Thursday, April 26, 2007
काशी का अस्सी
बनारस के बारे में कहा जाता है- ‘जो मजा बनारस में; न पेरिस में न फारस में’।
इसी बनारस शहर और उसकी संस्कृति को रेखांकित करती हुई काशीनाथ सिंह की पुस्तक ‘काशी का अस्सी’ मैंने पिछले दिनों पढ़ी।
प्रसिद्ध संस्मरण लेखक काशीनाथ सिंह की इस किताब की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। बनारस शहर भारत ही नहीं विश्व भर में अपनी संस्कृति के कारण विख्यात है। मौज-मस्ती, फक्कड़पन, गालियां, भांग और पान यहां के जीवन का अंग हैं। अमिताभ बच्चन अपनी एक फिल्म में यहां के पान को खा लेने पर बंद अकल के खुलने का दावा तक करते हैं। इसी बनारस शहर और उसकी मस्ती, जिंदादिली का प्रतीक है ‘अस्सी’, जो कि कथानक का केंद्र बिंदु है। अस्सी के बारे में काशीनाथ सिंह तो यहां तक कहते हैं-
“अस्सी बनारस का मुहल्ला नहीं है। अस्सी ‘अष्टाध्यायी’ है और बनारस उसका ‘भाष्य’! पिछले तीस-पैंतीस वर्षों से पूंजीवाद के पगलाए अमरीकी यहां आते हैं और चाहते हैं कि दुनिया इसकी टीका हो जाए.........”
कहानी में अस्सी मुहल्ले के अन्य केंद्र-बिंदु हैं- ‘पप्पू की चाय की दुकान’ और तन्नी गुरू जैसे बिंदास पात्र। पोशाक के नाम पर गमछा, लंगोट, लुंगी और जनेऊ धारण किये हुए और पान चबाते हुए अपनी मस्ती में मस्त। चाय सुड़कते, भांग की मस्ती में एक-दूसरे से गपियाते, भरपूर गालियों का प्रयोग करते गर्मागर्म राजनीतिक बहसों में उलझे लोग बनारस की जीवंत संस्कृति का प्रतीक हैं। चाय की दुकान ही इनका सेमिनार हॉल, भाषण मंच यहां तक कि उनकी संसद है। उनके लिए दुनिया भर के नेता, विचारधाराएं, संस्कृतियां सब ब्रह्मांड के छोटे-छोटे पिंड हैं और उस ब्रह्मांड का केंद्र है अस्सी। दुनियां उनके ठेंगे पर!
“धक्के देना और धक्के खाना, जलील करना और जलील होना, गालियां देना और गालियां खाना औघड़ संस्कृति है। अस्सी की नागरिकता के मौलिक अधिकार और कर्तव्य। इसके जनक संत कबीर रहे हैं और संस्थापक औघड़ कीनाराम। गालियां इस संस्कृति की राष्ट्रभाषा हैं जिसमें प्यार और आशीर्वाद का लेन-देन होता है।”
और सबसे मजेदार बात तो यह है कि ये अस्सी मोहल्ला और उसके पात्र लेखक की कोई कल्पना नहीं है। किताब में शुरूआती तीन कहानियां तो बिल्कुल सच हैं जबकि बाकी दो में लेखक कल्पना की मिलावट कर अपनी बात सामने रखता है। आप बनारस के अस्सी में पप्पू चाय वाले की दुकान पर जाकर चाय पी सकते हैं, शायद वहीं आपको तन्नी गुरू और गया सिंह भी गपियाते मिल जायें।
कहानी और उपन्यास शैली में लिखी गयी किताब में काशीनाथ सिंह ने व्यंग्य, संस्मरण, रिपोर्ताज आदि सभी विधाओं का अच्छा सम्मिश्रण कर एक अलग ही संसार रच दिया है, इस मायने में कि पढ़ने वाले को लगे कि वह भी इन पात्रों के साथ बनारसी पान चबाते हुए गपिया रहा है। पुस्तक में उस मोहल्ले के प्रस्तुतीकरण ने मुझे बहुत प्रभावित किया इसलिए किताबें पढ़ते रहने के बावजूद पहली बार लगा कि क्यों न औरों को भी इस बारे में बताया जाए।
2002 में प्रकाशित इस पुस्तक के पिछले दस-बीस वर्षों में हुए राजनीतिक-सांस्कृतिक बदलाव पर कहानी के पात्रों की बेबाक टिप्पणियां और बहसें उस समय का एक अच्छा दस्तावेज भी पेश करती हैं, जिनसे पाठक रूबरू होना चाहेगा। 90 के दशक की मंडल-कमंडल की राजनीति, जाति और धर्म के नाम पर बंटते लोग! बनारस कैसे अछूता रहता! ‘हर-हर महादेव’ की जगह ‘जय श्रीराम’ ने ले ली। बकौल पांड़ेजी राजनीति की एक बानगी सुनिए-
