Sunday, December 23, 2007

चंबल में अब भी याद किये जाते हैं बिस्मिल


बहुत ही कम लोगों को यह मालूम होगा कि भारतीय स्‍वतंत्रता-संग्राम में अपने प्राणों की आहूति देने वाले अमर शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल की जड़ें मध्‍यप्रदेश के चंबल अंचल के मुरैना जिले से जुड़ी हुई हैं। बीते 19 दिसंबर को उनका बलिदान-दिवस था। इसी दिन उन्‍हें गोरखपुर जेल में अंग्रेजी शासन के दौरान फांसी दी गई थी। मुरैना जिले की अंबाह तहसील का गांव बरवाई बिस्मिल का पैतृक गांव है। बिस्मिल का जन्‍म शहाजहांपुर, उत्‍तरप्रदेश में हुआ पर उनके दादा श्री नारायणलाल यहीं पले-बढ़े और बाद में वे अपने दो पुत्रों मुरलीधर(रामप्रसाद बिस्मिल के पिता) और कल्‍याणमल के साथ शाहजहांपुर चले गए। अमर शहीद की याद में अब भी जिले में 19 दिसंबर को श्रद्धांजलि सभाओं और कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इस दिन जिला कलेक्‍टर महोदय द्वारा स्‍थानीय अवकाश भी घोषित किया जाता है। इस बार भी हर वर्ष की भांति कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। मुरैना शहर की एक कॉलोनी में चंबल के इस शहीद की प्रतिमा लगी हुई है जहां हर तरह के छुटभैये, सड़कछाप नेता माला लेकर अखबार में छपने का अरमान लेकर ही सही श्रद्धांजलि देने इस बार भी पहुंचे। आगरा-मुंबई राष्‍ट्रीय राजमार्ग मुरैना शहर के एक मुख्‍य चौराहे से होकर गुजरता है। पिछले कई वर्षों से इस चौराहे पर बिस्मिल की प्रतिमा को स्‍थापित किये जाने की मांग उठती रही है जिससे राजमार्ग से होकर जिले से गुजरने वाले लोग भी उनकी मातृभूमि के बारे में जान सकें। कई बड़े-बड़े नेता इस बारे में यदा-कदा घोषणा तो करते रहते हैं पर किसी प्रकार का राजनीतिक हित न होने के कारण अभी तक प्रतिमा की स्‍थापना नहीं हो सकी है। भारत के इस वीर सपूत को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं उनके मशहूर तराने- सरफरोशी की तमन्‍ना को यहां पेश कर रहा हूं जिसकी जोशीली पंक्तियां पढ़कर आज भी दिलों में देश के लिए मर-मिटने की आग धधक उठती है।


सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है


वक्त आने दे बता देंगे तुझे ए आसमान,

हम अभी से क्या बतायें क्या हमारे दिल में है


करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,

देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है


रहबरे राहे मुहब्बत, रह न जाना राह में

लज्जते-सेहरा न वर्दी दूरिए-मंजिल में है


अब न अगले वलवले हैं और न अरमानों की भीड़

एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है ।


ए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मैं तेरे ऊपर निसार,

अब तेरी हिम्मत का चरचा गैर की महफ़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


खैंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,

आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-कातिल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


है लिये हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,

और हम तैय्यार हैं सीना लिये अपना इधर,

खून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


हाथ जिन में हो जुनून कटते नही तलवार से,

सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से,

और भड़केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


हम तो घर से निकले ही थे बाँधकर सर पे कफ़न,

जान हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम.

जिन्दगी तो अपनी मेहमान मौत की महफ़िल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


यूँ खड़ा मौकतल में कातिल कह रहा है बार-बार,

क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,

होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें कोई रोको ना आज

दूर रह पाये जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है


वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें ना हो खून-ए-जुनून

तूफ़ानों से क्या लड़े जो कश्ती-ए-साहिल में है,

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है ज़ोर कितना बाज़ुए कातिल में है

Sunday, November 25, 2007

मौसेरे भाईयों का दुख- अजी सुनिये तो!

वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी खेमे में मंथन हो रहा है कि चूक कहां हुई। पहले उधर वाम वाले तहलका के खुलासे पर शेम-शेम चिल्‍ला रहे थे। अब इनके विरोधियों को भी बांछें खिल गईं। लव ट्रएंगल वाली फिल्‍म में जैसे ही दूसरी हीरोइन एंट्री मारती है सबका ध्‍यान पहली को छोड़ उस तरफ चला जाता है। दक्षिणपंथी खेमें में तालियां बज रही हैं। जनता इनके नंगेपन को झेलने के बाद उनके नंगेपन का तमाशा देखने को मजबूर है। नंगापन भी ऐसा कि जनता पाकिस्‍तान, म्‍यांमार सब भूल जाए। पर टीवी-मीडिया वाले किसी को नहीं छोड़ते। वे सबकी लंगोटी खींच रहे हैं- वाम हो या दाम। इधर एक कहता है- वाह खूब लपेटा साले को, अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे। तब तक उसकी खुद की लंगोटी पे बन आती है। लंगोटी उतारने के इस खेल से दोनों परेशान हैं। पर उन्‍होंने भी ठान ली है- लंगोटी भले छूट जाए पर कुर्सी नहीं छोड़ेंगे।

वहां दक्षिण में भी खूब तमाशा हुआ और सब तरफ शोर मचा कि गठबंधन धर्म की मर्यादा तार-तार हो गई। पता नहीं किस धर्म और किसकी मर्यादा की लोग बात करते हैं। भैया गठबंधन धर्म तो वो थाली है जिसमें एक में ही चार यारों को अपना पेट भरना है तो खेंचमखेंच तो मचनी ही है। लोकतंत्र की इस थाली में से जो ज्‍यादा भकोस पाता है वो तो मस्‍त और जो भूखा रह जाता है वो भरे पेट वाले की कुर्सी खेंचने लगता है। पर इस बार कर्नाटक में नये टाइप का तमाशा हुआ। बाप-बेटे दोनों जीमने बैठे और भरपेट खाने के बाद दूसरों का हिस्‍सा लेकर ये जा और वो जा।

बहरहाल वापस आते हैं वाम और दाम पर। हमेशा एक-दूसरे को चबा जाने वाली नजरों से देखने वाले वामपंथी और दक्षिणपंथी एक ही समय में मीडियाई हमले से हलाकान हैं। पहले लाल झंडे वाले गुजरात का नाम ले-लेकर भगवाधारियों को ढाई हजार गालियां देकर ही भोजन करते थे। पर जब नंदीग्राम की आग फिर भड़क उठी तो दक्षिणपंथियों के हाथ बैठे-ठाले बटेर लग गई। पर समस्‍या यहां पैदा हो गई कि एक ही समय पर जनता दोनों के नंगेपन से बखूबी परिचित हो गई। वैसे शुबहा पहले भी नहीं था पर आंखों देखे और कानों सुने सच की बात ही कुछ और है। चुनाव के ऐन पहले ही भगवा ब्रिगेड के कर्णधारों ने प्रेमपूर्वक अपने अमृत-वचनों की धारा प्रवाहित कर अपने सुकर्मों से जनता को परिचित कराया। उधर लाल झंडे वाले की हालत नशे में चूर उस शराबी जैसी हो गई जो चौराहे पर खुद ही अपने कपड़े फाड़कर जनता को गर्वभरी नजरों से ललकारता है- टुच्‍चों है किसी में इतना दम ! देश की जनता दोनों को देख रही है। उधर बुद्धिजीवी नामक प्राणियों की जमात दोनों को ही अपने तराजू में तौल कर देख रही है और आश्‍चर्यजनक रूप से तराजू के दोनों पलड़े बराबरी पर आ रहे हैं।

