कल तकरीबन छ: महीने बाद कोई फिल्म सिनेमा में जाकर देखी वो भी इसलिए कि फिल्म के बारे में इतना सुन रखा था कि बिना देखे रह नहीं सका.....पर लौटते समय यही बात जेहन में थी कि हम भारतीय कब बाज आयेंगे गुलामी की आदत से। स्लमडॉग के रिलीज से पहले और रिलीज के वक्त हमारे यहां विवाद हो चुके हैं पर अब जब इसे आठ ऑस्कर मिल चुके हैं तो सभी खुश हैं। मीडिया जश्न मना रहा है, कहीं इसे भारत की सफलता बताया जा रहा है, कहीं भारत का सम्मान।
पर मुझे अफसोस है कि क्यों मैंने इस घटिया फिल्म को देखने के लिए पैसे खर्च किये। यदि मनोरंजन की बात है तो साउथ की एक्शन फिल्में देखकर कहीं अधिक मनोरंजन हो सकता है और यदि वास्तविकता या सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की बात है तो इसमें मुझे ऐसी कोई बात भी नजर ही नहीं आई। नजर आया तो केवल यह कि फिल्म का एक और केवल एक ही उद्देश्य था भारत की गंदगी, सड़ी हुई व्यवस्था और लोगों की दयनीय व्यवस्था को दिखाना और फिर वाहवाही लूटना। कुछ समय पहले अमिताभ बच्चन ने भी इसे लेकर नाराजगी जताई थी पर लोगों ने उनकी ही आलोचना करना शुरू कर दिया और फिर जब सब अच्छा ही अच्छा हो रहा हो- रहमान अवार्ड पर अवार्ड जीते जा रहा हो, भारतीय कलाकार उस फिल्म का हिस्सा हों और हमारी प्यारी आमची मुंबई पर फिल्म बनी हो तो बस हमें लग रहा है कि हमने दुनिया फतह कर ली।
पश्चिम में ऐसा प्रचार किया गया कि स्लमडॉग पहली फिल्म है जिसने भारत की वास्तविकता को सिनेमा के पर्दे पर दिखाया है। मतलब अब तक हम केवल मिथुन और शाहरुख टाइप मसाला और फूहड़ फिल्में ही बनाना जानते हैं और हमें एक गोरे से सीखने की जरूरत है कि फिल्म क्या होती है और कैसे व क्यों बनाई जाती है।
यदि हम मुंबई की ही बात करें तो विगत समय में हमारे यहां इतनी बेहतरीन फिल्में फिल्मकारों ने बनाई हैं कि स्लमडॉग वाला डैनी बॉयल उनके आगे पानी भरे। इस समय मुझे कुछ बेहतरीन फिल्में याद आ रही हैं- चांदनी बार, पेज3, ब्लैक फ्रायडे, अ वेडनेसडे और मुंबई मेरी जान। इन फिल्मों ने वाकई वास्तविकता के धरातल को छुआ है अपने सही अर्थों में। सच्चाई ये है और सच्चाई वो भी है जो स्लमडॉग में दिखाई देती है पर उसके पीछे छिपा नजरिया ही नहीं नजर आता।
यदि वास्तविकता की भी बात करें तो उस स्तर पर भी ये एक बचकानी फिल्म है। केवल मुंबई के स्लम्स, कूड़े के ढेर, गंदगी से पटे नाले, भीख मांगते बच्चे यही सब दिखाकर रियैलिटी का हल्ला मचाया जा रहा है। फिल्म का हीरो कैसे कौन बनेगा करोड़पति के हर सवाल का जवाब जानता है इसकी कहानी भी बहुत बचकानी सी और नाटकीय है। फिक्शन भी तर्कयुक्त होना चाहिए ना कि शाहरुख खान की 'रब ने बना दी जोड़ी टाइप'।
मेरे ख्याल में यदि स्लमडॉग जैसी घटिया फिल्म को ऑस्कर मिलता है तो कम से कम अब तो हमें जरूर खुश होना चाहिए। स्लमडॉग की सफलता पर नहीं बल्कि इस पर कि हम स्लमडॉग से बेहतर फिल्में बना चुके हैं और बना रहे हैं।
और हां वह गाना जिसके लिए रहमान को दो ऑस्कर मिले वाकई मुझे तो कुछ खास नहीं लगा पर ऑस्कर वालों को खास इसलिए लगा कि वह एक गोरे की फिल्म में है, जो कि केवल अपना सम्मान करना जानते हैं। रहमान इससे कई गुना बेहतर संगीत पहले रच चुके हैं। लगान या रंग दे बसंती के गीत ही सुन लें। पर गोरे लोगों को वही चीज पसंद आती है जिसमें हम भारतीयों की भद्द पिटे उनकी नहीं वरना लगान को ऑस्कर ना देने के पीछे का कारण मेरी समझ में तो नहीं आता।
