Wednesday, June 27, 2007

Free Download or watch online old and new Hindi movies, tv serials and documentaries

आज फ़िल्म जगत और टीवी सीरियल्स से संबंधित एक बढ़िया जालस्थल का पता लगा. यदि आप नयी और पुरानी हिन्दी फ़िल्मों के शौकीन हैं तो इस जालस्थल पर आप मनपसंद फ़िल्में देख और डाउनलोड कर सकते हैं. दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक और नये सेटैलाइट चैनल्स पर दिखाये जाने वाले धारावाहिक भी यहां उपलब्ध हैं. साथ ही कई विषयों पर बनी डाक्युमेन्टरी फ़िल्में भी यहां संग्रहित हैं. म्यूजिक वीडियोज साथ ही और भी बहुत कुछ. जालस्थल पर जाने के लिये यहां चटका लगाईये.

Tuesday, June 26, 2007

Watch online Vyomkesh Bakshi old detective stories of doordarshan


याद कीजिये दूरदर्शन का वह सीरियल जिसने हिन्दी दर्शकों को पहली बार जासूसी के रोमांच से भर दिया। शरला‌क होम्स का ठेठ भारतीय संस्करण व्योमकेश बक्शी, जिसने दर्शकों के बीच अपार लोकप्रियता हासिल की। रजत कपूर के अभिनय के रूप में भारतीय जासूस का वह संस्करण आज भी लोगों को याद है। शरीर में अचानक रोमांच सा पैदा करने वाला वह पार्श्व संगीत कैसे भुलाया जा सकता है। आज तक छोटे पर्दे पर कोई भी जासूसी कार्यक्रम उसकी लोकप्रियता के इर्द-गिर्द भी नहीं पहुंचा है। व्योमकेश बक्शी के वह रोमांचक कारनामे अब आप आनलाइन भी देख सकते हैं। दूरदर्शन के कुछ अन्य पुराने कार्यक्रमों की लिंक्स मैं पहले भी यहां उपलब्ध करा चुका हूं।



व्योमकेश बक्शी आनलाइन देखने के लिये इन लिंक्स पर जायें-


Tasveer Chor







Bemisal:







Amrit ki Maut:







Balak jasoos:








इस कार्यक्रम के कुछ डाउनलोड लिंस भी यहां उपलब्ध हैं-








Friday, June 08, 2007

झीनी झीनी बीनी चदरिया

पिछली बार मैंने जिस किताब का जिक्र किया था वह बनारस शहर की खूबसूरत संस्‍कृति को एक चलचित्र की भांति हमारे सामने प्रस्‍तुत करती है। पर कमाल की बात यह है कि उसके बाद फिर से एक किताब हाथ लगी जो हमें उसी बनारस की गलियों में वापस ले जाती है। बनारस शहर को बड़ी नजदीकी से देखने वाले लेखक अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह अपनी पुस्‍तक के माध्‍यम से हमें बनारस की उस संस्‍कृति के समक्ष ला खड़ा करते हैं जहां इस शहर का एक तबका सदियों से अपनी कला के माध्‍यम से बनारस के साड़ी उद्योग की पहचान विश्‍व भर में कायम रखे हुए है। अपनी जिंदगी में आने वाली कठिनाईयों से जूझते हुए ये कलाकार किस तरह आज भी इस अद्भुत कलाकारी को जिंदा रखे हुए हैं, इसी की बानगी प्रस्‍तुत करती हुई पुस्‍तक है झीनी झीनी बीनी चदरिया


कबीर के इन मेहनतकश वंशजों को इस बात का गर्व है कि आज भी उनकी यह कला बनारस शहर की पहचान है। यह पुस्‍तक एक झरोखा है जो उनके समाज की गलियों, मुहल्‍लों में जाकर खुलता है और हमें दर्शन कराता है बनारसी साड़ी के बुनकरों के जीवन का, उनके संघर्षों का, मशीनों के युग में भी हथकरघे की श्रेष्‍ठता सिद्ध करने के उनके प्रयासों का, व्‍यवस्‍था द्वारा किये जाने वाले उनके शोषण का और भी बहुत कुछ का। जो बाहरी दुनिया के लिए एकदम अनजाना ही है।


