Saturday, July 31, 2010

चरणस्‍पर्श और इमेज-बिल्डिंग

मेरे एक रिश्‍तेदार ने जब बताया कि फलांजी आपकी बहुत तारीफ कर रहे थे...मुझे उत्‍सुकता हुई तो मैंने और पूछा तो उन्‍होंने उन फलांजी के मुंह से की गई तारीफ के पुलिंदे खोल दिए....मुझे लगा फलांजी मेरी इतनी तारीफ क्‍यों कर सकते हैं ?
वे फलां सज्‍जन हमारी जिला अदालत में सीनियर एडवोकेट हैं जिन्‍हें मैं काफी पहले से जानता हूं...पर वे मुझे नहीं जानते थे....एक दिन वे घर जाने के लिए किसी रिक्‍शे वगैरह का इंतजार कर रहे थे....मुझे वे दिख गए मैंने उनके चरणस्‍पर्श किए और गाड़ी में बैठने को कहा...वे अपने साथी महोदय के साथ बैठ गए...उन साथी महोदय ने उनका मुझसे परिचय कराया...बातें हुईं रास्‍ते में ही उनका घर था....उतरते समय मैंने फिर से खासतौर पर उनके चरणस्‍पर्श किए....अब इसमें खास बात क्‍या है मुझे तो कुछ समझ नहीं आया....पर इस चरणस्‍पर्श के चमत्‍कारिक प्रभाव मैंने और भी जगह देखे...कुल मिलाकर जिनके चरणस्‍पर्श मैं किया करता हूं उन सबकी राय मेरे बारे में एक सुसंस्‍कारी और बहुत अच्‍छे बालक की हो गई....वैसे चरणस्‍पर्श करने को मैं एक औपचारिकता से ज्‍यादा नहीं मानता और ना ही अब तक मेरी नजर में चरणस्‍पर्श जैसी बातों की कोई अहमियत थी....चरणस्‍पर्श को हमेशा से ही मैं दकियानूसी परंपरा मानता था और अब भी मानता हूं पर अब अंदर से कुछ और होते हुए भी बाहर कुछ और दिखावा करने की आदत-सी बन गई है.....अब जितने भी लोगों के आप चरणस्‍पर्श करते हैं उनमें से कई ऐसे भी होंगे जो चरणस्‍पर्श कराने की बजाय जूते खाते हुए लोगों को नजर आयें तो लोग कहें- ठीक रहा, साले के साथ यही होना चाहिए था...पर फिर भी ऐसे लोग चरणस्‍पर्श कराने का सुख पा जाते हैं...
मेरे एक सीनियर हैं जो चरणस्‍पर्श करने में इतने महारथी हैं कि हमें उनसे दूर रहना पड़ता है....पता नहीं कब कोई उन्‍हें सामने नजर आये और उसके चरणों में झुक जायें और इसी कारण वे अपना काम भी बड़ी आसानी ने निकाल लेते हैं....साथ होने के कारण हमें भी ये करना पड़ता है
व्‍यक्तिगत रूप से मैं इस परंपरा को बिलकुल ठीक नहीं मानता हूं...कारण बहुत सारे हैं....मैं स्‍वयं किसी से पैर छुआना पसंद नहीं करता....चाहे छोटा बच्‍चा हो....कभी-कभार बराबर के लोग भी रिश्‍तेदारी वगैरह टाइप का संबंध होने के कारण भी पैर छूने पर उतारू हो जाते हैं तो उनको रोकना पड़ता है...