हाल फिलहाल में सुना है एक भारतीय लेखक अरविंद अडिगा को भी बुकर मिला है। पश्चिम के हाथ एक और मसाला लगा है जिसके माध्यम से भारत की नीचता का प्रचार किया जा सके। पश्चिमी पुरस्कारों की मंशा मेरे ख्याल से पुरस्कार देकर हर उस चीज का प्रचार करने की है जिससे पूरब का अपमान होता हो। वरना वास्तविकता ही यदि दिखाना है तो बहुत कुछ है दिखाने को।
पर हमेशा पश्चिमी ठप्पा लगवाने को आतुर हम भारतीय हमेशा ऑस्कर को ही परम सत्य मानते हैं। क्या कोई भारतीय कह सकता है कि स्लमडॉग लगान से एक बेहतर फिल्म थी ? क्यों हम उस समय लगान के ऑस्कर में नामांकित होने पर जश्न मना रहे थे और पुरस्कार ना जीत पाने पर मायूस थे।
कुछ भी हो स्लमडॉग के ऑस्कर मिलने के बाद एक बात अच्छी हुई है कि हमें इस बात पर विचार-मंथन करने का मौका मिला है कि क्या वाकई ऑस्कर जैसे टुच्चे पुरस्कारों का कोई मतलब है और जो पुरस्कार ऐसी दोयम दर्जे की फिल्म को मिला है क्यों ना हम सब मिलकर उसका बॉयकॉट करें और फैसला लें कि अब कोई भारतीय फिल्म ऐसे छोटे और ओछे पुरस्कार के लिए ना भेजी जाए :) ।
छायाचित्र: बीबीसी के सौजन्य से।
Monday, February 23, 2009
गर्व है कि हम स्लमडॉग से बेहतर फिल्में बनाते हैं
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Thursday, February 19, 2009
पूंजीवाद से चिढ़ इसलिए है
वैसे वैश्विक मंदी के दौर में जहां एक ओर सुना जा रहा है कि साम्यवादी विचारधारा की ओर फिर से लोग आकर्षित हुए हैं और कार्ल मार्क्स की किताबों की बिक्री बढ़ गई है तब पूंजीवाद जैसी व्यवस्था को गरियाना बुद्धिजीवी टाइप लोगों के लिए एक शगल हो सकता है खासकर उनके लिए जिनकी रोजी-रोटी ही पूंजीवाद के विरोध पर टिकी है ये बात अलग है कि उनकी खुद की जीवनशैली से पूंजीवाद को निकाल दिया जाए तो वे घिघियाने लगेंगे।
पर हर किसी के लिए पूंजीवाद के विरोध के अपने कारण हैं। ज्यादातर लोग किसी वाद या व्यवस्था के विरोधी इसीलिए होते हैं क्योंकि वे उसकी विरोधी व्यवस्था के पोषक होते हैं, ऐसे में उन्हें तो आंख मूंदकर उसका विरोध करना होता है। होता ये भी है कि यदि आप किसी एक विचारधारा या व्यवस्था का विरोध करते हैं तो आपको खुद-ब-खुद विरोधी खेमे का समझ लिया जाता है। जैसे यदि आप कांग्रेस का विरोध करते हैं तो यकीनन आपको लोग खाकी पैंट वाला ही समझेंगे चाहे आप उनसे भी कांग्रेस जितनी ही नफरत करते हों।
बहरहाल बिना बेकार की भूमिका बांधे सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। मैं कभी किसी वाद या विचारधारा का समर्थक नहीं रहा। किसी भी विचारधारा को अपना लेने के कारण मेरे ख्याल से हर सिस्टम या विचारधारा की अच्छी-बुरी बातों को जानने-समझने से हम महरुम रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में हम जब कुछ देखते हैं तो उसी विचारधारा के चश्मे से देखते हैं जैसे मनमोहन सिंह समाजवाद के नाम से और वामपंथी पूंजीवाद के नाम से बिदकते हैं।
पूंजीवाद के समर्थक मानते हैं कि ये एक संपूर्ण व्यवस्था है और जनता के हितों के लिए जितने प्रयास इस व्यवस्था के माध्यम से किये जा सकते हैं उतने किसी और से नहीं। पर वास्तव में जनता-जनार्दन क्या है पूंजीवाद में ? अपना मुनाफा बढ़ाने का एक जरिया मात्र !
