी है जिसके किनारे सिखों के गुरू नानकदेवजी को दिव्‍यज्ञान प्राप्‍त हुआ था। पर समय के साथ देश की अन्‍य नदियों की तरह ही इस नदी के लिए भी अस्तित्‍व का संकट पैदा हो गया। तब इस नदी के पुनरुद्धार करने का बीड़ा उठाया बाबा बलवीर सिंह ने।

पंजाब के एक छोटे से गांव सींचेवाल के इस संत ने अपने बलबूते इस नदी को साफ करने का बीड़ा उठाया। संत बलवीर सिंह ने अपने शिष्‍यों के साथ इस काम को अंजाम देने के साथ-साथ अपने गुरुद्वारे में आने वाले श्रद्धालुओं को इस नदी के उद्धार के लिए जुट जाने को प्रेरित किया। उन्‍होंने लोगों को समझाया कि वे गुरुनानक के चरण स्‍पर्श प्राप्‍त इस नदी की सफाई कर भगवान की सच्‍चे अर्थों में सेवा कर सकेंगे। सन 2000 में उनके द्वारा शुरू किये गये प्रयासों के कुछ वर्षों में ही इसका असर दिखा और आज इसकी निर्मल धारा को देखकर सहसा विश्‍वास नहीं होता कि बिना कुछ खर्च किये केवल मानवीय प्रयासों से कैसे एक खत्‍म हो चुकी नदी को पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

संत सींचेवाल का कालीबेई के लिए किया गया यह योगदान आज नदी संरक्षण में लगे लोगों, सरकारों और एजेंसियों के लिए प्रेरणा बन गया है। तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति ए.पी.जे. अब्‍दुल कलाम ने जब इस बारे में सुना तो वे खुद इस अनुपम प्रयोग को देखने पहुंचे। उनके भाषणों में अक्‍सर संत सींचेवाल और कालीबेई का जिक्र रहता है। फिलीपींस सरकार ने भी उनके इस प्रयोग के बारे में जानकर मनीला की एक नदी के पुनरुद्धार के लिए उनसे सहयोग मांगा है।

गंगा और यमुना की सफाई पर करोड़ों रुपए डकार जाने वाली सरकारों, एनजीओ और हम खुद जो गंगा को गंगामैया कहते हैं क्‍या अब भी उदासीन बने रहेंगे ?

Saturday, March 15, 2008

और भी रंग हैं जिंदगी के: ब्‍लैक एंड व्‍हाइट

सिनेमाघर में जाकर पता लगा कि ब्‍लैक एंड व्‍हाईट सुभाष घई की फिल्‍म है। ऐसा फिल्‍मकार जिसकी फिल्‍मों में बड़े स्‍टार, भव्‍य सेट्स, लार्जर दैन लाइफ कहानियां और मधुर संगीत होता है, इस बार लीक से हटकर कुछ प्रयोग कर रहा है यह जानकर अच्‍छा लगा। हालांकि शोमैन सुभाष की फिल्‍में मुझे कभी अच्‍छी नहीं लगीं पर उनकी फिल्‍मों का संगीत जरूर लुभाता है। पर इस बार उन्‍होंने अपनी शोमैन की छवि को बदलने का प्रयास किया है। वैसे भी पिछले काफी समय से उनके सितारे गर्दिश में ही चल रहे हैं और उनकी बड़े बजट की फिल्‍में पिट भी चुकी हैं। शायद यही कारण है कि वे चक दे इंडिया और तारे जमीं पर के समय में सामाजिक सरोकारों वाली फिल्‍मों पर सोचने लगे हैं।

फिल्‍म कहानी है एक मुस्लिम युवक नुमैर काजी(अनुराग सिन्‍हा) की जो अफगानिस्‍तान के किसी आतंकवादी शिविर से प्रशिक्षण लेकर दिल्‍ली आता है। वह एक फियादीन हमलावर है जो 15 अगस्‍त के दिन दिल्‍ली के लाल किले पर विस्‍फोट करने के मकसद से दिल्‍ली आया है। दिल्‍ली में वह चांदनी चौक में एक रिश्‍तेदार के यहां ठहरा हुआ है। फिल्‍म में अनिल कपूर एक उर्दू प्रोफेसर राजन माथुर की प्रभावी भूमिका में हैं साथ ही उर्दू शायर की भूमिका में गफ्फार भाई(हबीब तनवीर) भी हैं।

