मैं स्वयं बढ़ता चलूंगा
और को मैं क्यों बुलाऊं
राह भी मैं खुद बनाऊं
चाल भी चलकर बताऊं
साथ में कोई न आये
राही चिन्ह का पत्थर बने
सदियों की सदियां गुजारे
दूसरा राही तब उसे
और थोड़ी दूर चलकर
वह भी चिन्ह का पत्थर बने
ऐसे युगों के बीतने पर
शाश्वतों की डग बने
फिर वहीं अवतार आयें
स्वयं चल कंटक डगर पर
शूल पग से सोख जायें
तब कहीं दुनियां चलेगी
सत्य शिव की राह पर
तू रोक मत डग खोदना
मत किसी की परवाह कर
स्वयं अकेला बढ़ता चल
और को तो मत बुला
ऐसे मेरे हैं विश्वास
मैं किसी को क्यों बुलाऊं
मैं स्वयं बढ़ता चलूंगा,
और को मैं क्यों बुलाऊं
- बाबू विद्यारामजी गुप्ता द्वारा दिनांक 2-2-1972 को रचित
5 comments:
हर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
नत मस्तक हूँ आपके बाबूजी की लेखनी के प्रति
वाह ! ऊर्जा का विस्तार देखने को मिला कविता में...........बधाई !
बहुत उम्दा रचना गुप्ता जी की.आभार आपका!
भुवनेश, जब रवीन्द्र चल अकेला वाला गीत लिखते हैं तो भाव उनके अकेले के नहीं होते। ये भाव हम सब महसूस करते हैं और उनको जब लिखा जाता है पद्य या गद्य में तो वह विलक्षण बनता है बहुधा। यही इस कविता में हुआ है!
बड़ा गज़ब का पोस्ट है, मज़ा आ गया .....शुभकामनाएं..
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