Monday, September 24, 2007

राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ की आवश्‍यकता पर कुछ प्रश्‍न

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के एक जज की टिप्‍पणी से एक बेतुकी और निरर्थक सी बहस का जन्‍म हुआ कि गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ बनाया जाए या नहीं? इस विषय पर लोगों के अपने-अपने मत हो सकते हैं। परंतु यह बात काबिले गौर है कि अधिकांश बुद्धिजीवियों, संपादकों और लेखकों ने भी इस बात पर अपनी सहमति प्रकट की कि हमारे महान धर्मग्रंथ गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ बनाये जाने से देश का कुछ न कुछ भला ही होगा। इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के माननीय न्‍यायाधीश की टिप्‍पणी से अलबत्‍ता केंद्र सरकार जरूर सकते में आ गई और उसके विधि मंत्री ने तुरत-फुरत ही भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्‍ट्र होने का हवाला देते हुए ऐसी किसी आवश्‍यकता या संभावना को खारिज कर दिया। इस प्रकार के मुद्दों पर राजनीतिक दलों की आमतौर पर प्रतिक्रिया वोटबैंक केंद्रित ही होती है और इससे ज्‍यादा उनसे किसी प्रकार की उम्‍मीद भी नहीं की जा सकती। पर बहस के मूल में यह बात है कि क्‍या गीता को वाकई राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए? यदि हां तो ऐसा किये जाने के उद्देश्‍य और उसके परिणाम क्‍या होंगे?

इसके समर्थकों का तर्क है कि इस प्रकार के धर्मग्रंथ से हमारे राष्‍ट्र में, समाज में उच्‍च आदर्शों की स्‍थापना को बढ़ावा मिलेगा। गीता में जिस कर्मयोग की महत्‍ता प्रतिपादित की गई है, उसे फिर से जनमानस में प्रतिष्ठित किया जा सकेगा। नैतिकता के उच्‍च आदर्शों की प्राप्ति भी इस धर्मग्रंथ को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ का दर्जा देने से सहज ही हो जायेगी, ऐसा उनका सोचना है। परंतु इस प्रकार के लोग अक्‍सर भूल जाते हैं कि महात्‍मा गांधी को राष्‍ट्रपिता मानने वाले देश का असली चरित्र क्‍या है? बुद्ध, महावीर और मर्यादा पुरुषोत्‍त्‍म राम की जन्‍मभूमि वाले इस देश में क्‍या इस प्रकार की थोथी घोषणाओं से नैतिक प्रतिमानों की पुनर्स्‍थापना संभव है?

यह निर्विवाद है कि गीता हमारी अमूल्‍य धार्मिक एवं ऐतिहासिक धरोहर है और इसका संदेश केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं बल्कि सभी धर्म के अनुयायियों के लिए अनुकरणीय है। परंतु हमें यह भी गौर करना होगा कि इस प्रकार का प्रेरणास्‍पद ग्रंथ क्‍या वाकई राष्‍ट्रजीवन में उच्‍च आदर्शों की स्‍थापना में योगदान कर सकता है? स्‍पष्‍ट तौर पर नहीं ! क्‍योंकि स्‍वतंत्रता के पिछले साठ वर्षों में हमने जिस प्रकार के राष्‍ट्रीय चरित्र और संस्‍कृति का निर्माण किया है वह मात्र दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार के खोखले चरित्र की नींव पर महान सिद्धांतों, आदर्शों और मूल्‍यों की स्‍थापना कतई नहीं हो सकती।