उपन्‍यास का कथाक्रम मुख्‍यत: मतीन और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें हैं उसकी बीवी अलीमुन और बेटा इकबाल। मतीन भी आम गरीब बुनकर की तरह शोषण का शिकार है, पर वह संघर्ष से डरने वाला इंसान नहीं है। वह अपनी और अपने समाज की बदहाली पर आंसू नहीं बहाता बल्कि खाली हाथ होते हुए भी इस स्थिति को बदल डालने के लिए भरसक प्रयास करता है। वह अपने बेटे इकबाल के लिए एक बेहतर भविष्‍य की कल्‍पना करता है और इसके लिए जी-तोड़ संघर्ष करता है। इस संघर्ष में समाज के लोग भी उसका साथ देते हैं। पर भ्रष्‍ट सरकारी संस्‍थाओं और सेठों व गिरस्‍तों का चक्रव्‍यूह उनके लिए भारी पड़ता है और वे अपने को असहाय पाते हैं। पर पात्रों का सबसे बड़ा जज्‍बा है हार न मानने का, जिसे वे बार-बार ठोकर खाने के बावजूद अंत तक चुकने नहीं देते।


साड़ी बुनकरों की जिंदगी को उनकी सामाजिक परंपराओं, रूढि़यों, विश्‍वासों आदि ने किस हद तक प्रभावित किया है इसका लेखक ने अच्‍छा विश्‍लेषण किया है। मुस्लिम बुनकरों के इस समाज को कुरीतियों, ढोंग, मजहब के नाम पर बने व्‍यर्थ के नियम-कायदों आदि ने जिस बुरी तरह जकड़ रखा है, वह भी पिछड़ेपन की इन परिस्थितियों के लिए बहुत हद तक जिम्‍मेदार है। पर सबसे अच्‍छी बात है कि इसी समाज में से कुछ ऐसे लोग भी उठ खड़े होते हैं जिन्‍हें इस बात का भान हो चुका है कि यदि हमें उन्‍नति करनी है तो ये जड़वाद तोड़ना होगा और इन्‍हीं के कारण इस गरीब समाज ने आशा का दामन नहीं छोड़ा है। सोवियतलैंड-नेहरू पुरस्‍कार से सम्‍मानित अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह की यह कृति एक बेहतरीन रचना है और गरीब बुनकरों की अभावों से भरी जिंदगी पर व्‍यर्थ करुणा पैदा करने के बजाय संघर्ष करने के उस जज्‍बे को समर्पित है जो बार-बार ठो‍करें खाने के बावजूद भी उनके दिलों में जिंदा है।


प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्‍य- पचास रुपये(पेपरबैक संस्‍करण)

Thursday, June 07, 2007

खेती इन बॉलीवुड स्‍टाइल


ये लो बिग बी के बाद अब अपने देशभक्‍त आमिर खान भी देश की खाद्यान्‍न समस्‍या दूर करने निकल पड़े। उनकी मंशा है कि उन्‍हें भी पुणे में खेती के लिए जमीन मिले ताकि राजस्‍थान के साथ वे महाराष्‍ट्र में भी खाद्यान्‍न समस्‍या से निपट सकें। बाकी बालीवुड तो पहले से है ही लाइन में और हो भी क्‍यों न बिग बी खुद उनका नेतृत्‍व करने जो निकले हैं।