“बहुत कुछ बदल गया है गुरूजी! नेहरू, लोहिया, जयप्रकाश नारायण के लिए भीड़ नहीं जुटानी पड़ती थी। भीड़ अपने-आप आती थी। अब नेता भीड़ अपने साथ लेकर आता है- कारो में, जीपों में, बसों में, ट्रैक्टर में।”
हालांकि पिछले कुछ समय से काशी में भी बदलाव आ रहा है। भारतीय संस्कृति, संगीत, साहित्य, भाषा, कला आदि को सीखने के लिए बड़ी तादाद में विदेशी यहां आने लगे हैं। जाहिर है वे अपनी भी संस्कृति लेकर आते हैं। भंग के नशे में मस्त रहने वाले बनारस में अब ब्राउन शुगर, हेरोइन और चरस जैसे महंगे नशे पहुंच गए हैं। फिर भी नये जमाने की हवा से बनारस बहुत कुछ अछूता ही है। यहां के लोग अपनी ही मस्ती में मस्त रहने वाले हैं। दूसरों के सुख से न इन्हें कोई दुख है न दूसरों के दुख से कोई सुख-
“परेशान हो वह जिसे पड़ौसी के सुखों की चिंता हो; रात-दिन एक करे वह जिसे- बंगला चाहिए, कार चाहिए, पद और ओहदे चाहिए; मरे वह जो ईर्ष्या-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह का मारा हो। यहां तो अस्सी किसी भी वी.आई.पी. को पी.आई.जी.(पिग=सुअर) के बराबर भी नहीं समझता, समूचे त्रिकाल और त्रैलाक्य को अपने फोद पर लिए घूमता रहता है- छुट्टा सांड की तरह।”
पुस्तक का अंतिम अध्याय- ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ में लेखक ने बिरहियों की कथा के माध्यम से बाजार अर्थव्यवस्था और मशीनी यु्ग के कारण उत्पन्न समस्याओं को बड़े मजेदार ढंग से उठाया है। हवा-पानी भी अब बाजार की वस्तुओं में तब्दील हो रहे हैं। बाजार सबको निगल रहा है। यहां तक कि लोगों के होठों की हंसी को भी। बाजार चाहता है लोग समय को हंसने में व्यर्थ बर्बाद न कर काम में लगाएं। वे लोग जो कभी साथ बैठकर हंसते-खिलखिलाते अपनी मस्ती में मस्त रहते थे अब गायब होने लगे हैं। टेलिविजन, सी.डी., वीडियोगेम्स, कंप्यूटर ने लोगों को उनकी मर्जी से उन्हीं के घर में कैद कर दिया है। हंसने के लिए आदमी को टी.वी. का सहारा लेना पड़ रहा है। टी.वी स्क्रीन पर खड़ा आदमी आपको चुटकुला सुनाएगा, लोटपोट करेगा और कार्यक्रम खत्म होते ही आपकी हंसी गायब। इसी नकली हंसी को खरीदने के लिए आदमी दिन-रात काम करता है और शाम को वह वीडियो शॉप पर जाकर हंसी की सी.डी. खरीद लाता है। नींद की गोलियों की तरह हंसी का स्थान टी.वी. और वीडियो ले रहा है।
राजकमल पेपरबैक्स से प्रकाशित पचहत्तर रुपये की इस बेहतरीन पुस्तक को पढ़कर आप भी विचार कीजिए कि क्या हंसी वाकई म्यूजियम की चीज हो चुकी है या अब भी आपमें जिंदा है- वही जिंदादिल हंसी।
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16 comments:
बहुत बढ़िया लिखते हो प्यारे. 'बना रहे बनारस' पर भी लिखो.
बहुत बढ़िया समीक्षा की है, भुवनेश. बधाई!!
अच्छी विवेचना की आपने इस पुस्तक की !
बहुत सुन्दर!"क्या हंसी वाकई म्यूजियम की चीज हो चुकी है या अब भी आपमें जिंदा है- वही जिंदादिल हंसी।"
हाँ हसने पर भी पाबंदी लग गई है,..
सुनीता(शानू)
जिंदादिल समीक्षा।। शुक्रिया
काशीनाथ सिंह का बनारस के बारे में लिखा संस्मरण देख तमाशा लकड़ी का बहुचर्चित संस्मरण है। उसे मैंने कई बार अपने ब्लाग पर पोस्ट करने के बारे में सोचा लेकिन उसमें कुछ गालियां हैं इसकारण अभी तक उसे पोस्ट नहीं किया। अपने भैया नामवर पर लिखा लेख भी उनका अद्भुत संस्मरण है। बहुत अच्छा लगा काशी के अस्सी के बारे में तुमने लिखा। बहुत अच्छा!