आजादी से पहले के नेताओं की गौरवशाली विरासत कुछ ही सालों में धूल में मिला देने वाले देश में यह बात कितनी बेहूदा प्रतीत होती है कि मात्र किसी धर्मग्रंथ के प्रभाव से उस महान विरासत को पुनर्जीवन मिल सकेगा। आज जब संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ द्वारा आगामी 2 अक्‍टूबर से गांधी जयंती को अंतर्राष्‍ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है तब यह विचारणीय है कि गांधी की हमारे राष्‍ट्रजीवन में क्‍या प्रासंगिकता बची रह गई है। क्‍यों उनकी विचारधारा को फिल्‍मों की बैसाखी के सहारे ढोने का दिखावा किया जाता है। राष्‍ट्रपिता घोषित करने के बावजूद हमने उनके विचारों को सादा जीवन उच्‍च विचार की बजाय उच्‍च जीवन तुच्‍छ विचार में परिणत कर दिया है। जब मात्र साठ वर्षों में हमने उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की बजाय मटियामेट कर दिया तो फिर किस आधार पर कोई व्‍यक्ति यह कल्‍पना कर लेता है कि सदियों पुरानी धार्मिक विरासत को लोगों के बीच इतनी आसानी से मान्‍यता मिल जायेगी। यहां मान्‍यता शब्‍द को मैं भिन्‍न संदर्भ में प्रयोग कर रहा हूं। कुछ लोगों के लिए मान्‍यता का अर्थ उसकी जय-जयकार, उसकी प्रशंसा या उस पर गर्व करना हो सकता है। जबकि मेरा मानना है कि जब तक व्‍यक्ति अपने आचरण से किसी को मान्‍य नहीं करता है तब तक सभी प्रकार की मान्‍यताएं दिखावा मात्र हैं। हम लोग हमेशा अपनी प्रचीन और महान भारतीय सभ्‍यता के दंभ में फूले रहते हैं। जबकि आज उसी देश में एक ओर किसान आत्‍महत्‍या करते हैं और दूसरी ओर हमारी मायानगरी मुंबई गणेशोत्‍सव पर करोड़ों-अरबों रुपए फूंक देती है।

हमारी समस्‍या ये है कि हम अपने महापुरुषों पर गर्व तो करते हैं पर उनके अनुकरण में असुविधा महसूस करते हैं। राम के अस्तित्‍व के प्रश्‍न को लेकर पूरे देश की आस्‍था राम के संबंध में प्रकट होती है परंतु यह भी एक तथ्‍य है कि मर्यादा पुरुषोत्‍तम के पूजक इस देश में ही गरीबी और भुखमरी से पीडि़त लोगों तक पहुंचने के लिये आवंटित अनाज भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ जाता है। क्‍या केवल पूजा मात्र से, जय-जयकारों से या ढकोसलों से हम एक महान राष्‍ट्र का निर्माण कर सकेंगे? क्‍या गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ घोषित करने के पश्‍चात् ही लोग उसका महत्‍व जान पायेंगे? गीता, रामायण हमारे देश के अधिकांश घरों के पूजाघरों में मिल जायेगीं। परंतु क्‍या पूजाघरों में रख देने से हमने उनके निहितार्थ को ग्रहण कर लिया?

भारत में धार्मिक कहे जाने वाले बहुत से लोग सुबह नहा-धोकर गीता पाठ करते हैं परंतु अपने सार्वजनिक जीवन में वे उन्‍हीं बुराईयों से युक्‍त हैं जिनके कारण देश को भ्रष्‍टाचार की सूची में अव्‍वल स्‍थान मिलता है। धर्मग्रंथों को पवित्र मानकर उनकी पूजा करने वाले घरों में भी कन्‍या भ्रूण-हत्‍या जैसे जघन्‍य अपराध अंजाम दिये जाते हैं। हर वर्ष दशहरे पर हम रावण नामक मिथकीय चरित्र के पुतले फूंककर बुराई पर अच्‍छाई का जश्‍न मनाते हैं। इसके बावजूद क्‍या हम अपने अंदर की बुराईयों का समूल नाश करने के लिए तत्‍पर हैं?

निष्‍कर्ष स्‍पष्‍ट है कि किसी ग्रंथ की मात्र पूजा कर लेने या उसे उच्‍च स्‍थान पर प्रतिष्ठित कर देने भर से देश का भला होने वाला नहीं है। जब तक कि हम वाकई अपने राष्‍ट्र, उसकी उन्‍नति और स्‍वयं अपनी उन्‍नति के प्रति समर्पित नहीं हैं। बुराई को मिटाने के लिए हमें खुद के भीतर झांकना होगा ना कि धर्मग्रंथों की झांकी लगाने से इसका निवारण संभव होगा। क्‍या हमें इस मामले में पश्चिम से सीख नहीं लेनी चाहिए कि बिना किसी धर्मग्रंथ और धार्मिक चोंचलों के बिना वे अपने नागरिकों को एक बेहतर जीवन स्‍तर प्रदान करने में सक्षम हो सके हैं।