मुझे एक पुरानी फिल्‍म का गाना याद आ रहा है जिसमें नायक लोगों को मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती मेरे देश की धरती ओओओओओ आआआआआ....... जैसा कुछ गाकर बताता है कि भाई लोग बहुत सोना दबा पड़ा है इस धरती में निकाल लो और बन जाओ खुशहाल। पर यहां तो गंगा एकदम ही उल्‍टी बह रही है। बिग बी बालीवुड से कह रहे हैं कि आओ जितना भी कमाया है उसमें से कुछेक करोड़ अपनी धरती मां को भी अर्पित करो और किसान बनके अपनी धरती मां की और देशवासियों की सेवा करो। पर भैया ये विदेश में शूटिंग करने वाले हमेशा ही भूल जाते हैं कि हिंदुस्‍तान में अच्‍छे काम करने वालों की कौन कदर करता है। इधर हमारे मनमोहन सिंह गला फाड़ के चिल्‍ला रहे हैं कि देश को खाद्यान्‍न समस्‍या से निपटने के लिए एक और हरित क्रांति की जरूरत है पर जब कांग्रेस में ही उनको कोई नहीं पूछता तो कोई और क्‍यों पूछने लगा। फिर भी ये बेचारे फिल्‍मी लोग अपने खून-पसीने की कमाई लगाकर प्रधानमंत्री के कहने पर खेती के लिए जमीनें खरीद रहे हैं कि आगे चलकर प्रधानमंत्री को शर्मिंदा न होना पड़े कि उनकी किसी ने सुनी ही नहीं।


पर आग लगे हिंदुस्‍तान में बने उल्‍टे-सीधे कानूनों को जो कुछेक अच्‍छे लोगों को उनका काम भी ठीक से नहीं क‍रने देते। अमिताभजी ने जब उन्‍होंने सुना कि महाराष्‍ट्र के बाद उत्‍तरप्रदेश के किसान भी आत्‍महत्‍या करने लगे हैं तो वे निकल पड़े लोगों को संदेश देने कि अमीरजादों जरा बेचारे गरीब किसान की भी हालत देखो। वो बेचारा भुखमरी के कगार पर है। सरकार नहीं दे रही तो हम ही उसे थोड़ा अन्‍न उगाकर दे दें। कितनी महान भावना है ये परोपकार की। पता लगते ही उधर छोटे भाई अमर सिंह ने बुला लिया कि भाईसाहब आपने वो कहावत तो सुनी है न- चैरिटी बिगिंस एट होम। अमिताभ भी समझ गये कि जब खुशहाली लानी ही है तो क्‍यों न पहले अपने ही घर को खुशहाल बनाया जाये और कूद पड़े हल लेकर बाराबंकी में। पर छोटे भाई का तो कर्तव्‍य ही है बड़े भाई की सेवा करना। सो छोटे भैया बोल पड़े कि आप कहां यहां उत्‍तरप्रदेश में फंसे हैं। यहां का काम तो हम देख ही रहे हैं आप जाईये आपका कार्यक्षेत्र बड़ा है, खुशहाली की ये लहर बाकी देश में भी चलाईये। बिग बी को बात जंच गई सो वो लगे पुणे में जुताई करने। पर उधर उनके बाडी गार्ड जैसे भाई के बुरे दिन आये तो क्‍या यूपी और क्‍या महाराष्‍ट्र दोनों जगह से उन्‍हें नोटिस मिल गया कि बंद करिए ये बालीवुडिया खेती और खिसकिए यहां से। जाकर सिनेमा में लोगों का मनोरंजन करिए। अब पूरा प्रशासन पड़ा है उनके और बालीवुड के पीछे डंडा लेके कि इतनी सालों से हमने इस देश में खुशहाली को फटकने भी नहीं दिया और तुम सालों खुशहाली लाकर, ज्‍यादा अन्‍न उगाकर हमें बदहाल करना चाहते हो।

