Monday, March 31, 2008

जिंदगी की नहीं फिल्‍मी रेस

अब्‍बास-मस्‍तान से जितनी उम्‍मीद की जाती है वे उससे ज्‍यादा कभी खरे नहीं उतरते। हालिया रिलीज रेस भी उनकी उसी थ्रिलर श्रेणी की फिल्‍म है जिसके लिए वे जाने जाते हैं। हालांकि थ्रिलर फिल्‍में वे लंबे समय से बनाते आ रहे हैं पर इस बार भी वे अपनी पुरानी लीक पर ही दिखाई देते हैं। भड़काऊ संगीत, स्‍वार्थी किरदारों की आपसी लड़ाई और धुंआधार प्रचार इन सब चीजों का प्रयोग वे खुलकर अपनी फिल्‍मों में करते आए हैं। उनकी खासियत या कहें कौशल कि वे व्‍यावसायिक रूप से औसत दर्जे की फिल्‍म बनाकर सिनेमाघर में लोगों को खींच ही लाते हैं।

इस बार रेस में उन्‍होंने अपनी इसी शैली और भीड़ खेंचू स्‍टारकास्‍ट के साथ अच्‍छा प्रयोग किया है। फिल्‍म दो भाईयों रणवीर(सैफ अली खान) और राजीव(अक्षय खन्‍ना) की आपसी लड़ाई पर केंद्रित है। दौलत के लिए ये दोनों एक-दूसरे की जान के दुश्‍मन बन जाते हैं। फिल्‍म में बिपाशा बसु, कैटरीना कैफ और समीरा रेड्डी जैसी अभिनेत्रियां महत्‍वपूर्ण किरदारों में हैं। अनिल कपूर भी इनवेस्‍टीगेशन ऑफीसर के कमाल के किरदार में हैं। अनिल कपूर आजकल किसी भी फिल्‍म में और कैसे भी किरदार में दिखाई दें प्रभावित करते हैं। फिल्‍म की शूटिंग दक्षिण अफ्रीका के शानदार लोकेशनों पर हुई है जो फिल्‍म की जान हैं। कैटरीना कैफ और बिपाशा हमेशा की तरह खूबसूरत और सेक्‍सी नजर आती हैं। सैफ अपने पूरे फॉर्म में हैं।

फिल्‍म की कहानी बहुत दमदार तो नहीं पर अंत तक दर्शक को बांधे रखती है। कहानी के हिसाब से किरदारों का प्रयोग बढि़या तरीके से निर्देशकद्वय ने किया है। फिल्‍म के गाने टीवी के प्रोमो के हिसाब से तो बहुत अच्‍छे हैं पर फिल्‍म में ठूंसे हुए हैं। तेज गति से भागती फिल्‍म में गाने बोर ही करते हैं। फिल्‍म के अंत में तेज संगीत के साथ कारों की रेस दिखाई जाती है। इसे देखकर लगता है अब्‍बास-मस्‍तान ने अपनी थ्रिलर शैली और मसाला सिनेमा का कॉकटेल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

प्रीतम चक्रबर्ती जैसे संगीत के लिए जाने जाते हैं वैसा ही उन्‍होंने इस फिल्‍म में भी दिया है। गानों के वीडियोज प्रभावित करते हैं पर फिल्‍म में सिचुएशन के हिसाब से नहीं लगते। कुमार तौरानी की यह फिल्‍म भीड़ खींचने में कामयाब हो रही है। हालांकि इस हफ्ते रिलीज हुई वन टू थ्री इसे कड़ी टक्‍कर देगी। जिंदगी की रेस दिखाकर फिल्‍म को पैसे कमाने की रेस में दौड़या गया है और काफी हद तक यह सफल भी है।

Thursday, March 20, 2008

लड़कियों अभी तुम्‍हें मरना होगा, कमोडिटी मार्केट में तेजी है.......