फिल्‍म के माध्‍यम से घई मुस्लिम आतंकवादियों को पैगाम देते नजर आए हैं कि हिंसा की इजाजत कोई धर्म नहीं देता। उन्‍होंने फिल्‍म के चरित्रों के माध्‍यम से उस संस्‍कृति को दिखाया है जिसे हम साझा संस्‍कृति कहते हैं और जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोगों के लिए सम्‍मान है। मुहब्‍बत का संदेश देने वाली इस फिल्‍म के जरिए बहुत ही प्रासंगिक विषय को उठाया गया है। पर अच्‍छे विषय पर बनी फिल्‍म भी उतनी ही अच्‍छी होती तो एक बड़े दर्शक वर्ग तक इसका पैगाम पहुंचता। सुभाष घई ने लीक से हटकर सार्थक सिनेमा बनाने की कोशिश में निराश किया है। एक अच्‍छा विषय ही फिल्‍म के अच्‍छे होने की गारंटी नहीं है बल्कि उसे दमदार तरीके से प्रस्‍तुत करना महत्‍वपूर्ण है।

फिल्‍म के नायक अनुराग सिन्‍हा ने अपनी पहली ही फिल्‍म में अभिनय से प्रभावित किया है। वैसे भी रंगमंच का अनुभव होने के कारण वे मंजे हुए कलाकार हैं। पर निर्देशक ने उनकी प्रतिभा का ठीक ढंग से इस्‍तेमाल नहीं किया है। अनिल कपूर हमेशा की तरह फॉर्म में हैं। हबीब तनवीर कम समय के लिए दिखे हैं। उनके जैसे कलाकार के लिए फिल्‍म में कोई स्‍कोप नहीं है। फिल्‍म का संगीत पक्ष भी कमजोर सा है। एक गीत मैं चला को छोड़कर बाकी कुछ खास नहीं हैं। सही कहा जाए तो फिल्‍म के सभी पक्षों पर भावुकता और नाटकीयता हावी है जबकि चित्रण पर ठीक से ध्‍यान नहीं दिया गया है। सुभाष घई को अपनी भूमिका ऐसे विषयों में निर्माता तक ही सीमित रखनी चाहिए। कम से कम ऐसी प्रयोगवादी फिल्‍मों में तो नहीं।

Sunday, February 24, 2008

Online Hindi Literature- Useful Links

विगत समय में इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति से हिंदी भाषी इंटरनेट उपयोगकर्ता को बहुत सहूलियत हो गई है। आज हिंदी में दिनों-दिन नई वेबसाइट आ जाने से लोगों को अपनी मनचाही सामग्री आसानी से उपलब्‍ध है। पर फिर भी बहुत से इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को अनेक उपयोगी हिंदी जालस्‍थलों के बारे में जानकारी न होने से चाही गई जानकारी सुलभ नहीं है।

2006 में मैंने ऑरकुट पर हिंदी ई-पुस्‍तक नाम से एक समूह बनाया था। उस समय भी इंटरनेट पर काफी सारा हिंदी साहित्‍य ई-बुक के रूप में उपलब्‍ध था। पर लोगों को जानकारी न होने के कारण उस तक पहुंच नहीं हो पाती थी। मैंने और प्रतीक पांडे ने सोचा कि क्‍यों न ऐसा एक समूह बनाया जाए जहां लोग आसानी से इस विषय में अपनी जानकारी एक-दूसरे से बांट सकें। वर्तमान में 1100 से भी अधिक लोग इस समूह के सदस्‍य हैं।

इस समूह के आने के बाद बहुत से नये हिंदी जालस्‍थल भी आये जहां हिंदी साहित्‍य के प्रेमियों के लिए भरपूर मात्रा में सामग्री उपलब्‍ध थी।

मैं यहां हिंदी ई-बुक्‍स और साहित्‍य से संबंधित लिंक दे रहा हूं जिससे एक ही स्‍थान पर हिंदी-साहित्‍य प्रेमियों को उनकी मनचाही जानकारी उपलब्‍ध हो जाए।


ऑरकुट पर हिंदी ई-पुस्‍तक समूह

सी-डेक नोयडा की लाइब्रेरी

टी.डी.आई.एल की लाइब्रेरी

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता-2

श्रीमद्भगवद्गीता सुनिये

गीता प्रेस की पुस्तकें

आदि शंकराचार्य कृत भाष्‍य


सहस्त्राब्दी की हिन्दी कविताओं का संकलन

यहाँ पर पिछले हजार सालों के प्रमुख हिन्दी कवियों की कविताओं का संकलन है
जिनमें प्रमुख हैं-
अमीरखुसरो
कबीरदास
सूरदास
मीराबाई
जायसी
नानक
रैदास
रसखान
रहीम


गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस'