आज दोपहर में मैं एक नये बने शॉपिंग मॉल में घूम रहा था। वहां दो-चार शोरूम में मैंने लकड़ी का बना हुआ फर्श देखा। फालतू और बेवजह के लग्जरी सामान से बेहद चिढ़ होने के कारण मुझे बहुत बुरा लगा कि कैसे अनगिनत बेहतरीन पेड़ों को जूतों के तले रौंदे जाने के लिए फर्श में इस्तेमाल कर लिया जाता है। पिछले साल बीबीसी के राजेश जोशी दक्षिण अमेरिका में अमेजन के जंगलों से रिपोर्टिंग करते हुए कह रहे थे कि बड़ी तेजी से ये जंगल काटे जा रहे हैं और इसकी लकड़ी यूरोप और अन्य देशों में लकड़ी का सामान बनाने के लिए हो रही है। लकड़ी के सामान की जरूरत हर घर में होती है पर फर्श तक लकड़ी का बनवाने को लोग शान समझने लगे हैं। इसके पीछे की कीमत को कोई नहीं जानना चाहता। मेरा तो मानना है कि ये तो एक अपराधिक स्तर का उपभोक्तावाद है जिसमें प्रकृति के अपराधी हम खुद हैं और जैसा कि सर्वविदित है हमें एक ना एक दिन इसकी सजा मिलनी है।
पर आज के समय में जहां हर चीज मुनाफे को ध्यान में रखकर की जाती है और मुनाफा ही भगवान है वहां पर्यावरण जैसी चीजों के तो कोई मायने रह ही नहीं जाते।
टीवी पर विज्ञापन आ रहा है कि फलां परफ्यूम या डियो लगाये लौंडे के पीछे लड़कियां भाग रही हैं। जिसके पास बढि़या गैजेट्स हैं वही हीरो है। जो जितना ज्यादा फिजूलखर्च है उसका उतना ही जलवा है। हर कंपनी चाहती है लोग ज्यादा से ज्यादा खरीदें और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दें। यहां तक कि एक पूंजीपति तो ये सोचता है कि लोग पुराने का मोह से जितनी जल्दी मुक्त हों उतना अच्छा और जितनी जल्दी पुराने माल को फेंककर नया माल खरीदने आयें उतनी ही चांदी। पर इस तरह की सोच हमें ले कहां जा रही है। क्या हमने कभी सोचा है कि हम जो अनाप-शनाप कॉस्मेटिक्स उपयोग करते हैं उनको बनाने और उनके उपयोग करने और उपयोग के बाद जो वेस्ट बचता है उसको मिलाकर पर्यावरण की कितनी वाट लगाये दे रहे हैं। हमें सिखाया जाता है कि हमें क्यों फलां चीज खरीदनी चाहिए और क्यों पुराना गैजेट बेकार है और तुरंत नया खरीद लेना चाहिए और एक उपभोक्ता के तौर पर हम वही सब किये जा रहे हैं जो पूंजीपति हमसे कराना चाहता है।
पूंजीवाद के समर्थक कहेंगे कि ये उपभोक्ताओं के लिए बेहतर है क्योंकि इसमें उपभोक्ता के हाथ में चॉइस रहती है, एक स्वस्थ प्रतियोगिता होती है जिससे उपभोक्ता वाजिब दामों पर अपनी मनपसंद चीजें खरीदता है। पर उपभोक्ता की अपनी पसंद या नापंसद क्या हो ये तो पूंजीवाद ही तय करता है। उपभोक्ता के ब्रेनवॉश के लिए जो तरीके अपनाये जाने चाहिए वे सब उसे पता हैं। उसे पता है कि कैसे किसी महाफालतू चीज की जरूरत पैदा की जाए और कैसे उसे एक जरूरी चीज में तब्दील करके उपभोक्ताओं से तगड़ा मुनाफा कमाया जाए। और एक बेचारा उपभोक्ता है जो दिन-ब-दिन पूंजीवाद के बहकावे और अपनी सुविधा के लालच में भयंकर रूप से लालची होता जा रहा है और उपभोक्ता का लालच जितना ज्यादा बढ़ेगा उतना ही बाजार की ताकतें उसे अपने जाल में उलझाकर मुनाफा ऐंठेंगी। लाखों-करोडों टन वेस्ट, ई-कचरा, धुंआ पैदा होता रहे उन्हें इससे क्या। उनका मकसद तो मुनाफा है चाहे इसके लिए धरती लाइलाज बीमारियों से ग्रसित होती रहे।