भगवा और लाल रंग में वैसे भी कोई खास फर्क नहीं है। और अब तो दोनों ने ही अपने झंडे खून में रंगकर ये रहा-सहा फर्क भी मिटा दिया। मुझे एक कहावत याद आ रही है- चोर-चोर मौसेरे भाई। ऐसे ही अटूट बंधन में ये भी बंध चुके हैं। पर जनता बेचारी दोनों को चोर-चोर मौसेरे भाई भी नहीं कह पा रही है क्‍योंकि दोनों ही अब जनता के पैसे की चोरी-चकारी, भ्रष्‍टाचार, दलाली आदि में अपना ज्‍यादा समय जाया नहीं करते अब इनके धंधे थोड़े ऊंचे लेवल के हैं। पर फिर भी दोनों परेशान दिखते हैं। एक कहता है- पकड़ो साले को ये है सबसे बड़ा दुष्‍ट। तब तक दूसरा वाला शेम-शेम चिल्‍लाने लगता है। पर जनता किसी की नहीं सुन रही उसे सब पता है। इसलिए दोनों परेशान हैं। उधर जनता भी परेशान है जो इनकी नंगई पर हंस भी नहीं पा रही है।

मौसेरे भाईयों का अपनापा देखना हो तो अपने बुश और मुश से बेहतरीन उदाहरण दुनियां में हो ही नहीं सकता। दुनियां उन्‍हें कितनी ही गालियां दे पर दोनों बेखबर होकर अपनी ही धुन में- ये दोस्‍ती हम नहीं छोड़ेंगे गाने में व्‍यस्‍त हैं। दुनियां कह रही है कि मुश ने लोकतंत्र का गला घोंट डाला और बुश भईया लोकतंत्र की बेहतरी के लिए कार्य करने के उनकी लिए पीठ थपथपा रहे हैं। जितनी वे पीठ थपथपा रहे हैं, उतनी ही लोकतंत्र की कब्र और गहरी होती जा रही है।

पर च्‍चच्-च्‍च्‍च् हमारे बेचारे वाम और दाम वे एक-दूसरे की पीठ तो नहीं ना थपथपा सकते न ! बस ढेला ही फेंक सकते हैं। पर टीवी, मीडिया, कैमरा, तकनीक की किचिर-पिचिर के कारण इतनी कीचड़ हो गई है कि सारी की सारी उनके मुंह पर ही आ रही है और वे मुंह छिपा भी नहीं पा रहे हैं।

Monday, November 19, 2007

ज्ञानजी की बारामासी: वाह क्या कहने !

वाकई समकालीन व्‍यंग्‍य लेखकों में ज्ञान चतुर्वेदीजी का जवाब नहीं! अपनी अनोखी शैली वाले व्‍यंग्‍य बाणों के लिए सुविख्‍यात ज्ञानजी ने व्‍यंग्‍य-उपन्‍यास जैसी विधा में जिस प्रकार से कलम चलाई है, वह अद्भुत है। ज्ञानजी ने अपने ज्ञान-चक्षुओं से जिस प्रकार अपने समाज, परिवेश, लोक आदि का अध्‍ययन किया है उसे बेहतरीन ढंग से अपने लेखन में उतारा है। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले उनके लेख तो हिंदी पाठकों में लोकप्रिय हैं ही। इस बार आपका परिचय कराते हैं उनके व्‍यंग्‍य उपन्‍यास बारामासी से।

बारामासी कहानी है बुंदेलखंड के एक छोटे से कस्‍बे अलीपुरा में रहने वाले एक निम्‍न मध्‍यमवर्गीय परिवार की। परिवार के सदस्‍य, उनके सपने, उन्‍हें किसी भी प्रकार से पूरा करने की चाहत, उनमें व्‍याप्‍त विसंगतियों, कुंठाओं के माध्‍यम से लेखक ने एक आम बुंदेलखण्‍डवासी के जीवन के विभिन्‍न पहलुओं को बड़े रोचक ढंग से प्रस्‍तुत किया है। परिवार में चार भाई, उनकी मां और एक बहन है जिसकी शादी नहीं हो पा रही है। परिवार के सदस्‍यों के कुछ सपने हैं जिन्‍हें पूरा करने की जुगत भिड़ाते हुए जीवन की किन-किन और कैसी भी राहों से गुजरते हुए वे अपनी मंजिल पर पहुंचने के अरमान संजोये हुए हैं। अब छुट्टन को ही देख लीजिए किस प्रकार से वे अपनी पढ़ाई और प्रेम की पटरी बैठा रहे हैं-