ये कहने की जरूरत नहीं कि आचार और व्‍यवहार में तो हम लोग बहुत बड़े ढोंगी हैं....पर अभिवादन जैसे छोटे-मोटे मुद्दों पर भी हम ढोंग करने से बाज नहीं आते....हालांकि मैं स्‍वयं भी ऐसा ही करने लगा हूं कुछ समय से....पर कुछ मजबूरी कहें या कुछ और पर अब एक आदत-सी बन गई है....पहले मैं चाहे जिस व्‍यक्ति के चरण-स्‍पर्श नहीं कर पाता था....जिस व्‍यक्ति की मैं दिल से इज्‍जत करता था और जो मुझे इस काबिल लगता था उसके ही चरणों में झुकता था...इसीलिए मुझे इस परंपरा का पालन करने की कोई बड़ी खास जरूरत नहीं होती थी....ये भी गलतफहमी थी कि जिन गिने-चुने व्‍यक्तियों के मैं पैर छूता हूं जिनको इस काबिल समझता हूं उनके पैर ना भी छुऊं तो वे इतने समझदार हैं कि वे इसे अन्‍यथा कतई नहीं लेंगे....पर शायद ऐसा नहीं है....बाकियों के पैर छूने की गलती तो शायद मैं कभी-कभार मजबूरी में ही करता था....हालांकि रिश्‍तेदारों की गिनती इसमें शामिल नहीं है...उनके पैर तो हमें छूना ही है....
पर स्‍टूडेंट लाइफ के बाद से सामाजिक जीवन में जो गहराई से घुसपैठ हुई उसके बाद से मैंने इसे बहुत बड़ा मुद्दा मानना बंद कर दिया....जो भी बड़ा है, बुजुर्ग है, सीनियर है उसके पैर छूने से पहले और ना ही बाद में सोचने की कुछ जरूरत पड़ती है...बस छू लेते हैं...भला ही सामने वाला कुछ भी हो....और वैसे भी ये ढोंगी समाज ढोंग करने को ही मान्‍यता देता हो और वे ढोंगी ही आपके बुजुर्ग और सम्‍माननीय लोगों की कतार में हों तो ऐसे में आदमी के पास रास्‍ता ही क्‍या बचता है....खैर छोटी-सी बात को ज्‍यादा गंभीरता की ओर ना ले जाकर अपना बस इरादा है छोटी सी बात को कहना कि चलो कम से कम इस आदत से एक बात तो हुई कि लोगों का अपने बारे में नजरिया बेहतर बना...
हालांकि फिर भी बहुत से लोग हैं जिनका मैं दिल से सम्‍मान करता हूं और इसी कारण से उनके चरणस्‍पर्श जरूर करता हूं इसके बावजूद ऐसे बहुत से लोगों के भी चरणस्‍पर्श करता हूं जिनमें मन तो जूते देने का होता है पर उनसे संबंधों के आंकड़े इस कदर उलझे हैं कि ये सब करना ही पड़ता है...ये बात अलग है कि उन्‍होंने मेरे प्रति ऐसा कुछ नहीं किया कि मैं व्‍यक्तिगत कारणों से ऐसा सोचूं.....हालांकि पूरी तरह से इन सब चीजों का आदी नहीं हो पाया हूं पर कोशिश कर रहा हूं क्‍योंकि हिंदुस्‍तान में रहकर सौ में से निन्‍यानवे बेईमानों से हमको काम पड़ना है....और फिर आप ऐसे देश में रहते हैं जहां पैर छूने वाले और दुम हिलाने वाले प्रधानमंत्री और राष्‍ट्रपति तक की नौकरी पा जाते हैं( जी हां नौकरी, क्‍योंकि असली कुर्सी पर जो है उसके तो ये सब चाकर ही हैं)...ऐसे देश में रहकर देश की परंपरा को थोड़ा-बहुत तो बजाना ही पड़ेगा...बाकी जिस दिन ये कला बहुत अच्‍छी तरह सीख गया उस दिन शायद मैं नेता भी बन जाऊंगा.

