Sunday, November 25, 2007

मौसेरे भाईयों का दुख- अजी सुनिये तो!

वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी खेमे में मंथन हो रहा है कि चूक कहां हुई। पहले उधर वाम वाले तहलका के खुलासे पर शेम-शेम चिल्‍ला रहे थे। अब इनके विरोधियों को भी बांछें खिल गईं। लव ट्रएंगल वाली फिल्‍म में जैसे ही दूसरी हीरोइन एंट्री मारती है सबका ध्‍यान पहली को छोड़ उस तरफ चला जाता है। दक्षिणपंथी खेमें में तालियां बज रही हैं। जनता इनके नंगेपन को झेलने के बाद उनके नंगेपन का तमाशा देखने को मजबूर है। नंगापन भी ऐसा कि जनता पाकिस्‍तान, म्‍यांमार सब भूल जाए। पर टीवी-मीडिया वाले किसी को नहीं छोड़ते। वे सबकी लंगोटी खींच रहे हैं- वाम हो या दाम। इधर एक कहता है- वाह खूब लपेटा साले को, अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। तब तक उसकी खुद की लंगोटी पे बन आती है। लंगोटी उतारने के इस खेल से दोनों परेशान हैं। पर उन्‍होंने भी ठान ली है- लंगोटी भले छूट जाए पर कुर्सी नहीं छोड़ेंगे।

वहां दक्षिण में भी खूब तमाशा हुआ और सब तरफ शोर मचा कि गठबंधन धर्म की मर्यादा तार-तार हो गई। पता नहीं किस धर्म और किसकी मर्यादा की लोग बात करते हैं। भैया गठबंधन धर्म तो वो थाली है जिसमें एक में ही चार यारों को अपना पेट भरना है तो खेंचमखेंच तो मचनी ही है। लोकतंत्र की इस थाली में से जो ज्‍यादा भकोस पाता है वो तो मस्‍त और जो भूखा रह जाता है वो भरे पेट वाले की कुर्सी खेंचने लगता है। पर इस बार कर्नाटक में नये टाइप का तमाशा हुआ। बाप-बेटे दोनों जीमने बैठे और भरपेट खाने के बाद दूसरों का हिस्‍सा लेकर ये जा और वो जा।

बहरहाल वापस आते हैं वाम और दाम पर। हमेशा एक-दूसरे को चबा जाने वाली नजरों से देखने वाले वामपंथी और दक्षिणपंथी एक ही समय में मीडियाई हमले से हलाकान हैं। पहले लाल झंडे वाले गुजरात का नाम ले-लेकर भगवाधारियों को ढाई हजार गालियां देकर ही भोजन करते थे। पर जब नंदीग्राम की आग फिर भड़क उठी तो दक्षिणपंथियों के हाथ बैठे-ठाले बटेर लग गई। पर समस्‍या यहां पैदा हो गई कि एक ही समय पर जनता दोनों के नंगेपन से बखूबी परिचित हो गई। वैसे शुबहा पहले भी नहीं था पर आंखों देखे और कानों सुने सच की बात ही कुछ और है। चुनाव के ऐन पहले ही भगवा ब्रिगेड के कर्णधारों ने प्रेमपूर्वक अपने अमृत-वचनों की धारा प्रवाहित कर अपने सुकर्मों से जनता को परिचित कराया। उधर लाल झंडे वाले की हालत नशे में चूर उस शराबी जैसी हो गई जो चौराहे पर खुद ही अपने कपड़े फाड़कर जनता को गर्वभरी नजरों से ललकारता है- टुच्‍चों है किसी में इतना दम ! देश की जनता दोनों को देख रही है। उधर बुद्धिजीवी नामक प्राणियों की जमात दोनों को ही अपने तराजू में तौल कर देख रही है और आश्‍चर्यजनक रूप से तराजू के दोनों पलड़े बराबरी पर आ रहे हैं।

भगवा और लाल रंग में वैसे भी कोई खास फर्क नहीं है। और अब तो दोनों ने ही अपने झंडे खून में रंगकर ये रहा-सहा फर्क भी मिटा दिया। मुझे एक कहावत याद आ रही है- चोर-चोर मौसेरे भाई। ऐसे ही अटूट बंधन में ये भी बंध चुके हैं। पर जनता बेचारी दोनों को चोर-चोर मौसेरे भाई भी नहीं कह पा रही है क्‍योंकि दोनों ही अब जनता के पैसे की चोरी-चकारी, भ्रष्‍टाचार, दलाली आदि में अपना ज्‍यादा समय जाया नहीं करते अब इनके धंधे थोड़े ऊंचे लेवल के हैं। पर फिर भी दोनों परेशान दिखते हैं। एक कहता है- पकड़ो साले को ये है सबसे बड़ा दुष्‍ट। तब तक दूसरा वाला शेम-शेम चिल्‍लाने लगता है। पर जनता किसी की नहीं सुन रही उसे सब पता है। इसलिए दोनों परेशान हैं। उधर जनता भी परेशान है जो इनकी नंगई पर हंस भी नहीं पा रही है।