Wednesday, September 12, 2007

दर्शन दे-दे बिजली मैया जियरा ब्‍लागिंग को तड़पे

कुछ समय पहले हमने जोर-शोर से घोषणा की कि अब तो हमारा नाम ब्‍लाग-जगत में नियमित लेखकों में शुमार होकर रहेगा। पर हाय रे किस्‍मत! हमारी बिजली मैया को ये घोषणा रास न आई। तब से लेकर आज तक बिजली हमें ठेंगा दिखा रही है कि लो बेट्टा कल्‍लो ब्‍लागिंग। बिजली मैया पहले भी अंतर्धान होती थी पर इस बार से कुछ ऐसा संयोग बना कि जब भी कुछ लिखने का आइडिया दिमाग में आया बिजली गुल। लगता है हमारे दिमाग और बिजलीघर के फ्यूज वायर का कुछ संबंध है तभी तो इधर कुछ लिखने के बारे में दिमाग पर जोर डाला, उधर बिजली गुल। शायद ज्‍यादा लोड नहीं झेल पाता।

चंबल क्षेत्र में बारिश के मौसम में बाजरे की फसल बहुत होती है। पर हर साल की तरह इस बार भी बारिश कम हुई तो किसानों के मुंह लटक गए। पर हमें क्‍या ! हम न तो बाजरा उगाते हैं, न खाते हैं। हम क्‍या जानें किसानों का दर्द। पर जबसे बिजली मैया ने हमें तरसाना शुरू किया तब हमें जाकर किसानों का दर्द समझ में आया कि कैसे वो टकटकी लगाकर बादलों का इंतजार करते हैं। वैसे भी भारत में बिजली और मानसून में बहुत समानता है। किसान लोग फसल के लिए मानसून की बाट जोहते हैं और दूसरे शहरी लोग अपने रोजमर्रा के कामों के लिए बिजली की। वैसे आजकल हमारे प्रदेश की सत्‍ताधारी पार्टी भी अपने विकास कार्यों की ढपली बजाते हुए विकास शिविर लगाकर लोगों को बता रही है कि पिछले समय में प्रदेश में कितना धुंआधार विकास हुआ है। पर लोगों को उनकी बात समझ में ही नहीं आती उन्‍हें तो 24 घंटे बिजली चाहिए। चौबीस घंटे तो भैया सूर्य देव भी अपना प्रकाश नहीं देते फिर ये तो बिजली है।

हमारे दिमाग में यकायक एक खयाल आया कि क्‍यों न गुलजार साब को ही एक चिट्ठी लिख दें। सुना है हाल ही में उन्‍होंने माचिस की बजाय जिगरे से बीड़ी जलाने का तरीका ईजाद किया है। उसी तरह उनसे गुजारिश कर दें कि बिना बिजली के हिन्‍दी ब्‍लागर्स के लिए भी ब्‍लागिंग करने का कोई फार्मूला निकालें। वैसे भी उनका हिन्‍दी के विकास में बड़ा योगदान है। थोड़ा और सही। पर हमें इधर भारतीय डाक विभाग पर भरोसा नहीं रहा कि वो हमारी चिट्ठी पहुंचा ही देगा या लेटरबाक्‍स में पानी भरने से उसका राम नाम सत्‍त हो जाएगा। सो ब्‍लागर बंधुओं से भी गुजारिश है कि वे भी अपने स्‍तर पर प्रयास करके ये संदेश गुलजार साब तक पहुंचाएं।

खैर एकमात्र खुशी की बात यह है कि अभी-अभी हमारे निकटवर्ती शहर के ब्‍लागर मित्र प्रतीक पाण्‍डे की तरफ से एक सुझाव आया है। उन्‍होंने बड़ी नेक सलाह दी है कि जब भी कोई नया आइडिया दिमाग में कुलबुलाए उसे डायरी पर नोट कर लीजिए। फिर जब भी बिजली मैया की कृपा हो तो टुकड़ों-टुकड़ों में उसे टाइप कर डालिए और कर दीजिए पोस्‍ट। सो प्रतीक भाई की सलाह मानकर यह पोस्‍ट लिखी जा सकी है। इसलिए इसका श्रेय भी उन्‍हीं को दिया जाना चाहिए। हां, यदि गलती से आपको ये पोस्‍ट अच्‍छी लगे तो श्रेय अपुन को भी दिया जा सकता है।:)