Wednesday, June 27, 2007
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Tuesday, June 26, 2007
Watch online Vyomkesh Bakshi old detective stories of doordarshan
Friday, June 08, 2007
झीनी झीनी बीनी चदरिया
कबीर के इन मेहनतकश वंशजों को इस बात का गर्व है कि आज भी उनकी यह कला बनारस शहर की पहचान है। यह पुस्तक एक झरोखा है जो उनके समाज की गलियों, मुहल्लों में जाकर खुलता है और हमें दर्शन कराता है बनारसी साड़ी के बुनकरों के जीवन का, उनके संघर्षों का, मशीनों के युग में भी हथकरघे की श्रेष्ठता सिद्ध करने के उनके प्रयासों का, व्यवस्था द्वारा किये जाने वाले उनके शोषण का और भी बहुत कुछ का। जो बाहरी दुनिया के लिए एकदम अनजाना ही है।
उपन्यास का कथाक्रम मुख्यत: मतीन और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें हैं उसकी बीवी अलीमुन और बेटा इकबाल। मतीन भी आम गरीब बुनकर की तरह शोषण का शिकार है, पर वह संघर्ष से डरने वाला इंसान नहीं है। वह अपनी और अपने समाज की बदहाली पर आंसू नहीं बहाता बल्कि खाली हाथ होते हुए भी इस स्थिति को बदल डालने के लिए भरसक प्रयास करता है। वह अपने बेटे इकबाल के लिए एक बेहतर भविष्य की कल्पना करता है और इसके लिए जी-तोड़ संघर्ष करता है। इस संघर्ष में समाज के लोग भी उसका साथ देते हैं। पर भ्रष्ट सरकारी संस्थाओं और सेठों व गिरस्तों का चक्रव्यूह उनके लिए भारी पड़ता है और वे अपने को असहाय पाते हैं। पर पात्रों का सबसे बड़ा जज्बा है हार न मानने का, जिसे वे बार-बार ठोकर खाने के बावजूद अंत तक चुकने नहीं देते।
साड़ी बुनकरों की जिंदगी को उनकी सामाजिक परंपराओं, रूढि़यों, विश्वासों आदि ने किस हद तक प्रभावित किया है इसका लेखक ने अच्छा विश्लेषण किया है। मुस्लिम बुनकरों के इस समाज को कुरीतियों, ढोंग, मजहब के नाम पर बने व्यर्थ के नियम-कायदों आदि ने जिस बुरी तरह जकड़ रखा है, वह भी पिछड़ेपन की इन परिस्थितियों के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार है। पर सबसे अच्छी बात है कि इसी समाज में से कुछ ऐसे लोग भी उठ खड़े होते हैं जिन्हें इस बात का भान हो चुका है कि यदि हमें उन्नति करनी है तो ये जड़वाद तोड़ना होगा और इन्हीं के कारण इस गरीब समाज ने आशा का दामन नहीं छोड़ा है। सोवियतलैंड-नेहरू पुरस्कार से सम्मानित अब्दुल बिस्मिल्लाह की यह कृति एक बेहतरीन रचना है और गरीब बुनकरों की अभावों से भरी जिंदगी पर व्यर्थ करुणा पैदा करने के बजाय संघर्ष करने के उस जज्बे को समर्पित है जो बार-बार ठोकरें खाने के बावजूद भी उनके दिलों में जिंदा है।
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्य- पचास रुपये(पेपरबैक संस्करण)
Thursday, June 07, 2007
खेती इन बॉलीवुड स्टाइल
ये लो बिग बी के बाद अब अपने देशभक्त आमिर खान भी देश की खाद्यान्न समस्या दूर करने निकल पड़े। उनकी मंशा है कि उन्हें भी पुणे में खेती के लिए जमीन मिले ताकि राजस्थान के साथ वे महाराष्ट्र में भी खाद्यान्न समस्या से निपट सकें। बाकी बालीवुड तो पहले से है ही लाइन में और हो भी क्यों न बिग बी खुद उनका नेतृत्व करने जो निकले हैं।
एक और फायदा होगा इसका कि खेती-किसानी जैसे कार्यों को स्वत: ही सेलेब्रिटी दर्जा मिल जायेगा। न्यूज चैनल का पत्रकार खेत में जाकर किसान से बात करेगा और कुछ इस प्रकार के सवाल-जवाब होंगे-
प्रश्न- कैसा महसूस कर रहे हैं आप खेती करते हुए?
उत्तर- देखौ भैया हम बस खेती करत हैं महसूस-फहसूस नाहीं करत।
प्रश्न- आजकल आपकी कौन-कौन सी फसलें फ्लोर पर हैं?
उत्तर- भैया ई फ्लोर का है?
प्रश्न- मतलब आपकी आगे कौन-कौन सी फसलें बाजार में आने वाली हैं?
उत्तर- जो फसल मौसम पे आये हैं सो ही इस बरस भी आये हैं।
प्रश्न- जब आपकी कोई फसल दूसरों की फसल से ज्यादा चलती है तो कैसा लगता है?
उत्तर- भैया ये फसल का चलना-उलना अपन नहीं जानत।
प्रश्न- क्या फसल उगाने से पहले आप जुताई आदि की कोई रिहर्सल वगैरा करते हैं?
उत्तर- भैया हम ये रिहर्सल ना जानें, हम तो बस खेती जानें हैं।
एक अंतिम सवाल- जब लोग आपको दूसरों से बेहतर हल चलाते देखकर प्रशंसा करते हैं तो कैसा फील करते हैं?
उत्तर- भैया ई में प्रशंसा की कौन बात है। हमें तो खेती करन से मतलब, हम ई प्रशंसा के फेर-फार में नहीं पड़त।
पर फिर भी मुझे नहीं लगता कि सरकार की नीयत ठीक है और हमेशा उन्नत खेती की रट लगाने पर भी वह खेती की उन्नति के लिए कुछ कदम उठायेगी।