आजकल बड़े पैमाने पर लग्जरी आयटम्स की खरीदी की जाती है। ऐसे सामान जो गैरजरूरी और फालतू हैं उनका बाजार खड़ा करके एक दिखावटी समाज तैयार किया जा रहा है जो केवल दिखावे को ही सब-कुछ मानता है चाहे उसकी कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। पर पूंजीवाद और आम ग्राहक की सुविधा के नाम पर सब चल रहा है और चूंकि सभी खुश हैं इसलिए किसे फिक्र है-सादा जीवन उच्च विचार जैसी बातें सुनने की। फैक्ट्रियां दिन-रात फालतू का सामान, जिसकी वास्तव में कोई जरूरत नहीं है, बनाने के लिए दिन-रात धुंआ उगल रही हैं। सरकारें भी खुश हैं कि टैक्स ज्यादा इकट्ठा हो रहा है। फिर ये सब करके क्योटो प्रोटोकाल जैसे सिस्टम बनाये जाते हैं मानो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने जाए। भई समझौता तो इस बात का होना चाहिए कि मनुष्य अपनी जरूरतें कम करे और फालतू सामान की खरीद से बचे पर ये नहीं होगा और क्योटो प्रोटोकाल जैसी नौटंकियां चलती रहेगी। आगे और भी योजनाएं बनेंगी पर मनुष्य का लालच कहां जाएगा। संसाधनों की कमी का हल्ला हर जगह मचता है पर उनके किफायत से उपयोग की बात कभी नहीं होती।
महात्मा गांधी ने कहा था कि ये धरती मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है पर उसके लालच की नहीं पर पूंजीवाद तो लालच पर ही टिका है जिस दिन मनुष्य ने साधारण तरीके से जीना सीख लिया उस दिन ये बेमौत मर जाएगा। पूंजीवाद एक विचारशून्य और भेड़चाल वाले समाज के निर्माण में जुटा है और काफी हद तक वो इसमें सफल भी हो चुका है। एक आदमी जब कुछ खरीदता है तो शायद ही सोच पाता है कि वह चीज वास्तव में कितनी जरूरी है उसके लिए। उसे तो बस यही सिखाया जाता है कि स्टेटस मेंटेन करना है या शान मारनी है तो फलां चीज तो खरीदनी ही होगी।
कुल मिलाकर पूंजीवाद लालच पर टिका एक ऐसा दैत्य है जो सब कुछ खतम करके ही दम लेगा। मनुष्य के बढ़ते लालच, उपभोग की चरमसीमा उसे कहां तक ले जाएगी ये बताने की जरूरत नहीं है।
पुरानी भारतीय जीवनशैली मेरे ख्याल में पूंजीवाद और पूंजीवाद से धरती के लिए पैदा घनघोर संकट का विकल्प हो सकती है। इस पर फिर कभी चर्चा करते हैं..... फिलहाल के लिए बस।
पर हर किसी के लिए पूंजीवाद के विरोध के अपने कारण हैं। ज्यादातर लोग किसी वाद या व्यवस्था के विरोधी इसीलिए होते हैं क्योंकि वे उसकी विरोधी व्यवस्था के पोषक होते हैं, ऐसे में उन्हें तो आंख मूंदकर उसका विरोध करना होता है। होता ये भी है कि यदि आप किसी एक विचारधारा या व्यवस्था का विरोध करते हैं तो आपको खुद-ब-खुद विरोधी खेमे का समझ लिया जाता है। जैसे यदि आप कांग्रेस का विरोध करते हैं तो यकीनन आपको लोग खाकी पैंट वाला ही समझेंगे चाहे आप उनसे भी कांग्रेस जितनी ही नफरत करते हों।
बहरहाल बिना बेकार की भूमिका बांधे सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। मैं कभी किसी वाद या विचारधारा का समर्थक नहीं रहा। किसी भी विचारधारा को अपना लेने के कारण मेरे ख्याल से हर सिस्टम या विचारधारा की अच्छी-बुरी बातों को जानने-समझने से हम महरुम रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में हम जब कुछ देखते हैं तो उसी विचारधारा के चश्मे से देखते हैं जैसे मनमोहन सिंह समाजवाद के नाम से और वामपंथी पूंजीवाद के नाम से बिदकते हैं।
पूंजीवाद के समर्थक मानते हैं कि ये एक संपूर्ण व्यवस्था है और जनता के हितों के लिए जितने प्रयास इस व्यवस्था के माध्यम से किये जा सकते हैं उतने किसी और से नहीं। पर वास्तव में जनता-जनार्दन क्या है पूंजीवाद में ? अपना मुनाफा बढ़ाने का एक जरिया मात्र !
