Sunday, February 24, 2008

Online Hindi Literature- Useful Links

विगत समय में इंटरनेट पर हिंदी की उपस्थिति से हिंदी भाषी इंटरनेट उपयोगकर्ता को बहुत सहूलियत हो गई है। आज हिंदी में दिनों-दिन नई वेबसाइट आ जाने से लोगों को अपनी मनचाही सामग्री आसानी से उपलब्‍ध है। पर फिर भी बहुत से इंटरनेट उपयोगकर्ताओं को अनेक उपयोगी हिंदी जालस्‍थलों के बारे में जानकारी न होने से चाही गई जानकारी सुलभ नहीं है।

2006 में मैंने ऑरकुट पर हिंदी ई-पुस्‍तक नाम से एक समूह बनाया था। उस समय भी इंटरनेट पर काफी सारा हिंदी साहित्‍य ई-बुक के रूप में उपलब्‍ध था। पर लोगों को जानकारी न होने के कारण उस तक पहुंच नहीं हो पाती थी। मैंने और प्रतीक पांडे ने सोचा कि क्‍यों न ऐसा एक समूह बनाया जाए जहां लोग आसानी से इस विषय में अपनी जानकारी एक-दूसरे से बांट सकें। वर्तमान में 1100 से भी अधिक लोग इस समूह के सदस्‍य हैं।

इस समूह के आने के बाद बहुत से नये हिंदी जालस्‍थल भी आये जहां हिंदी साहित्‍य के प्रेमियों के लिए भरपूर मात्रा में सामग्री उपलब्‍ध थी।

मैं यहां हिंदी ई-बुक्‍स और साहित्‍य से संबंधित लिंक दे रहा हूं जिससे एक ही स्‍थान पर हिंदी-साहित्‍य प्रेमियों को उनकी मनचाही जानकारी उपलब्‍ध हो जाए।


ऑरकुट पर हिंदी ई-पुस्‍तक समूह

सी-डेक नोयडा की लाइब्रेरी

टी.डी.आई.एल की लाइब्रेरी

श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता-2

श्रीमद्भगवद्गीता सुनिये

गीता प्रेस की पुस्तकें

आदि शंकराचार्य कृत भाष्‍य


सहस्त्राब्दी की हिन्दी कविताओं का संकलन

यहाँ पर पिछले हजार सालों के प्रमुख हिन्दी कवियों की कविताओं का संकलन है
जिनमें प्रमुख हैं-
अमीरखुसरो
कबीरदास
सूरदास
मीराबाई
जायसी
नानक
रैदास
रसखान
रहीम


गोस्वामी तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस'

श्रीमद भागवद गीता, दोहावली और कवितावली पढ़िये

हिन्दी कहानियाँ और प्रेरणास्पद लेख

तिरुक्कुरळ हिन्दी मे (तमिल से)

हिन्दी सुभाषित सहस्र

हिंदी सूक्तियां

महाभारत

बाल्‍मीकि कृत रामायण

मुंशी प्रेमचंद की कहानियां

गायत्री परिवार द्वारा प्रकाशित पुस्‍तकें

कुरान

कुरान-2

राग दरबारी

सुनें हिंदी के प्रसिद्ध कवियों की रचनाएं

डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इण्डिया

हिंदी कविता कोश

डिजिटल सांस्‍कृतिक संपदा पुस्‍तकालय

उपरोक्‍त पुस्‍तकों के अतिरिक्‍त मैंने स्‍वयं कुछ बेहतरीन हिंदी ईबुक्‍स का संकलन Hindi Ebooks के नाम से बनाया है-

Free Hindi Ebooks

जिसमें कुछ चुनिंदा हिंदी ई-पुस्‍तकों को संग्रहित किया है। जिनमें से कुछ हैं-

गोदान- मुंशी प्रेमचंद
देवदास- शरतचंद्र
कुरूक्षेत्र- रामधारी सिंह दिनकर
मधुशाला- हरिवंशराय बच्‍चन
आनंदमठ- बंकिमचंद्र
अंधायुग- धर्मवीर भारती
कनुप्रिया- धर्मवीर भारती
रहीम के दोहे
कबीर के दोहे
कामायनी- जयशंकर प्रसाद
एक गधे की वापसी- कृष्‍ण चंदर
गालिब की रचनाएं
हरिशंकर परसाई की व्‍यंग्‍य रचनाएं
तरकश- जावेद अख्‍तर
शरद जोशी के व्‍यंग्‍य लेख
बच्‍चन की प्रतिनिधि रचनाएं
आंखन देखी- दुर्गाप्रसाद अग्रवाल
हिंदी काव्‍य संग्रह