श्रीमद भागवद गीता, दोहावली और कवितावली पढ़िये

हिन्दी कहानियाँ और प्रेरणास्पद लेख

तिरुक्कुरळ हिन्दी मे (तमिल से)

हिन्दी सुभाषित सहस्र

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महाभारत

बाल्‍मीकि कृत रामायण

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हिंदी कविता कोश

डिजिटल सांस्‍कृतिक संपदा पुस्‍तकालय

उपरोक्‍त पुस्‍तकों के अतिरिक्‍त मैंने स्‍वयं कुछ बेहतरीन हिंदी ईबुक्‍स का संकलन Hindi Ebooks के नाम से बनाया है-

Free Hindi Ebooks

जिसमें कुछ चुनिंदा हिंदी ई-पुस्‍तकों को संग्रहित किया है। जिनमें से कुछ हैं-

गोदान- मुंशी प्रेमचंद
देवदास- शरतचंद्र
कुरूक्षेत्र- रामधारी सिंह दिनकर
मधुशाला- हरिवंशराय बच्‍चन
आनंदमठ- बंकिमचंद्र
अंधायुग- धर्मवीर भारती
कनुप्रिया- धर्मवीर भारती
रहीम के दोहे
कबीर के दोहे
कामायनी- जयशंकर प्रसाद
एक गधे की वापसी- कृष्‍ण चंदर
गालिब की रचनाएं
हरिशंकर परसाई की व्‍यंग्‍य रचनाएं
तरकश- जावेद अख्‍तर
शरद जोशी के व्‍यंग्‍य लेख
बच्‍चन की प्रतिनिधि रचनाएं
आंखन देखी- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
हिंदी काव्‍य संग्रह

इन ई-पुस्‍तकों के संग्रह और संपादन में कुछ लोगों का विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है जिनका मैं आभारी हूं- श्री अनूप शुक्‍लाजी, प्रतीक पांडे, अनुनादजी, आलोकेश्‍वर, सागर नाहरजी और भी बहुत से सहयोगी जिनका शायद मैं नाम भूल रहा हूं।

इसके अलावा रवि रतलामीजी से भी मुझे रचनाकार पर प्रकाशित कुछ पुस्‍तकों के पीडीएफ संस्‍करणों को यहां रखने की अनुमति मिली जिसके लिए मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूं।

Saturday, February 23, 2008

आर यू गे ? Are You Gay?

जी हां यदि आप पुरुष हैं और अपने किसी पुरुष मित्र के साथ उसके कंधे पर हाथ रखे हुए, सटकर या बहुत बिंदास मजाक करते हुए किसी सार्वजनिक जगह से गुजर रहे हैं तो लोगों की नजरें आप पर हैं।

पिछले कुछ समय से खुले या आधुनिक समाज में समलैंगिकता कोई बहुत दबा-छिपा मुद्दा नहीं रह गया है। आजकल ऐसे लोग भी आपको मिल जायेंगे जो खुलेआम इसे स्‍वीकारते भी मिल जायेंगे। पहले इस प्रकार के मुद्दों पर चर्चा करना तक ठीक नहीं समझा जाता था वहीं आज इसके समर्थन में लोग खुलकर सामने आने लगे हैं। इसलिए लोगों को दो समान लिंग के लोगों के घनिष्‍ठ व्‍यवहार को देखकर ये अनुमान लगाने में भी देर नहीं लगती कि दोनों समलैंगि‍क हैं।

हाल ही में मेरे साथ भी ऐसा ही एक वाकया हुआ। मैं और मेरा एक मित्र दोनों अक्‍सर शाम को शहर की सड़कों पर घूमने निकलते हैं। एक दिन रात को हम ऐसे ही सड़कों पर बिंदास गप्‍पबाजी करते घूम रहे थे। वहां से गुजरते हुए हमारे किसी दोस्‍त ने हमें देखा होगा और तुरंत एस.एम.एस किया- आर यू गे ? मैसेज पढ़कर अपन ने भी काउंटर मजाक किया- यस वी आर, वाई डोंट यू जॉइन अस। अब बंदा समझ गया कि अईसा मजाक नहीं करना चाहिए। उसने तुरंत पल्‍ला झाड़ा- सॉरी, आइम स्‍ट्रेट।

ये तो थी मजाक की बात। आजकल फिल्‍मों में भी इस प्रकार के प्रश्‍न अक्‍सर सुनने को मिल जाते हैं। इंद्र कुमार की भी एक फिल्‍म आई थी- मस्‍ती, उसमें भी सतीश शाह रितेश देशमुख और आफताब शिवदासानी को गे समझकर उनसे दूर भागता फिरता है।