मौसेरे भाईयों का अपनापा देखना हो तो अपने बुश और मुश से बेहतरीन उदाहरण दुनियां में हो ही नहीं सकता। दुनियां उन्‍हें कितनी ही गालियां दे पर दोनों बेखबर होकर अपनी ही धुन में- ये दोस्‍ती हम नहीं छोड़ेंगे गाने में व्‍यस्‍त हैं। दुनियां कह रही है कि मुश ने लोकतंत्र का गला घोंट डाला और बुश भईया लोकतंत्र की बेहतरी के लिए कार्य करने के उनकी लिए पीठ थपथपा रहे हैं। जितनी वे पीठ थपथपा रहे हैं, उतनी ही लोकतंत्र की कब्र और गहरी होती जा रही है।

पर च्‍चच्-च्‍च्‍च् हमारे बेचारे वाम और दाम वे एक-दूसरे की पीठ तो नहीं ना थपथपा सकते न ! बस ढेला ही फेंक सकते हैं। पर टीवी, मीडिया, कैमरा, तकनीक की किचिर-पिचिर के कारण इतनी कीचड़ हो गई है कि सारी की सारी उनके मुंह पर ही आ रही है और वे मुंह छिपा भी नहीं पा रहे हैं।

Monday, November 19, 2007

ज्ञानजी की बारामासी: वाह क्या कहने !

वाकई समकालीन व्‍यंग्‍य लेखकों में ज्ञान चतुर्वेदीजी का जवाब नहीं! अपनी अनोखी शैली वाले व्‍यंग्‍य बाणों के लिए सुविख्‍यात ज्ञानजी ने व्‍यंग्‍य-उपन्‍यास जैसी विधा में जिस प्रकार से कलम चलाई है, वह अद्भुत है। ज्ञानजी ने अपने ज्ञान-चक्षुओं से जिस प्रकार अपने समाज, परिवेश, लोक आदि का अध्‍ययन किया है उसे बेहतरीन ढंग से अपने लेखन में उतारा है। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले उनके लेख तो हिंदी पाठकों में लोकप्रिय हैं ही। इस बार आपका परिचय कराते हैं उनके व्‍यंग्‍य उपन्‍यास बारामासी से।

बारामासी कहानी है बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्‍बे अलीपुरा में रहने वाले एक निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार की। परिवार के सदस्‍य, उनके सपने, उन्‍हें किसी भी प्रकार से पूरा करने की चाहत, उनमें व्‍याप्‍त विसंगतियों, कुंठाओं के माध्‍यम से लेखक ने एक आम बुंदेलखण्‍डवासी के जीवन के विभिन्‍न पहलुओं को बड़े रोचक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। परिवार में चार भाई, उनकी मां और एक बहन है जिसकी शादी नहीं हो पा रही है। परिवार के सदस्‍यों के कुछ सपने हैं जिन्‍हें पूरा करने की जुगत भिड़ाते हुए जीवन की किन-किन और कैसी भी राहों से गुजरते हुए वे अपनी मंजिल पर पहुंचने के अरमान संजोये हुए हैं। अब छुट्टन को ही देख लीजिए किस प्रकार से वे अपनी पढ़ाई और प्रेम की पटरी बैठा रहे हैं-

छुट्टन का फिलहाल इरादा किसी भी तरह इंटर करने तथा बिब्‍बो के प्‍यार को और परवान चढ़ाने का था। इंटर के लिए उन्‍होंने किताबें न खरीदकर यह पता करना शुरू कर दिया था कि इस वर्ष किस गांव का प्रिंसिपल पैसा लेकर सामूहिक नकल कराने वाला है। और, दूसरे पवित्र उद्देश्‍य की पूर्ति हेतु उन्‍होंने कुछ शेरो-शायरी की किताबें कबाड़ लीं थीं, जिनसे मारक शेर टीपकर वे प्रेम-पत्रों में अपेक्षित वजन पैदा करते थे।