आज दोपहर में मैं एक नये बने शॉपिंग मॉल में घूम रहा था। वहां दो-चार शोरूम में मैंने लकड़ी का बना हुआ फर्श देखा। फालतू और बेवजह के लग्जरी सामान से बेहद चिढ़ होने के कारण मुझे बहुत बुरा लगा कि कैसे अनगिनत बेहतरीन पेड़ों को जूतों के तले रौंदे जाने के लिए फर्श में इस्तेमाल कर लिया जाता है। पिछले साल बीबीसी के राजेश जोशी दक्षिण अमेरिका में अमेजन के जंगलों से रिपोर्टिंग करते हुए कह रहे थे कि बड़ी तेजी से ये जंगल काटे जा रहे हैं और इसकी लकड़ी यूरोप और अन्य देशों में लकड़ी का सामान बनाने के लिए हो रही है। लकड़ी के सामान की जरूरत हर घर में होती है पर फर्श तक लकड़ी का बनवाने को लोग शान समझने लगे हैं। इसके पीछे की कीमत को कोई नहीं जानना चाहता। मेरा तो मानना है कि ये तो एक अपराधिक स्तर का उपभोक्तावाद है जिसमें प्रकृति के अपराधी हम खुद हैं और जैसा कि सर्वविदित है हमें एक ना एक दिन इसकी सजा मिलनी है।
पर आज के समय में जहां हर चीज मुनाफे को ध्यान में रखकर की जाती है और मुनाफा ही भगवान है वहां पर्यावरण जैसी चीजों के तो कोई मायने रह ही नहीं जाते।
टीवी पर विज्ञापन आ रहा है कि फलां परफ्यूम या डियो लगाये लौंडे के पीछे लड़कियां भाग रही हैं। जिसके पास बढि़या गैजेट्स हैं वही हीरो है। जो जितना ज्यादा फिजूलखर्च है उसका उतना ही जलवा है। हर कंपनी चाहती है लोग ज्यादा से ज्यादा खरीदें और ज्यादा से ज्यादा मुनाफा दें। यहां तक कि एक पूंजीपति तो ये सोचता है कि लोग पुराने का मोह से जितनी जल्दी मुक्त हों उतना अच्छा और जितनी जल्दी पुराने माल को फेंककर नया माल खरीदने आयें उतनी ही चांदी। पर इस तरह की सोच हमें ले कहां जा रही है। क्या हमने कभी सोचा है कि हम जो अनाप-शनाप कॉस्मेटिक्स उपयोग करते हैं उनको बनाने और उनके उपयोग करने और उपयोग के बाद जो वेस्ट बचता है उसको मिलाकर पर्यावरण की कितनी वाट लगाये दे रहे हैं। हमें सिखाया जाता है कि हमें क्यों फलां चीज खरीदनी चाहिए और क्यों पुराना गैजेट बेकार है और तुरंत नया खरीद लेना चाहिए और एक उपभोक्ता के तौर पर हम वही सब किये जा रहे हैं जो पूंजीपति हमसे कराना चाहता है।
पूंजीवाद के समर्थक कहेंगे कि ये उपभोक्ताओं के लिए बेहतर है क्योंकि इसमें उपभोक्ता के हाथ में चॉइस रहती है, एक स्वस्थ प्रतियोगिता होती है जिससे उपभोक्ता वाजिब दामों पर अपनी मनपसंद चीजें खरीदता है। पर उपभोक्ता की अपनी पसंद या नापंसद क्या हो ये तो पूंजीवाद ही तय करता है। उपभोक्ता के ब्रेनवॉश के लिए जो तरीके अपनाये जाने चाहिए वे सब उसे पता हैं। उसे पता है कि कैसे किसी महाफालतू चीज की जरूरत पैदा की जाए और कैसे उसे एक जरूरी चीज में तब्दील करके उपभोक्ताओं से