शायद संयोग ही हो कि मैंने भी यह किताब पिछले महीने ही पढ़ी. और क्या कहूँ, बस मज़ा आ गया. हालाँकि किताब का अंतिम भाग अस्पष्टता और उपमानों की वजह से थोड़ा बोझिल लगा, पर बाक़ी किताब की शैली और कंटेंट दोनों ही कमाल हैं. निस्संदेह क्लासिक.
एक अच्छी पुस्तक के बारे में बताने एवं चर्चा करने का शुक्रिया।
जरूर पढेंगे।
स्थानिकता से भरा ठेठ देशज गद्य लिखने में काशीनाथ सिंह का कोई सानी नहीं है. उनके द्वारा प्रयुक्त गालियों से शुद्धतावादी बिदकते रहें पर वह गालियां उस 'लोकेल' में इस तरह गुम्फित हैं कि उनके बिना उसका 'सैनिटाइज़्ड' वर्णन किसी दीन का नहीं रह जाएगा . काशीनाथ सिंह हमारे समय के बेजोड़ गद्यकार है . उनके सानी का दूसरा कोई नहीं है .
अच्छी समीक्षा की दोस्त..शायद ये काम हम सब को सजग रूप से करना चाहिये.. जो किताब पढें उसके विषय में दूसरों को सूचित करें.. शायद इसी तरह से हिन्दी में किताबों का बाज़ार कुछ विकसित हो.. मैं कोशिश करूँगा आपका अनुकरण करने की.. राह दिखाने के लिये धन्यवाद..
arre guru aap ne dil ko touch kar liya kashi ke assi ke baare me likhke.
dhanyawad
बनारस काशी और वाराणसी नाम अनेक लेकिन शहर एक। ऎसे ही यहां का प्रवासी भी किसी एक नाम के तहत परिभाषित नहीं होता।
मतलब साफ है कि जीवन की खनक और हसी का विस्फोट जीवनादर्शन आदि का अभास यहीं होता है। इन जैसी मूल्यवान चीज बगैर किसी ऊंची कीमत के मिल जाती है। काशी के लोगों ( काशी प्रेमी ) को इससे प्रभाव नहीं पडता कि दुनिया के किसी कोने से शुरू हुई बदलाव की बयार काशी को भी अपनी जद में ले सकती है क्योंकि बदलाव से आहतों का पड़ाव काशी ही होगा। जाहिर है कि काशी पर कभी आंच नहीं आने वाली है बल्कि काशी की नींव और मजबूत ही होगी। बदलते समय के साथ काशी और अधिक प्रासंगिक ही होगा वजह भी स्पष्ट है कि भूमडंलीकरण की बयार से परिचित यह जान चुके हैं कि यह एक तरफा राहत पहुचाने का दावा करती है। इस तरह असंतुलन का होना लाजिमी है। बनारस की ठेठ अखड़ शैली रंग ढंग हेकड़ी ऊटपंटाग लहजा बेतरतीब रहते हुए भी एक गंभीर किस्म की भावभंगीमा अन्यत्र से अलग करती है। शायद यह ही काशी की असली पहचान है।
मित्र आपने काशीनाथ जी की रचना " काशी का अस्सी" का बखूवी चित्रण किया है और तो और गैरबनारसी होते हुए इस मिथक को तोड़ा है कि काशी का महात्तम केवल वंहा के ही मसजीवी ही कर सकता है। वाकई आप बधाई के पात्र है मेरी तरफ से आप को शुभकामना।
kitaab bahut achi hai par main isko delhi main kahan se kharidu jagah ka naam pata kripya kar ke bata dijiye aur isme bahut aise shabdo ka pryog kiya hua hai jinka arth samajh se pare hai kripya karke ye bhi batla dijiye ki unka arth kahan gyat hoga.aap hame hamare email id yaani azad.sahib@gmail.com par hamare prashno k uttar de sakte hain
dhanywaad
हुजुर ... जो बिकता है ... वो महंगा हो जाता है..
मांग ज्यादा ... दाम ज्यादा.
आज इस किताब की कीमत १२५ रुपे और वी पी पी से १५० रुपे लगे..
पर पढ़ने के बाद इस की ये कीमत नगण्य है.... यानी कुछ नहीं..
राजकमल का अच्छा प्रयास कहा जाएगा ... कि इतने पैसे में ऐसी बेहतरीन किताबें सुलभ हों.
किताब खरीद कर रखी हुई है। अगली यही हाथ में आएगी। समीक्षा पढ़ जोश आ गया... जाता हूँ चाय पीने :)
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