छुट्टन की पटरी बैठ भी जाती है-

छदामी ने बताया कि ग्राम रहटी, तहसील अलीपुरा में एक भला आदमी प्रिंसिपल बन गया है। संयोग से उसके पांच लड़कियां हैं। आदमी गऊ है, पर दूध बेचकर तो दहेज जुटता नहीं। आदमी गऊ है सो रेट भी फिक्‍स नहीं कर रखी है- जो जितना दे दे, ले लेता है। नकल की माकूल व्‍यवस्‍था स्‍कूल में कर रखी है। क्‍योंकि आदमी एकदम गऊ है तो कोई शिकायत नहीं करता।

बाकी के अन्‍य भाईयों ने भी कुछ लक्ष्‍य तय कर रखे हैं पर मामला उनके हिसाब से फिट ही नहीं हो पा रहा है।

परिस्थिति और घटना किसी भी प्रकार की हो, उसे व्‍यक्‍त करने का ज्ञानजी का अपना अंदाज है।-

अलीपुरा में जिसे मरना होता, वह गर्मियों की प्रतीक्षा करता। वैसे सर्दियों और बरसात आदि में भी आदमी के मरने का माकूल इंतजाम था और वह बाढ़, सांप के काटने, निमोनिया आदि से मर सकता था, परंतु गर्मियों में अवसर स्‍वर्णावसरों की भांति मिलते। हैजा फैल जाता और कुछ मर जाते। पेचिश होती और रामलाल की बहू, जो रामलाल द्वारा रोज लात-घूंसों की वज्र मार मारे जाने पर भी नहीं परी थी, पेचिश से मर जाती।

बुंदेलखण्‍ड के लोगों की फिलासफी है आल्‍हा की वह पंक्ति- जिनके बैरी चैन से सोवें, उसके जीवन को धिक्‍कार। अपराध के बारे में वहां के लोगों की अपनी अलग धारणाएं हैं। सामान्‍यतया सोच यह है कि मर्डर अपराध नहीं बल्कि बैरी से बदला लेकर जनम सफल करने का साधन मात्र है। लोगों में आत्‍मसम्‍मान की भावना बहुत प्रबल है और इसके लिए किसी को लुढ़का देना गलत नहीं माना जाता। लट्ठबाजी, मारपीट, किसी का सिर फोड़ देना, किसी के पेट में चक्‍कू घुसेड़कर घुमा देना और फौजदारी के मामले में कोर्ट-कचहरी के चक्‍कर लगाने वालों को वहां सम्‍मान के साथ देखा जाता है। तभी तो छुट्टन और छदामी दोनों लालारामजी की गुंडागर्दी, ल‍ट्ठबाजी, डकैती, मर्डरों की चर्चा ऐसे आदर के साथ करते हैं जैसे नेहरू या गांधी की जीवनी के प्रेरक-प्रसंगों की चर्चा कर रहे हों।

यहां तो अपराध बाद में करते हैं, पहले जमाने भर को बता देते हैं। रात में दो बजे भी कत्‍ल कर के आ रहे हैं तो रास्‍ते में सभी दोस्‍तों और रिश्‍तेदारों का जगा-जगाकर बताते आते हैं कि आज जटाशंकर को टपका दिया। जेबकटी जैसे टुच्‍चे धंधों को ये अपनी शान के विरुद्ध मानते हैं।

झांसी में जन्‍में और वहीं अपने जीवन का शुरूआती हिस्‍सा बिताने वाले लेखक ने बुंदेलखण्‍डी जीवन के विभिन्‍न पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए इस बात को ध्‍यान में रखा है कि कहानी में रोचकता बनी रहे। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इस मजेदार किस्‍सागोई में उन्‍होंने अपने बुंदेलखण्‍डी जीवन के अनुभव समेटे हैं। उनका हास्‍यबोध लाजवाब है। मेरे हिसाब से एक व्‍यंग्‍य लेखक की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस हद तक गंभीर व्‍यंग्‍य को हास्‍य की चाशनी में लपेट पाता है और ज्ञान चतुर्वेदी बारामासी में व्‍यंग्‍य के साथ-साथ पढ़ने वाले को हंस-हंसकर लोटपोट हो जाने को मजबूर कर देते हैं।

लंदन के इंदु शर्मा सम्‍मान से पुरस्‍कृत लेखक की यह कृति यकीनन व्‍यंग्‍य में रुचि रखने वालों के लिए एक नायाब तोहफा है।

पुस्‍तक- बारामासी
लेखक- ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्‍य- 95 रुपये
(पेपरबैक संस्‍करण)