पहले और आज भी छोटे कस्‍बों में यदि आप सार्वजनिक स्‍थान पर किसी लड़की के साथ देखे जाएं तो लोग कहेंगे- जरूर सेटिंग होगी साले की। भले ही आप अपनी किसी मित्र या रिश्‍तेदार के साथ हों। पर आजकल तो लड़कों के साथ भी घूमना सेफ नहीं है बाबा। लोग गे का ठप्‍पा लिए साथ घूम रहे हैं। संभलिए कहीं आप पर भी ये ठप्‍पा न लग जाए। और कहीं आपकी गर्लफ्रेंड को शक हो गया तो आपकी छुट्टी।

Tuesday, February 19, 2008

मरते घडि़याल, दम तोड़ती जैव विविधता

पिछले कुछ समय से चंबल नदी में पाये जाने वाले घडि़यालों की मौत की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं। विगत दो माह में मृत घडि़यालों की संख्‍या 96 बताई गई है। पर कमाल की बात ये है कि इतना समय बीत जाने के बाद भी घडि़यालों की मौत का सही कारण पता नहीं लगाया जा सका है। भारतीय उपमहाद्वीप के इस बेहद संकटग्रस्‍त जलीय जीव के वर्तमान में कुछ ही ठिकाने शेष हैं जिनमें चंबल नदी सबसे महत्‍वपूर्ण है।

चंबल नदी में पाये जाने वाले जीवों की संरक्षा के लिए सन् 1979 में राष्‍ट्रीय चंबल अभ्‍यारण की स्‍थापना की गई। 400 किमी से भी अधिक क्षेत्र में फैले इस अभ्‍यारण में मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान और उत्‍तरप्रदेश तीनों ही राज्‍यों का क्षेत्र सम्मिलित है। चंबल नदी भारत की सबसे कम प्रदूषित और समृद्ध जैव-विविधता वाली नदियों में से है। साफ पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन, जिसे गेंगेटिक डॉल्फिन कहा जाता है, भी इस नदी के पानी में अठखेलियां करती हैं। साथ ही दुर्लभ प्रजाति के कछुए भी यहां पाए जाते हैं। पर चंबल मुख्‍य रूप से घडि़यालों के लिए जानी जाती है घडि़यालों के अलावा यहां मगर भी पर्याप्‍त संख्‍या में हैं। 1979 में सेंचुरी घोषित होने के बाद से ही सरकार द्वारा इन जलीय जीवों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किये जा रहे हैं। पर सरकारी प्रयासों के अलावा यह बात भी ध्‍यान में रखने योग्‍य है कि यह नदी दुर्गम बीहड़ों से होकर गुजरती है और इसके किनारों पर आबादी और शहरी आबादी नाम मात्र की है(राजस्‍थान के कोटा को छोड़कर)। इसके अलावा यह इलाका लंबे समय से मानवीय गतिविधियों से अछूता रहा है और चंबल के बीहड़ों में पाये जाने वाले डकैत गिरोहों के कारण भी लोगों को हमेशा इसके आसपास जाने में भय सताता रहा है। इस कारण भी यहां जलीय जीवों पर संकट के मौके ज्‍यादा नहीं आ पाये हैं। पर पिछले कुछ समय से सेंचुरी क्षेत्र मे मानवीय गतिविधियां बढ़ी हैं।

चंबल में पाये जाने वाले घडि़यालों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए मुरैना जिले के देवरी में और लखनऊ के पास कुकरैल में संरक्षण केंद्र स्‍थापित हैं। इन केंद्रों में घडि़यालों के अंडों को लाकर रखा जाता है और उनसे निकले बच्‍चों के नदी में रहने लायक होने के बाद वहां छोड़ दिया जाता है। चंबल सेंचुरी के अधिकारियों का कहना है कि वे इस क्षेत्र को इको टूरिज्‍म के लिए विकसित करना चाहते हैं। पर अभी तक इस क्षेत्र में पर्यटन को विकसित करने के पर्याप्‍त प्रयास नहीं हुए हैं। मुरैना स्थित घडि़याल केंद्र पर पर्यटकों को मोटरबोट द्वारा नदी की सैर कराने के इंतजाम हैं पर पर्यटकों की संख्‍या नगण्‍य सी ही बनी रहती है। मुरैना का देवरी घडि़याल केंद्र राष्‍ट्रीय राजमार्ग क्र. 3 पर मुरैना शहर से 6-7 किमी की दूरी पर हैं। वहां जरूर घडि़याल और मगरमच्‍छ देखने के शौकीन पर्यटक देखे जा सकते हैं।