छुट्टन का फिलहाल इरादा किसी भी तरह इंटर करने तथा बिब्‍बो के प्‍यार को और परवान चढ़ाने का था। इंटर के लिए उन्‍होंने किताबें न खरीदकर यह पता करना शुरू कर दिया था कि इस वर्ष किस गांव का प्रिंसिपल पैसा लेकर सामूहिक नकल कराने वाला है। और, दूसरे पवित्र उद्देश्‍य की पूर्ति हेतु उन्‍होंने कुछ शेरो-शायरी की किताबें कबाड़ लीं थीं, जिनसे मारक शेर टीपकर वे प्रेम-पत्रों में अपेक्षित वजन पैदा करते थे।

छुट्टन की पटरी बैठ भी जाती है-

छदामी ने बताया कि ग्राम रहटी, तहसील अलीपुरा में एक भला आदमी प्रिंसिपल बन गया है। संयोग से उसके पांच लड़कियां हैं। आदमी गऊ है, पर दूध बेचकर तो दहेज जुटता नहीं। आदमी गऊ है सो रेट भी फिक्‍स नहीं कर रखी है- जो जितना दे दे, ले लेता है। नकल की माकूल व्‍यवस्‍था स्‍कूल में कर रखी है। क्‍योंकि आदमी एकदम गऊ है तो कोई शिकायत नहीं करता।

बाकी के अन्‍य भाईयों ने भी कुछ लक्ष्‍य तय कर रखे हैं पर मामला उनके हिसाब से फिट ही नहीं हो पा रहा है।

परिस्थिति और घटना किसी भी प्रकार की हो, उसे व्‍यक्‍त करने का ज्ञानजी का अपना अंदाज है।-

अलीपुरा में जिसे मरना होता, वह गर्मियों की प्रतीक्षा करता। वैसे सर्दियों और बरसात आदि में भी आदमी के मरने का माकूल इंतजाम था और वह बाढ़, सांप के काटने, निमोनिया आदि से मर सकता था, परंतु गर्मियों में अवसर स्‍वर्णावसरों की भांति मिलते। हैजा फैल जाता और कुछ मर जाते। पेचिश होती और रामलाल की बहू, जो रामलाल द्वारा रोज लात-घूंसों की वज्र मार मारे जाने पर भी नहीं परी थी, पेचिश से मर जाती।

बुंदेलखण्‍ड के लोगों की फिलासफी है आल्‍हा की वह पंक्ति- जिनके बैरी चैन से सोवें, उसके जीवन को धिक्‍कार। अपराध के बारे में वहां के लोगों की अपनी अलग धारणाएं हैं। सामान्‍यतया सोच यह है कि मर्डर अपराध नहीं बल्कि बैरी से बदला लेकर जनम सफल करने का साधन मात्र है। लोगों में आत्‍मसम्‍मान की भावना बहुत प्रबल है और इसके लिए किसी को लुढ़का देना गलत नहीं माना जाता। लट्ठबाजी, मारपीट, किसी का सिर फोड़ देना, किसी के पेट में चक्‍कू घुसेड़कर घुमा देना और फौजदारी के मामले में कोर्ट-कचहरी के चक्‍कर लगाने वालों को वहां सम्‍मान के साथ देखा जाता है। तभी तो छुट्टन और छदामी दोनों लालारामजी की गुंडागर्दी, ल‍ट्ठबाजी, डकैती, मर्डरों की चर्चा ऐसे आदर के साथ करते हैं जैसे नेहरू या गांधी की जीवनी के प्रेरक-प्रसंगों की चर्चा कर रहे हों।

यहां तो अपराध बाद में करते हैं, पहले जमाने भर को बता देते हैं। रात में दो बजे भी कत्‍ल कर के आ रहे हैं तो रास्‍ते में सभी दोस्‍तों और रिश्‍तेदारों का जगा-जगाकर बताते आते हैं कि आज जटाशंकर को टपका दिया। जेबकटी जैसे टुच्‍चे धंधों को ये अपनी शान के विरुद्ध मानते हैं।