मध्‍यप्रदेश में हाल ही में लोक सेवा आयोग और न्‍यायिक सेवा परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद कमोडिटी मार्केट खूब उछालें मार रहा है। ऊंची जातियों में जहां तैयारी से पहले कमोडिटीज के औने-पौने दाम मिल रहे थे वहीं अब इनके रेट 25 से 50 लाख तक पहुंच रहे हैं। हालांकि बोली लगाने वालों की तो कोई कमी नहीं पर कम ही हैं पर उछलते मार्केट में हैसियत वाले ही भाव-ताव कर पा रहे हैं।

जी हां कमोडिटी मार्केट का मतलब आप समझ रहे होंगे। इस समय नौकरीशुदा और वह भी राज्‍यसेवा में चयनित लड़कों की रेट्स का आप अनुमान नहीं लगा सकते। फिर भी बोली लगाने वालों की यहां कोई कमी नहीं है। अपने विवाह के लिए लाखों की रिश्‍वत लेने वाले इन नए अफसरों से ईमानदारी की उम्‍मीद कतई मत करिएगा और बोली लगाने वाले जो लाखों की रकम लगा रहे हैं वो कहां से आ रही है? नहीं, वो सफेद कमाई तो बिलकुल नहीं है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि यहां महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े भाषण दिये जाते हैं, कानून बन जाते हैं, आरक्षण मिल जाता है पर महिलाओं की स्थिति वही है। वैसे भी सामंतवादी समाज में महिलाओं को क्‍या स्‍थान प्राप्‍त है ये सभी जानते हैं और जिस सामंतवाद के खात्‍मे की बात आजादी से अब तक होती रही है वो अपनी पूरी ताकत से साथ मौजूद है और फल-फूल रहा है

कन्‍या भ्रूण हत्‍या के पीछे हमारे एनजीओ चिल्‍ल-पों मचाते हैं, सरकार रोज नयी-नयी योजनाएं बनाकर इसे खत्‍म करने की प्रतिबद्धता दोहराती रहती है पर इस समस्‍या की भयावहता में कोई कमी नहीं आती। क्‍या कारण है कि इतने प्रयासों के बावजूद हम इसे खतम तो क्‍या कम भी नहीं कर पाए है। इधर-उधर से लेकर गिनाने के लिए बहुत कारण हैं पर एक कारण है जिसकी बात हम कभी नहीं करते और करते भी हैं तो दूसरों के लिए। हमारे खुद के लिए ये बात हमें कतई नहीं सुहाती। दहेज ! जी हां यही वह कारण है जो आज कन्‍या-भ्रूण हत्‍या की एकमात्र और असली वजह है और दिनों-दिन झूठी शानो-शौकत के पीछे पागल हमारे समाज में इस महामारी को खत्‍म करने की बजाय प्रोत्‍साहन दिया जा रहा है। महानगरो में रहने वाले कुछ लोग इससे भले सहमत न हों पर छोटे शहरों और ग्रामीण भारत की यही हकीकत है।

ऊपर से हमारे मुख्‍यमंत्री सरीखे नेता ऐसे विवाह समारोहों में सम्मिलित होते हैं जहां लाखों-करोड़ों का दहेज खुलेआम दिया जाता है। अफसरी पाने वाले नौजवान या उनके परिवारजन कभी नहीं चाहते कि लड़की वालों से एकमुश्‍त मोटी रकम न वसूली जाए। सभ्‍य समाज लड़कियों को कितना ही पढ़ा-लिखा रहा है। पर उनके लिए ऊंची रकम पर दूल्‍हा खरीदना ही पड़ता है। और दूल्‍हों की खरीद-फरोख्‍त वाले इस सिस्‍टम से हम आशा नहीं कर सकते कि वहां लड़कियों को बराबरी का दर्जा अभी क्‍या पचास साल बाद भी मिल सकेगा। यह वही देश है जहां कभी लोकनायक ने संपूर्ण क्रांति की बात की थी। उन्‍होंने अपने जीते-जी इस प्रकार की खरीद-फरोख्‍त की सख्‍त मुखालफत की पर उनके बाद जितनी तेजी से उनकी क्रांति का पहिया उल्‍टी दिशा में घूमा उसको देखकर तो बस बस सिर ही फोड़ा जा सकता है।

हमारे माननीय मुख्‍यमंत्री ने भी भ्रूण-हत्‍या जैसे मसले पर बड़ी संवेदनशीलता का परिचय दिया। उन्‍होंने लाड़ली बेटी योजना या शायद लाड़ली लक्ष्‍मी योजना शुरू की है जिसमें लड़कियों के जन्‍म के समय उनके नाम बैंक में सरकार कुछ रकम जमा करेगी और ये रकम उसके विवाह के समय काम आयेगी। उनकी शिक्षा के लिए लिए भी कुछ योजनाएं शुरू की गई हैं। पर बात यहीं पर आकर अटक जाती है कि जब शादी पर खर्च करना ही है तो बच्चियों की जरूरत ही क्‍या है। लड़कियों को पालना, उन्‍हें शिक्षा देना ऐसा शेयर हो गया है जिसमें निवेश करते रहने के बावजूद वापस कुछ नहीं मिलता। तो फिर हमारे सभ्‍य समाज के समझदार लोग उन्‍हें दुनियां में आने ही क्‍यों देंगे ?

