वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी खेमे में मंथन हो रहा है कि चूक कहां हुई। पहले उधर वाम वाले तहलका के खुलासे पर शेम-शेम चिल्ला रहे थे। अब इनके विरोधियों को भी बांछें खिल गईं। लव ट्रएंगल वाली फिल्म में जैसे ही दूसरी हीरोइन एंट्री मारती है सबका ध्यान पहली को छोड़ उस तरफ चला जाता है। दक्षिणपंथी खेमें में तालियां बज रही हैं। जनता इनके नंगेपन को झेलने के बाद उनके नंगेपन का तमाशा देखने को मजबूर है। नंगापन भी ऐसा कि जनता पाकिस्तान, म्यांमार सब भूल जाए। पर टीवी-मीडिया वाले किसी को नहीं छोड़ते। वे सबकी लंगोटी खींच रहे हैं- वाम हो या दाम। इधर एक कहता है- वाह खूब लपेटा साले को, अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। तब तक उसकी खुद की लंगोटी पे बन आती है। लंगोटी उतारने के इस खेल से दोनों परेशान हैं। पर उन्होंने भी ठान ली है- लंगोटी भले छूट जाए पर कुर्सी नहीं छोड़ेंगे।
वहां दक्षिण में भी खूब तमाशा हुआ और सब तरफ शोर मचा कि गठबंधन धर्म की मर्यादा तार-तार हो गई। पता नहीं किस धर्म और किसकी मर्यादा की लोग बात करते हैं। भैया गठबंधन धर्म तो वो थाली है जिसमें एक में ही चार यारों को अपना पेट भरना है तो खेंचमखेंच तो मचनी ही है। लोकतंत्र की इस थाली में से जो ज्यादा भकोस पाता है वो तो मस्त और जो भूखा रह जाता है वो भरे पेट वाले की कुर्सी खेंचने लगता है। पर इस बार कर्नाटक में नये टाइप का तमाशा हुआ। बाप-बेटे दोनों जीमने बैठे और भरपेट खाने के बाद दूसरों का हिस्सा लेकर ये जा और वो जा।
बहरहाल वापस आते हैं वाम और दाम पर। हमेशा एक-दूसरे को चबा जाने वाली नजरों से देखने वाले वामपंथी और दक्षिणपंथी एक ही समय में मीडियाई हमले से हलाकान हैं। पहले लाल झंडे वाले गुजरात का नाम ले-लेकर भगवाधारियों को ढाई हजार गालियां देकर ही भोजन करते थे। पर जब नंदीग्राम की आग फिर भड़क उठी तो दक्षिणपंथियों के हाथ बैठे-ठाले बटेर लग गई। पर समस्या यहां पैदा हो गई कि एक ही समय पर जनता दोनों के नंगेपन से बखूबी परिचित हो गई। वैसे शुबहा पहले भी नहीं था पर आंखों देखे और कानों सुने सच की बात ही कुछ और है। चुनाव के ऐन पहले ही भगवा ब्रिगेड के कर्णधारों ने प्रेमपूर्वक अपने अमृत-वचनों की धारा प्रवाहित कर अपने सुकर्मों से जनता को परिचित कराया। उधर लाल झंडे वाले की हालत नशे में चूर उस शराबी जैसी हो गई जो चौराहे पर खुद ही अपने कपड़े फाड़कर जनता को गर्वभरी नजरों से ललकारता है- टुच्चों है किसी में इतना दम ! देश की जनता दोनों को देख रही है। उधर बुद्धिजीवी नामक प्राणियों की जमात दोनों को ही अपने तराजू में तौल कर देख रही है और आश्चर्यजनक रूप से तराजू के दोनों पलड़े बराबरी पर आ रहे हैं।
भगवा और लाल रंग में वैसे भी कोई खास फर्क नहीं है। और अब तो दोनों ने ही अपने झंडे खून में रंगकर ये रहा-सहा फर्क भी मिटा दिया। मुझे एक कहावत याद आ रही है- चोर-चोर मौसेरे भाई। ऐसे ही अटूट बंधन में ये भी बंध चुके हैं। पर जनता बेचारी दोनों को चोर-चोर मौसेरे भाई भी नहीं कह पा रही है क्योंकि दोनों ही अब जनता के पैसे की चोरी-चकारी, भ्रष्टाचार, दलाली आदि में अपना ज्यादा समय जाया नहीं करते अब इनके धंधे थोड़े ऊंचे लेवल के हैं। पर फिर भी दोनों परेशान दिखते हैं। एक कहता है- पकड़ो साले को ये है सबसे बड़ा दुष्ट। तब तक दूसरा वाला शेम-शेम चिल्लाने लगता है। पर जनता किसी की नहीं सुन रही उसे सब पता है। इसलिए दोनों परेशान हैं। उधर जनता भी परेशान है जो इनकी नंगई पर हंस भी नहीं पा रही है।