इन ई-पुस्‍तकों के संग्रह और संपादन में कुछ लोगों का विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है जिनका मैं आभारी हूं- श्री अनूप शुक्‍लाजी, प्रतीक पांडे, अनुनादजी, आलोकेश्‍वर, सागर नाहरजी और भी बहुत से सहयोगी जिनका शायद मैं नाम भूल रहा हूं।

इसके अलावा रवि रतलामीजी से भी मुझे रचनाकार पर प्रकाशित कुछ पुस्‍तकों के पीडीएफ संस्‍करणों को यहां रखने की अनुमति मिली जिसके लिए मैं उनका विशेष रूप से आभारी हूं।

Saturday, February 23, 2008

आर यू गे ? Are You Gay?

जी हां यदि आप पुरुष हैं और अपने किसी पुरुष मित्र के साथ उसके कंधे पर हाथ रखे हुए, सटकर या बहुत बिंदास मजाक करते हुए किसी सार्वजनिक जगह से गुजर रहे हैं तो लोगों की नजरें आप पर हैं।

पिछले कुछ समय से खुले या आधुनिक समाज में समलैंगिकता कोई बहुत दबा-छिपा मुद्दा नहीं रह गया है। आजकल ऐसे लोग भी आपको मिल जायेंगे जो खुलेआम इसे स्‍वीकारते भी मिल जायेंगे। पहले इस प्रकार के मुद्दों पर चर्चा करना तक ठीक नहीं समझा जाता था वहीं आज इसके समर्थन में लोग खुलकर सामने आने लगे हैं। इसलिए लोगों को दो समान लिंग के लोगों के घनिष्‍ठ व्‍यवहार को देखकर ये अनुमान लगाने में भी देर नहीं लगती कि दोनों समलैंगि‍क हैं।

हाल ही में मेरे साथ भी ऐसा ही एक वाकया हुआ। मैं और मेरा एक मित्र दोनों अक्‍सर शाम को शहर की सड़कों पर घूमने निकलते हैं। एक दिन रात को हम ऐसे ही सड़कों पर बिंदास गप्‍पबाजी करते घूम रहे थे। वहां से गुजरते हुए हमारे किसी दोस्‍त ने हमें देखा होगा और तुरंत एस.एम.एस किया- आर यू गे ? मैसेज पढ़कर अपन ने भी काउंटर मजाक किया- यस वी आर, वाई डोंट यू जॉइन अस। अब बंदा समझ गया कि अईसा मजाक नहीं करना चाहिए। उसने तुरंत पल्‍ला झाड़ा- सॉरी, आइम स्‍ट्रेट।

ये तो थी मजाक की बात। आजकल फिल्‍मों में भी इस प्रकार के प्रश्‍न अक्‍सर सुनने को मिल जाते हैं। इंद्र कुमार की भी एक फिल्‍म आई थी- मस्‍ती, उसमें भी सतीश शाह रितेश देशमुख और आफताब शिवदासानी को गे समझकर उनसे दूर भागता फिरता है।

पहले और आज भी छोटे कस्‍बों में यदि आप सार्वजनिक स्‍थान पर किसी लड़की के साथ देखे जाएं तो लोग कहेंगे- जरूर सेटिंग होगी साले की। भले ही आप अपनी किसी मित्र या रिश्‍तेदार के साथ हों। पर आजकल तो लड़कों के साथ भी घूमना सेफ नहीं है बाबा। लोग गे का ठप्‍पा लिए साथ घूम रहे हैं। संभलिए कहीं आप पर भी ये ठप्‍पा न लग जाए। और कहीं आपकी गर्लफ्रेंड को शक हो गया तो आपकी छुट्टी।