Friday, July 30, 2010

क्‍या आप अपनी मनपसंद फिल्‍में देख पाते हैं


आज दिन में टीवी पर 'वन्‍स अपॉन ए टाइम इन मुंबई' का रिव्‍यू आ रहा था शाम को सड़क पर टहलते समय पोस्‍टर भी दिखा...फिल्‍में अक्‍सर देखता नहीं हूं पर आसपास से, समाचारों से या एफ एम चैनलों पर आने वाली फिल्‍मों के गाने सुनकर इतना तो पता रहता ही है कि कौन-सी फिल्‍में रिलीज होने वाली हैं, क्‍या स्‍टार-कास्‍ट है, निर्देशन किसका है क्‍या थीम है...
खैर वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबई का ट्रेलर जबसे देखा उसको देखने की इच्‍छा बनी हुई है...एक खास कारण ये भी कि उसमें प्राची देसाई अभिनय कर रही हैं जिनकी एक्टिंग के बारे में तो क्‍या कहें पर उनको पर्दे पर देखना बड़ा अच्‍छा लगता है बड़ी क्‍यूट हैं, फिल्‍म के गाने भी सुनने में और देखने में भी अच्‍छे लग रहे हैं.....पर एक तो शहर के फटीचर और टूटे-फूटे सिनेमाघर, ऊपर से आजकल साथ जाने वाला भी कोई नहीं.....दोस्‍त सब शहर से बाहर, बचे-खुचे व्‍यस्‍त....फिल्‍म देखने की किसी को फुर्सत नहीं....फिर भी साल-दो साल में शहर के किसी सिनेमाघर के दर्शन कर ही लेते हैं....
ऊपर से एक नया बवाल....जबसे मल्‍टीप्‍लेक्‍स में फिल्‍म देखी है तबसे शहर के सिनेमाघरों में जाने का मन बिलकुल भी नहीं होता....वैसे भी कौन-सा जाते ही थे....एक दिन गलती से चले गये...बहुत सी फिल्‍में देखने की इच्‍छा रहती है पर नहीं देखते...राजनीति छोड़नी नहीं थी सो एक छुट्टी वाले दिन चले गये....बड़ी मुश्किल से टिकट लेकर बालकनी में पहुंचे....एक भाईसाहब जो साथ आये थे उन्‍होंने कहा कि पिक्‍चर काफी निकल गई....बहुत देर तक बैठने की जगह ढूंढ़ते रहे....काफी समय बाद सोचा चलो नीचे हॉल में देखते हैं....वहां जगह मिल गई....कैटरीना कैफ को सोनिया गांधी समझकर फिल्‍म देखने आई ऑडियंस के हल्‍ले में सुनाई भी मुश्किल से दे रहा था..ऊपर से सिनेमाघर का साउंड सिस्‍टम और पिक्‍चर क्‍वालिटी भी बहुत धांसू थे...कुल मिलाकर पिक्‍चर तो खैर उतनी अच्‍छी लगी नहीं...पर उससे ज्‍यादा मलाल रहा बालकनी का टिकट लेकर हॉल में बैठकर पिक्‍चर देखने से...ऊपर से पिक्‍चर बहुत ध्‍यान लगाकर देखनी पड़ रही थी इतने घटिया साउंड सिस्‍टम और दर्शकों के हल्‍ले में....
बारहवीं में या कॉलेज में जब थे तब जरूर उन सिनेमाघरों की अहमियत हमारे लिए पीवीआर या एडलैब्‍स से कम नहीं थी...अब तो कोई पैसा देकर भी देखने को कहे तो सोचेंगे....
सीडी और डीवीडी भी फिल्‍म देखने का ठीक-ठाक जरिया है .... आज सुबह से सोच रहे हैं कि उड़ान की सीडी लेकर आयेंगे पर अब ब्‍लॉग लिखते समय याद आ रहा है कि सुबह ऐसा सोचा था....ठीक है एक आईडिया और है फिल्‍म देखने का, कुछ वेबसाइट ऑनलाइन फिल्‍म दिखाने की सुविधा भी देती हैं....गुलाल ऐसे ही देखी थी...तो सोचते हैं कि ऑनलाइन ही देखेंगे....पर ऑनलाइन भी साल या छह महीने में एकाध का औसत है...
आगे पीपली लाइव रिलीज होनी है....उसका भी इंतजार हो रहा है....
एक समस्‍या ये भी है कि फिल्‍म रिलीज के आसपास नहीं देख पाने से कुछ समय बाद देखने की इच्‍छा ही खतम हो लेती है....लगता है अब क्‍या देखें फिल्‍म में, देखने के लिए कुछ खास है ही नहीं....खास क्‍यों नहीं है इसका कारण भी सुन लीजिए...गाने सुन चुके, रिव्‍यू कई सारे पढ़ चुके, फिल्‍म की स्‍टोरी भी पता लग गई...अब कहीं फिल्‍म पिट गई या अपने टाइप की नहीं तो क्‍या देखना ऐसी फिल्‍म.....अपने टाइप की बोले तो जिन्‍हें लोग आजकल मल्‍टीप्‍लेक्‍स सिनेमा कहते हैं या छोटी स्‍टार-कास्‍ट और डिफरेंट सब्‍जेक्‍ट पे बनी फिल्‍में....मतलब शाहरुख, सलमान, रितिक टाइप बड़ी फिल्‍मों का तो अपन रिव्‍यू तक नहीं पढ़ते....क्‍यूंकि अपने लिए तो के.के.मेनन, विनय पाठक, राहुल बोस या कोंकणा सेन ही सब कुछ हैं....बाकी सो-काल्‍ड स्‍टार कहे जाने वालों की फिल्‍म में देखने लायक कुछ हुआ तो रिव्‍यू पढ़कर ही फारिग हो लेते हैं देखने की नौबत तो बहुत मुश्किल से आती है....
हालांकि फैमिली के साथ लिविंग रुम में हर टाइप की, गोविदा स्‍टायल हो या साउथ का नागार्जुन सबकी फिल्‍में अच्‍छी लगती हैं...
पर हर बार नयी फिल्‍में रिलीज होती हैं...हम सोचते हैं कि अब देखेंगे या अबकी वीकेंड तो पक्‍का देखना ही है...पर हाय रे स्‍टार्स जिनकी बदकिस्‍मती से हम जैसे दर्शक उनको नसीब नहीं हो पाते... कारण शहर में कोई मल्‍टीस्‍क्रीन और सुविधायुक्‍त सिनेमाघर है नहीं, डीवीडी की दुकान तक जाने की जहमत हमने अरसे से उठाई नहीं और इंटरनेट भी हमारा इतना मरियल है कि बहुत जल्‍दी हांफने लगता है.....फिल्‍म रिलीज होकर पुरानी हो लेती है....फिर नयी फिल्‍में रिलीज होने का इंतजार करते हैं....फिर वो भी पुरानी हो जाती हैं....फिर इंतजार
लगता है आलसी प्रवृत्ति काम से लेकर मनोरंजन तक सबमें घुस गई है....चलूं अपने एक मित्र हैं उनसे कुछ टिप्‍स लूं....बेचारे बड़ी मेहनत करके बॉलीवुड की हर नयी रिलीज देखते हैं...काम भले रुक जाये पर फिल्‍म देखना नहीं छूटता...शायद उनसे कुछ सीखकर महीने में एकाध ही सही फिल्‍म देखने का लुत्‍फ तो मिले