पर पिछले कुछ ही समय में इतने घडि़यालों की मौत संरक्षण के इन प्रयासों पर सवालिया निशान लगाती है। साथ ही मौत के कारणों का ठीक से पता न लग पाना भी एक समस्‍या बनी हुई है। पहले-पहल कहा गया कि घडि़यालों की मौत जहरीले पानी से हुई है। पानी में सीसे की मात्रा होने की बात भी सामने आई। कुछ विशेषज्ञ लिवर या किडनी में खराबी आने को मौत का कारण बता रहे हैं। पर कुल मिलाकर स्थिति अभी भी स्‍पष्‍ट नहीं है। किसी जलीय परजीवी को भी मौत का कारण बताया जा रहा है। एक कारण यह भी हो सकता है। दुनियाभर के घडि़याल विशेषज्ञ और जीव वैज्ञानिक सेंचुरी का दौरा कर चुके हैं। फिलहाल कोई भी स्‍पष्‍ट रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। हाल ही में उत्‍तरप्रदेश से लगे इलाके से डॉल्फिन के मरने की भी सूचना आई थी।

कुल मिलाकर सेंचुरी की व‍र्तमान स्थिति बेहद चिंताजनक है। जलीय जीवों की लगातार होती मौतों और कारणों पर पड़ी धुंध ने इन अत्‍यंत संकटग्रस्‍त जीवों के अस्तित्‍व के संकट को और गहरा दिया है। साथ ही चंबल क्षेत्र में सक्रिय अवैध रेत माफिया के द्वारा बेरोकटोक रेत खनन और भारी वाहनों की आवाजाही से संकटग्रस्‍त जीवों के प्राकृतिक आवास नष्‍ट होते जा रहे हैं। रेत माफिया खासकर मुरैना-धौलपुर के क्षेत्र में इतना शक्तिशाली है कि प्रशासन भी उसे रोक पाने में नाकाम है। कई बार बड़ी मात्रा में पुलिस और टास्‍क फोर्स को वहां पहुंचकर उल्‍टे पांव भागना पड़ा है या उनकी बुरी तरह पिटाई हुई है। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित राज्‍य सरकारों और पर्यावरण एजेंसियों के साथ जैव संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्‍थाओं के स‍मन्वित प्रयासों की अपेक्षा है जिससे ये महत्‍वपूर्ण प्राकृतिक धरोहर अपना अस्तित्‍व कायम रख सके।

फोटो साभार: बीबीसी और द हिन्‍दू

Thursday, February 14, 2008

घायल बसंत- हरिशंकर परसाई

आजकल कई ब्‍लागर बंधु बसंत पर पोस्‍ट लिख रहे हैं। लिखना भी चाहिए बसंत का मौसम है। पर राग वही पुराना है- अब वह बसंत कहां ! अब तो बसंत यदा-कदा किसी गमले में भले दिख जाए और तो कहीं नहीं दीखता। भई अपना तो कहना है कि- हाय बसंत करने से अच्‍छा है- छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी, नये दौर में सीखो तुम वेलेन्‍टाइन की कहानी। अभी भी समय है किसी मॉल में जाईये और ढूंढि़ये किसी सुंदरी को।

छि: कैसी गंदी बात आ गई बीच में- भारतीय संस्‍कृति की मट्टी पलीद कर रखी है हम जैसों ने। क्षमा करो बजरंग(दल) बली

चलिए बसंत का मौसम है तो इस बहाने बसंत के बारे में थोड़ा हरिशंकर परसाईजी की लेखनी पर भी दृष्टिपात कर लें। प्रस्‍तुत है उनकी रचना- घायल बसंत।


कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--

प्रिय, फिर आया मादक बसन्त'

मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।

कवि मग्न होकर गा रहा था

'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'

पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त हा हन्तसे होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त' के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त ' से कर लो, अन्त जरूर ' हा हन्त ' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी , इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त ' से शुरू करके 'हा हन्त' पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं , पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की , उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो , देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?

कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा ' पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा कौन?” जवाब आया-- '' मैं वसन्त। '' मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !

वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।

मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - '' कह तो दिया कि फिर आना।'' उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल , अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।''

मैने मुंह उधाड़कर कहा-, '' भई, माफ़ करना , मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है , उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है।'' वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, '' जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है। ''

उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।

मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा , कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया , तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा , ''प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या?'' नायिका लजाकर कहेगी , '' उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था।'' तब नायक कहेगा, '' प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े।'' नायिका चुप हो जायेगी। स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं , क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा 'कॉव-कॉव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, ' हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।' मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया , वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे , तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें , पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी' कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तार से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।

मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।