Tuesday, February 19, 2008

मरते घडि़याल, दम तोड़ती जैव विविधता

पिछले कुछ समय से चंबल नदी में पाये जाने वाले घडि़यालों की मौत की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं। विगत दो माह में मृत घडि़यालों की संख्‍या 96 बताई गई है। पर कमाल की बात ये है कि इतना समय बीत जाने के बाद भी घडि़यालों की मौत का सही कारण पता नहीं लगाया जा सका है। भारतीय उपमहाद्वीप के इस बेहद संकटग्रस्‍त जलीय जीव के वर्तमान में कुछ ही ठिकाने शेष हैं जिनमें चंबल नदी सबसे महत्‍वपूर्ण है।

चंबल नदी में पाये जाने वाले जीवों की संरक्षा के लिए सन् 1979 में राष्‍ट्रीय चंबल अभ्‍यारण की स्‍थापना की गई। 400 किमी से भी अधिक क्षेत्र में फैले इस अभ्‍यारण में मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान और उत्‍तरप्रदेश तीनों ही राज्‍यों का क्षेत्र सम्मिलित है। चंबल नदी भारत की सबसे कम प्रदूषित और समृद्ध जैव-विविधता वाली नदियों में से है। साफ पानी में पाई जाने वाली डॉल्फिन, जिसे गेंगेटिक डॉल्फिन कहा जाता है, भी इस नदी के पानी में अठखेलियां करती हैं। साथ ही दुर्लभ प्रजाति के कछुए भी यहां पाए जाते हैं। पर चंबल मुख्‍य रूप से घडि़यालों के लिए जानी जाती है घडि़यालों के अलावा यहां मगर भी पर्याप्‍त संख्‍या में हैं। 1979 में सेंचुरी घोषित होने के बाद से ही सरकार द्वारा इन जलीय जीवों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किये जा रहे हैं। पर सरकारी प्रयासों के अलावा यह बात भी ध्‍यान में रखने योग्‍य है कि यह नदी दुर्गम बीहड़ों से होकर गुजरती है और इसके किनारों पर आबादी और शहरी आबादी नाम मात्र की है(राजस्‍थान के कोटा को छोड़कर)। इसके अलावा यह इलाका लंबे समय से मानवीय गतिविधियों से अछूता रहा है और चंबल के बीहड़ों में पाये जाने वाले डकैत गिरोहों के कारण भी लोगों को हमेशा इसके आसपास जाने में भय सताता रहा है। इस कारण भी यहां जलीय जीवों पर संकट के मौके ज्‍यादा नहीं आ पाये हैं। पर पिछले कुछ समय से सेंचुरी क्षेत्र मे मानवीय गतिविधियां बढ़ी हैं।

चंबल में पाये जाने वाले घडि़यालों के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए मुरैना जिले के देवरी में और लखनऊ के पास कुकरैल में संरक्षण केंद्र स्‍थापित हैं। इन केंद्रों में घडि़यालों के अंडों को लाकर रखा जाता है और उनसे निकले बच्‍चों के नदी में रहने लायक होने के बाद वहां छोड़ दिया जाता है। चंबल सेंचुरी के अधिकारियों का कहना है कि वे इस क्षेत्र को इको टूरिज्‍म के लिए विकसित करना चाहते हैं। पर अभी तक इस क्षेत्र में पर्यटन को विकसित करने के पर्याप्‍त प्रयास नहीं हुए हैं। मुरैना स्थित घडि़याल केंद्र पर पर्यटकों को मोटरबोट द्वारा नदी की सैर कराने के इंतजाम हैं पर पर्यटकों की संख्‍या नगण्‍य सी ही बनी रहती है। मुरैना का देवरी घडि़याल केंद्र राष्‍ट्रीय राजमार्ग क्र. 3 पर मुरैना शहर से 6-7 किमी की दूरी पर हैं। वहां जरूर घडि़याल और मगरमच्‍छ देखने के शौकीन पर्यटक देखे जा सकते हैं।