अगली पोस्‍ट में ऐसे भयावह आंकड़े जिन्‍हें देखकर भारत की महान संस्‍कृति का डंका पीटने वालों को जूते मारने का मन करता है ............

Tuesday, March 18, 2008

जरूरत है बलवीर सिंह जैसे नायकों की

पर्यावरण के प्रति जागरूक लोगों के लिए बाबा बलवीर सिंह सींचेवाल कोई अनजाना नाम नहीं हैं। बलवीर सिंह सींचेवाल ने पंजाब की एक नदी जो गंदा नाला बन चुकी थी, को अपने प्रयासों से पुनर्जीवित करके दिखा दिया कि अनियंत्रित व अनियोजित विकास के इस यु्ग में यदि समाज और सरकारें अपनी भूमिका का ठीक से निर्वहन करें तो सही अर्थों में विकास की निर्मल गंगा बहाई जा सकती है। पर विडंबना है कि वर्तमान में जारी विकास हर तरह से पर्यावरण के लिए अभिशाप साबित हो रहा है और यदि हमने विकास की इस अनवरत प्रक्रिया में अपनी जिम्‍मेदारी को ईमानदारी से स्‍वीकार नहीं किया तो बहुत कुछ हमेशा के लिए पीछे छूट जाएगा।

160 किलोमीटर लंबी काली बेई नदी पंजाब में सतलज की सहायक नदी है। एक समय था जब 32 शहरों की गंदगी और समाज की उपेक्षा की मार सहती इस नदी की हालत देश की अनगिनत नालों में तब्‍दील हो चुकी नदियों की तरह ही थी। यह वही नदी है जिसके किनारे सिखों के गुरू नानकदेवजी को दिव्‍यज्ञान प्राप्‍त हुआ था। पर समय के साथ देश की अन्‍य नदियों की तरह ही इस नदी के लिए भी अस्तित्‍व का संकट पैदा हो गया। तब इस नदी के पुनरुद्धार करने का बीड़ा उठाया बाबा बलवीर सिंह ने।

पंजाब के एक छोटे से गांव सींचेवाल के इस संत ने अपने बलबूते इस नदी को साफ करने का बीड़ा उठाया। संत बलवीर सिंह ने अपने शिष्‍यों के साथ इस काम को अंजाम देने के साथ-साथ अपने गुरुद्वारे में आने वाले श्रद्धालुओं को इस नदी के उद्धार के लिए जुट जाने को प्रेरित किया। उन्‍होंने लोगों को समझाया कि वे गुरुनानक के चरण स्‍पर्श प्राप्‍त इस नदी की सफाई कर भगवान की सच्‍चे अर्थों में सेवा कर सकेंगे। सन 2000 में उनके द्वारा शुरू किये गये प्रयासों के कुछ वर्षों में ही इसका असर दिखा और आज इसकी निर्मल धारा को देखकर सहसा विश्‍वास नहीं होता कि बिना कुछ खर्च किये केवल मानवीय प्रयासों से कैसे एक खत्‍म हो चुकी नदी को पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

संत सींचेवाल का कालीबेई के लिए किया गया यह योगदान आज नदी संरक्षण में लगे लोगों, सरकारों और एजेंसियों के लिए प्रेरणा बन गया है। तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति ए.पी.जे. अब्‍दुल कलाम ने जब इस बारे में सुना तो वे खुद इस अनुपम प्रयोग को देखने पहुंचे। उनके भाषणों में अक्‍सर संत सींचेवाल और कालीबेई का जिक्र रहता है। फिलीपींस सरकार ने भी उनके इस प्रयोग के बारे में जानकर मनीला की एक नदी के पुनरुद्धार के लिए उनसे सहयोग मांगा है।

गंगा और यमुना की सफाई पर करोड़ों रुपए डकार जाने वाली सरकारों, एनजीओ और हम खुद जो गंगा को गंगामैया कहते हैं क्‍या अब भी उदासीन बने रहेंगे ?

