ज्यादा समय नहीं हुआ जब भाजपा ने चिल्ला-चिल्लाकर महिला आरक्षण के मामले में यूपीए सरकार को कठघरे में खडा़ किया कि वह महिला आरक्षण मामले में गंभीर नहीं दिखती और अपने संगठन में महिलाओं को आरक्षण देने की घोषणा भी की। वहीं कांग्रेस की नेता और महिला एवं बाल विकास मंत्री रेणुका चौधरी ने कहा कि सरकार इसी सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाना चाहती है। हालांकि मामला अभी तक लटका हुआ है और हो सकता है आगे भी लटका रहे। महिला अधिकारों की बात करने वालों से माफी मांगते हुए मेरा ये प्रश्न है कि क्या उन्होंने गंभीरता से कभी विचार किया है कि इस प्रकार के आरक्षण से महिलाओं की स्थिति में वाकई कुछ परिवर्तन हो सकता है ?
पहला- मेरे शहर में स्थानीय नगरपालिका में महिलाओं के लिए कुछ सीटें आरक्षित हैं और जिले में कुछ नगरपालिकाओं में कहीं-कहीं अध्यक्ष भी महिला ही हो सकती है। जिस प्रकार से चुनावों में साधारणतया ईमानदार, समाज के लिए कुछ करने का जज्बा रखने वाले कर्तव्यनिष्ठ भद्र पुरुष भाग लेने से कतराते हैं तो जाहिर है कि कोई पढ़ी-लिखी, जागरूक और अधिकारसंपन्न महिला से चुनाव लड़ने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती क्योंकि उसके पास ना तो समर्थकों के रूप में गुंडों की फौज है और ना ही वोट-बैंक या फर्जी वोट डलवाने की कूबत।
विभिन्न वार्डों के बाहुबलियों या प्रभावशाली लोग महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को ऐसे ही तो नहीं छोड़ देने वाले। ऐसे में इन दबंगों, गुंडों और बाहुबलियों के द्वारा अपनी-अपनी पत्नियों को चुनाव लड़वाना आम बात है। चुनाव में प्रचार भी इनके खुद के नाम पर ही किया जाता है और कहा जाता है कि फलानेराम चुनाव लड़ रहे हैं। कई बार तो जनता को उम्मीदवार महिला का नाम तक नहीं पता होता। यहां तक कि जीतने के बाद भी ये महिलाएं स्थानीय स्तर पर जनता की नुमाइंदगी करने की बजाय घर का चूल्हा-चौका करते ही नजर आती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं अनपढ़ होती हैं तो इन्हें अपने पद और कार्यक्षेत्र के बारे में कतई कोई जानकारी नहीं होती। ऐसे में इनके पति महोदय ही इनके नाम पर अपने क्षेत्र में अपनी राजनीति करते हैं और स्थानीय निकाय की बैठकों में भी भाग लेते देखे जाते हैं।
कल के स्थानीय अखबार ने नगरपालिका परिषद की बैठक की रिपोर्ट छापी जिसके अनुसार सभी महिला पार्षद इस बैठक में शामिल हुईं पर केवल श्रोता के रूप में जबकि बहस आदि कार्यवाही करने का काम इनके पतियों ने किया। ऐसे में इनकी महिलाओं की उस बैठक और यहां तक कि उस पद पर क्या अहमियत है।
दूसरा- मेरे पड़ौस के विधानसभा क्षेत्र की विधायक एक महिला हैं। हालांकि विधायक होने के नाते वे क्षेत्र में लोगों से मिलती-जुलती हैं और उनकी समस्याएं सुनती हैं पर हर समय उनके पति महाशय उनके साथ मौजूद रहते हैं और साफ-साफ कहें तो लोगों से बात भी वही करते हैं और बाकी सारे काम भी जो उनकी विधायक पत्नी के जिम्मे हैं और विधायक महोदया हर जगह मूकदर्शक ही बनी रहती हैं। गनीमत है कि पति महोदय विधानसभा में उनकी कुर्सी पर नहीं बैठते।
तीसरा- पास ही के जिले की एक नगरपालिका अध्यक्ष जो महिला हैं, को उनके पति महोदय के अवैध कार्यों और जमकर भ्रष्टाचार के आरोप में हटा दिया गया। जबकि अध्यक्ष महोदय जिनके ऊपर सारा कार्यभार होना चाहिए बस नाम के लिए ही थीं। अफसरों को धमकाने, उनसे मन-मुताबिक काम करवाने, नगरपालिका के फैसलों और पैसे खाने का पूरा जिम्मा उनके पति के ऊपर ही था।
महिला आरक्षण के समर्थकों का यह तर्क होगा कि पूरी तौर पर न सही कुछ तो परिवर्तन हुआ है। पर कब तक हम हर चीज में कुछ भी जैसी चीजों पर संतोष करते रहेंगे। जिस कछुआ चाल से परिवर्तन आ रहा है उससे तो शायद अभी और सौ साल लग सकते हैं स्थिति को सुधारने में। हम इस बात पर क्यों विचार नहीं करते कि और कौन से ऐसे उपाय हैं जिनसे अभी और कम से कम अगली पीढ़ी को वास्तविक अर्थों मे न्याय मिल सके।
3 comments:
भाई मुआफी चाहूंगा पर,
"मेरे पड़ौस के विधानसभा क्षेत्र की सांसद एक महिला हैं।"
बात कुछ हजम नही हुई, हम तो बचपन से पढ़ते सुनते आए हैं कि विधानसभा के सदस्य सांसद नही बल्कि विधायक कहलाते हैं।
भूल सुधार दी है संजीत भाई.
बताने के लिए धन्यवाद....
सच है। हालात बटन दबाते नहीं बदल जायेंगे। पर स्त्री-एम्पावरमेण्ट प्रारम्भ तो हो!
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