पर पिछले कुछ ही समय में इतने घडि़यालों की मौत संरक्षण के इन प्रयासों पर सवालिया निशान लगाती है। साथ ही मौत के कारणों का ठीक से पता न लग पाना भी एक समस्‍या बनी हुई है। पहले-पहल कहा गया कि घडि़यालों की मौत जहरीले पानी से हुई है। पानी में सीसे की मात्रा होने की बात भी सामने आई। कुछ विशेषज्ञ लिवर या किडनी में खराबी आने को मौत का कारण बता रहे हैं। पर कुल मिलाकर स्थिति अभी भी स्‍पष्‍ट नहीं है। किसी जलीय परजीवी को भी मौत का कारण बताया जा रहा है। एक कारण यह भी हो सकता है। दुनियाभर के घडि़याल विशेषज्ञ और जीव वैज्ञानिक सेंचुरी का दौरा कर चुके हैं। फिलहाल कोई भी स्‍पष्‍ट रूप से कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। हाल ही में उत्‍तरप्रदेश से लगे इलाके से डॉल्फिन के मरने की भी सूचना आई थी।

कुल मिलाकर सेंचुरी की व‍र्तमान स्थिति बेहद चिंताजनक है। जलीय जीवों की लगातार होती मौतों और कारणों पर पड़ी धुंध ने इन अत्‍यंत संकटग्रस्‍त जीवों के अस्तित्‍व के संकट को और गहरा दिया है। साथ ही चंबल क्षेत्र में सक्रिय अवैध रेत माफिया के द्वारा बेरोकटोक रेत खनन और भारी वाहनों की आवाजाही से संकटग्रस्‍त जीवों के प्राकृतिक आवास नष्‍ट होते जा रहे हैं। रेत माफिया खासकर मुरैना-धौलपुर के क्षेत्र में इतना शक्तिशाली है कि प्रशासन भी उसे रोक पाने में नाकाम है। कई बार बड़ी मात्रा में पुलिस और टास्‍क फोर्स को वहां पहुंचकर उल्‍टे पांव भागना पड़ा है या उनकी बुरी तरह पिटाई हुई है। ऐसी परिस्थितियों में संबंधित राज्‍य सरकारों और पर्यावरण एजेंसियों के साथ जैव संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्‍थाओं के स‍मन्वित प्रयासों की अपेक्षा है जिससे ये महत्‍वपूर्ण प्राकृतिक धरोहर अपना अस्तित्‍व कायम रख सके।

फोटो साभार: बीबीसी और द हिन्‍दू

Thursday, February 14, 2008

घायल बसंत- हरिशंकर परसाई

आजकल कई ब्‍लागर बंधु बसंत पर पोस्‍ट लिख रहे हैं। लिखना भी चाहिए बसंत का मौसम है। पर राग वही पुराना है- अब वह बसंत कहां ! अब तो बसंत यदा-कदा किसी गमले में भले दिख जाए और तो कहीं नहीं दीखता। भई अपना तो कहना है कि- हाय बसंत करने से अच्‍छा है- छोड़ो कल की बातें कल की बात पुरानी, नये दौर में सीखो तुम वेलेन्‍टाइन की कहानी। अभी भी समय है किसी मॉल में जाईये और ढूंढि़ये किसी सुंदरी को।

छि: कैसी गंदी बात आ गई बीच में- भारतीय संस्‍कृति की मट्टी पलीद कर रखी है हम जैसों ने। क्षमा करो बजरंग(दल) बली

चलिए बसंत का मौसम है तो इस बहाने बसंत के बारे में थोड़ा हरिशंकर परसाईजी की लेखनी पर भी दृष्टिपात कर लें। प्रस्‍तुत है उनकी रचना- घायल बसंत।


कल बसन्तोत्सव था। कवि बसन्त के आगमन की सूचना पा रहा था--

प्रिय, फिर आया मादक बसन्त'

मैंने सोचा, जिसे बसन्त के आने का बोध भी अपनी तरफ से काराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति - विज्ञान पढ़ायेंगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसन्द आता है ।

कवि मग्न होकर गा रहा था

'प्रिय, फिर आया मादक बसन्त !'

पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अन्त हा हन्तसे होगा, और हुआ। अन्त, सन्त, दिगन्त आदि के बाद सिवा 'हा हन्त' के कौन पद पूरा करता ? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरम्भ चाहे 'बसन्त ' से कर लो, अन्त जरूर ' हा हन्त ' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी , इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसन्त ' से शुरू करके 'हा हन्त' पर पहुंचते हैं। तुकें बराबर फ़िट बैठती हैं , पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमन्त्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की , उसकी तुक शुध्द सर्वोदय से मिलायी -- 'सोना दबाने वालो , देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्ताम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे ? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे ?

कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तोरे की !' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम -कम-कम 51 तुकें बॉधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बांधी हैं। ( देखो 'यशोधरा ' पृष्ठ 13 ) पर तू मुझे क्या बतायेगा कि बसन्त आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसन्त ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा कौन?” जवाब आया-- '' मैं वसन्त। '' मैं घबड़ा उठा। जिस दूकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसन्तलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे ! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसन्त अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनन्दकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जायेगा और अमृतलाल जल्लाद फॉसी पर टांग देगा !

वसन्तलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसन्त निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं ! इस वसन्तलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।

मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। ऑखें झंप गयीं । मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा --कौन? जवाब आया—“मैं वसन्त !” मैं खीझ उठा - '' कह तो दिया कि फिर आना।'' उधर से जवाब आया—“मै। बार-बार कब तक आता रहूंगा ? मैं। किसी बनिये का नौकर नहीं हूं ; ऋतुराज वसन्त हूं। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूं और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल , अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूंठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव -भाव कर रही है -- और बहुत भद्दी लग रही है।''

मैने मुंह उधाड़कर कहा-, '' भई, माफ़ करना , मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडम्बना है कि ऋतुराज वसन्त भी आये, तो लगता है , उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठण्ड बहुत लगती है।'' वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, '' जाते -जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़ -खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो ; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गयी है। ''

उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुन्दरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।

मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हज़ारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं ; टनों कवि - कल्पनाएं जमी हैं। सोचा, वसन्त है तो कोयल होगी ही । पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनायी दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'कांव-कांव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौटा-- मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परम्परा ने कौढ को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का सन्देसा देने वाला माना जाता है। सोचा , कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता ; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूं। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया , तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा , ''प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या?'' नायिका लजाकर कहेगी , '' उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सेबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था।'' तब नायक कहेगा, '' प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थेड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाये हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी ग़लत परम्परा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुन्दरी खुद सोना मढ़े।'' नायिका चुप हो जायेगी। स्वर्ण - नियन्त्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूं ; तब से, जब इसने सीता के पांव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाये। इसी समय इन्द्र का बिगडै़ल बेटा जयन्त आवारागर्दी करता वहां आया और कौआ बनकर सीता के पांव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगडैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं , क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिये हैं। पर इस मौसम में कोयल कहां है ? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसन्त में कौए की बन आयी है। वह तो मौक़ापरस्त है ; घुसने के लिए पोल ढूंढता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊंचाई पर कौआ बैठा 'कॉव-कॉव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, ' हाय, अब वे अमराइयां यहां कहां है कि कोयलें बोलें। यहां तो ये शहर बस गये हैं, और कारखाने बन गये है।' मैं कहता हूं कि सर्वत्र अमराइयां नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया , वह छाया कैसे बंटायेगी ? जब हम अमराई बना लेंगे , तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर क़ब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें , पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूं। चौराहे पर पहली बसन्ती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूं। यौवन की एड़ी दिख रही है -- वह जा रहा है -- वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी' - (निराला )। उसने वसन वासन्ती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसन्त का अन्तिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने मांग में बहुत -सा सिन्दूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी मांग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अंगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठण्ड से कांप रही है और 'सीसी' कर रहीं है। वसन्त में वासन्ती साड़ी को कंपकंपी छूट रही है।

यह कैसा वसन्त है जो शीत के डर से कांप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने-- ' सरस वसन्त समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे ! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तार से बर्फ़ीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फ़ीली हवा ने हमारे वसन्त का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत- सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जायेगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश ! इसी बर्फ क़ी हवा ने हमारे आते वसन्त को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसन्त आयेगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गयी है, तो क्या वसन्त बहुत पीछे होगा? वसन्त तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तार से शीत -लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसन्त फॅसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसन्त सिकुड़ता जा रहा है।

मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।