मेरे ख्‍याल से माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय को इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए और यह आदेश पारित करना चाहिए कि जो फिल्‍मस्‍टार खेती का काम करना चाहें उनको इसका पूरा हक मिले। आखिर जो लोग रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्‍नाभाई आदि फिल्‍में बनाकर देशभक्ति का नायाब उदाहरण देश के सामने प्रस्‍तुत करते हैं क्‍या उन्‍हें इतना भी हक नहीं कि वे अपनी इच्‍छा से खेती कर पायें। फिर भी प्रधानमंत्री के उस बयान से, जिसमें उन्‍होंने खेती में आवश्‍यकता से अधिक लोगों के लगे होने की बात कही थी, न्‍यायपालिका और संसद में टकराव हो सकता है क्‍योंकि वे नहीं चाहेंगे कि कुछ और लोग आकर खेती करें। पर मनमोहनजी चिंता मत करिए ये फिल्‍मी किसान आत्‍महत्‍या नहीं करने वाले जो आपको इन्‍हें मुआवजा देना पड़े और लानत झेलनी पड़े। इसलिए एक बीच का रास्‍ता तो निकलना ही चाहिए जिसमें सरकार खेती को सेलेब्रिटी स्‍टेटस दिलाने के लिए बाकायदा कुछ भूमि को बालीवुड के लिए आरक्षित कर दे। इससे दो फायदे तो तुरंत होंगे कि बालीवुड के लोगों की मेहनत का अन्‍न देश को मिलेगा और उस अन्‍न की नीलामी से मिलने वाले राजस्‍व से देश में कई नयी विकास परियोजनाएं शुरू की जा सकेंगीं। जिन लोगों में खरीदने की कूवत होगी वे शान से कहेंगे कि भई अपन तो बासमती की बजाय आमिर खान ब्रांड चावल खाते हैं या फिर मैं तो अमिताभ के खेत में उगा गेंहूं ही खाता हूं। कोई कहेगा- आइम सो चूजी एबाउट माइ फूड ब्रांड, ऑलवेज परचेज द वेजीटेबल्‍स ऑफ सलमानस फार्म।


एक और फायदा होगा इसका कि खेती-किसानी जैसे कार्यों को स्‍वत: ही सेलेब्रिटी दर्जा मिल जायेगा। न्‍यूज चैनल का पत्रकार खेत में जाकर किसान से बात करेगा और कुछ इस प्रकार के सवाल-जवाब होंगे-


प्रश्‍न- कैसा महसूस कर रहे हैं आप खेती करते हुए?
उत्‍तर- देखौ भैया हम बस खेती करत हैं महसूस-फहसूस नाहीं करत।


प्रश्‍न- आजकल आपकी कौन-कौन सी फसलें फ्लोर पर हैं?
उत्‍तर- भैया ई फ्लोर का है?


प्रश्‍न- मतलब आपकी आगे कौन-कौन सी फसलें बाजार में आने वाली हैं?
उत्‍तर- जो फसल मौसम पे आये हैं सो ही इस बरस भी आये हैं।


प्रश्‍न- जब आपकी कोई फसल दूसरों की फसल से ज्‍यादा चलती है तो कैसा लगता है
?
उत्‍तर- भैया ये फसल का चलना-उलना अपन नहीं जानत।


प्रश्‍न- क्‍या फसल उगाने से पहले आप जुताई आदि की कोई रिहर्सल वगैरा करते हैं
?
उत्‍तर- भैया हम ये रिहर्सल ना जानें, हम तो बस खेती जानें हैं।


एक अंतिम सवाल- जब लोग आपको दूसरों से बेहतर हल चलाते देखकर प्रशंसा करते हैं तो कैसा फील करते हैं
?
उत्‍तर- भैया ई में प्रशंसा की कौन बात है। हमें तो खेती करन से मतलब, हम ई प्रशंसा के फेर-फार में नहीं पड़त।

पर फिर भी मुझे नहीं लगता कि सरकार की नीयत ठीक है और हमेशा उन्‍नत खेती की रट लगाने पर भी वह खेती की उन्‍नति के लिए कुछ कदम उठायेगी।