तगड़ा मुनाफा कमाया जाए। और एक बेचारा उपभोक्ता है जो दिन-ब-दिन पूंजीवाद के बहकावे और अपनी सुविधा के लालच में भयंकर रूप से लालची होता जा रहा है और उपभोक्ता का लालच जितना ज्यादा बढ़ेगा उतना ही बाजार की ताकतें उसे अपने जाल में उलझाकर मुनाफा ऐंठेंगी। लाखों-करोडों टन वेस्ट, ई-कचरा, धुंआ पैदा होता रहे उन्हें इससे क्या। उनका मकसद तो मुनाफा है चाहे इसके लिए धरती लाइलाज बीमारियों से ग्रसित होती रहे।
आजकल बड़े पैमाने पर लग्जरी आयटम्स की खरीदी की जाती है। ऐसे सामान जो गैरजरूरी और फालतू हैं उनका बाजार खड़ा करके एक दिखावटी समाज तैयार किया जा रहा है जो केवल दिखावे को ही सब-कुछ मानता है चाहे उसकी कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। पर पूंजीवाद और आम ग्राहक की सुविधा के नाम पर सब चल रहा है और चूंकि सभी खुश हैं इसलिए किसे फिक्र है-सादा जीवन उच्च विचार जैसी बातें सुनने की। फैक्ट्रियां दिन-रात फालतू का सामान, जिसकी वास्तव में कोई जरूरत नहीं है, बनाने के लिए दिन-रात धुंआ उगल रही हैं। सरकारें भी खुश हैं कि टैक्स ज्यादा इकट्ठा हो रहा है। फिर ये सब करके क्योटो प्रोटोकाल जैसे सिस्टम बनाये जाते हैं मानो सौ चूहे खाकर बिल्ली हज करने जाए। भई समझौता तो इस बात का होना चाहिए कि मनुष्य अपनी जरूरतें कम करे और फालतू सामान की खरीद से बचे पर ये नहीं होगा और क्योटो प्रोटोकाल जैसी नौटंकियां चलती रहेगी। आगे और भी योजनाएं बनेंगी पर मनुष्य का लालच कहां जाएगा। संसाधनों की कमी का हल्ला हर जगह मचता है पर उनके किफायत से उपयोग की बात कभी नहीं होती।
महात्मा गांधी ने कहा था कि ये धरती मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है पर उसके लालच की नहीं पर पूंजीवाद तो लालच पर ही टिका है जिस दिन मनुष्य ने साधारण तरीके से जीना सीख लिया उस दिन ये बेमौत मर जाएगा। पूंजीवाद एक विचारशून्य और भेड़चाल वाले समाज के निर्माण में जुटा है और काफी हद तक वो इसमें सफल भी हो चुका है। एक आदमी जब कुछ खरीदता है तो शायद ही सोच पाता है कि वह चीज वास्तव में कितनी जरूरी है उसके लिए। उसे तो बस यही सिखाया जाता है कि स्टेटस मेंटेन करना है या शान मारनी है तो फलां चीज तो खरीदनी ही होगी।
कुल मिलाकर पूंजीवाद लालच पर टिका एक ऐसा दैत्य है जो सब कुछ खतम करके ही दम लेगा। मनुष्य के बढ़ते लालच, उपभोग की चरमसीमा उसे कहां तक ले जाएगी ये बताने की जरूरत नहीं है।
पुरानी भारतीय जीवनशैली मेरे ख्याल में पूंजीवाद और पूंजीवाद से धरती के लिए पैदा घनघोर संकट का विकल्प हो सकती है। इस पर फिर कभी चर्चा करते हैं..... फिलहाल के लिए बस।
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