Saturday, March 15, 2008

और भी रंग हैं जिंदगी के: ब्‍लैक एंड व्‍हाइट

सिनेमाघर में जाकर पता लगा कि ब्‍लैक एंड व्‍हाईट सुभाष घई की फिल्‍म है। ऐसा फिल्‍मकार जिसकी फिल्‍मों में बड़े स्‍टार, भव्‍य सेट्स, लार्जर दैन लाइफ कहानियां और मधुर संगीत होता है, इस बार लीक से हटकर कुछ प्रयोग कर रहा है यह जानकर अच्‍छा लगा। हालांकि शोमैन सुभाष की फिल्‍में मुझे कभी अच्‍छी नहीं लगीं पर उनकी फिल्‍मों का संगीत जरूर लुभाता है। पर इस बार उन्‍होंने अपनी शोमैन की छवि को बदलने का प्रयास किया है। वैसे भी पिछले काफी समय से उनके सितारे गर्दिश में ही चल रहे हैं और उनकी बड़े बजट की फिल्‍में पिट भी चुकी हैं। शायद यही कारण है कि वे चक दे इंडिया और तारे जमीं पर के समय में सामाजिक सरोकारों वाली फिल्‍मों पर सोचने लगे हैं।

फिल्‍म कहानी है एक मुस्लिम युवक नुमैर काजी(अनुराग सिन्‍हा) की जो अफगानिस्‍तान के किसी आतंकवादी शिविर से प्रशिक्षण लेकर दिल्‍ली आता है। वह एक फियादीन हमलावर है जो 15 अगस्‍त के दिन दिल्‍ली के लाल किले पर विस्‍फोट करने के मकसद से दिल्‍ली आया है। दिल्‍ली में वह चांदनी चौक में एक रिश्‍तेदार के यहां ठहरा हुआ है। फिल्‍म में अनिल कपूर एक उर्दू प्रोफेसर राजन माथुर की प्रभावी भूमिका में हैं साथ ही उर्दू शायर की भूमिका में गफ्फार भाई(हबीब तनवीर) भी हैं।

फिल्‍म के माध्‍यम से घई मुस्लिम आतंकवादियों को पैगाम देते नजर आए हैं कि हिंसा की इजाजत कोई धर्म नहीं देता। उन्‍होंने फिल्‍म के चरित्रों के माध्‍यम से उस संस्‍कृति को दिखाया है जिसे हम साझा संस्‍कृति कहते हैं और जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों ही धर्मों के लोगों के लिए सम्‍मान है। मुहब्‍बत का संदेश देने वाली इस फिल्‍म के जरिए बहुत ही प्रासंगिक विषय को उठाया गया है। पर अच्‍छे विषय पर बनी फिल्‍म भी उतनी ही अच्‍छी होती तो एक बड़े दर्शक वर्ग तक इसका पैगाम पहुंचता। सुभाष घई ने लीक से हटकर सार्थक सिनेमा बनाने की कोशिश में निराश किया है। एक अच्‍छा विषय ही फिल्‍म के अच्‍छे होने की गारंटी नहीं है बल्कि उसे दमदार तरीके से प्रस्‍तुत करना महत्‍वपूर्ण है।

फिल्‍म के नायक अनुराग सिन्‍हा ने अपनी पहली ही फिल्‍म में अभिनय से प्रभावित किया है। वैसे भी रंगमंच का अनुभव होने के कारण वे मंजे हुए कलाकार हैं। पर निर्देशक ने उनकी प्रतिभा का ठीक ढंग से इस्‍तेमाल नहीं किया है। अनिल कपूर हमेशा की तरह फॉर्म में हैं। हबीब तनवीर कम समय के लिए दिखे हैं। उनके जैसे कलाकार के लिए फिल्‍म में कोई स्‍कोप नहीं है। फिल्‍म का संगीत पक्ष भी कमजोर सा है। एक गीत मैं चला को छोड़कर बाकी कुछ खास नहीं हैं। सही कहा जाए तो फिल्‍म के सभी पक्षों पर भावुकता और नाटकीयता हावी है जबकि चित्रण पर ठीक से ध्‍यान नहीं दिया गया है। सुभाष घई को अपनी भूमिका ऐसे विषयों में निर्माता तक ही सीमित रखनी चाहिए। कम से कम ऐसी प्रयोगवादी फिल्‍मों में तो नहीं।