झांसी में जन्‍में और वहीं अपने जीवन का शुरूआती हिस्‍सा बिताने वाले लेखक ने बुंदेलखण्‍डी जीवन के विभिन्‍न पहलुओं पर कटाक्ष करते हुए इस बात को ध्‍यान में रखा है कि कहानी में रोचकता बनी रहे। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इस मजेदार किस्‍सागोई में उन्‍होंने अपने बुंदेलखण्‍डी जीवन के अनुभव समेटे हैं। उनका हास्‍यबोध लाजवाब है। मेरे हिसाब से एक व्‍यंग्‍य लेखक की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस हद तक गंभीर व्‍यंग्‍य को हास्‍य की चाशनी में लपेट पाता है और ज्ञान चतुर्वेदी बारामासी में व्‍यंग्‍य के साथ-साथ पढ़ने वाले को हंस-हंसकर लोटपोट हो जाने को मजबूर कर देते हैं।

लंदन के इंदु शर्मा सम्‍मान से पुरस्‍कृत लेखक की यह कृति यकीनन व्‍यंग्‍य में रुचि रखने वालों के लिए एक नायाब तोहफा है।

पुस्‍तक- बारामासी
लेखक- ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्‍य- 95 रुपये
(पेपरबैक संस्‍करण)

Monday, September 24, 2007

राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ की आवश्‍यकता पर कुछ प्रश्‍न

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के एक जज की टिप्‍पणी से एक बेतुकी और निरर्थक सी बहस का जन्‍म हुआ कि गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ बनाया जाए या नहीं? इस विषय पर लोगों के अपने-अपने मत हो सकते हैं। परंतु यह बात काबिले गौर है कि अधिकांश बुद्धिजीवियों, संपादकों और लेखकों ने भी इस बात पर अपनी सहमति प्रकट की कि हमारे महान धर्मग्रंथ गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ बनाये जाने से देश का कुछ न कुछ भला ही होगा। इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के माननीय न्‍यायाधीश की टिप्‍पणी से अलबत्‍ता केंद्र सरकार जरूर सकते में आ गई और उसके विधि मंत्री ने तुरत-फुरत ही भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्‍ट्र होने का हवाला देते हुए ऐसी किसी आवश्‍यकता या संभावना को खारिज कर दिया। इस प्रकार के मुद्दों पर राजनीतिक दलों की आमतौर पर प्रतिक्रिया वोटबैंक केंद्रित ही होती है और इससे ज्‍यादा उनसे किसी प्रकार की उम्‍मीद भी नहीं की जा सकती। पर बहस के मूल में यह बात है कि क्‍या गीता को वाकई राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ घोषित किया जाना चाहिए? यदि हां तो ऐसा किये जाने के उद्देश्‍य और उसके परिणाम क्‍या होंगे?

इसके समर्थकों का तर्क है कि इस प्रकार के धर्मग्रंथ से हमारे राष्‍ट्र में, समाज में उच्‍च आदर्शों की स्‍थापना को बढ़ावा मिलेगा। गीता में जिस कर्मयोग की महत्‍ता प्रतिपादित की गई है, उसे फिर से जनमानस में प्रतिष्ठित किया जा सकेगा। नैतिकता के उच्‍च आदर्शों की प्राप्ति भी इस धर्मग्रंथ को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ का दर्जा देने से सहज ही हो जायेगी, ऐसा उनका सोचना है। परंतु इस प्रकार के लोग अक्‍सर भूल जाते हैं कि महात्‍मा गांधी को राष्‍ट्रपिता मानने वाले देश का असली चरित्र क्‍या है? बुद्ध, महावीर और मर्यादा पुरुषोत्‍त्‍म राम की जन्‍मभूमि वाले इस देश में क्‍या इस प्रकार की थोथी घोषणाओं से नैतिक प्रतिमानों की पुनर्स्‍थापना संभव है?

यह निर्विवाद है कि गीता हमारी अमूल्‍य धार्मिक एवं ऐतिहासिक धरोहर है और इसका संदेश केवल हिंदुओं के लिए ही नहीं बल्कि सभी धर्म के अनुयायियों के लिए अनुकरणीय है। परंतु हमें यह भी गौर करना होगा कि इस प्रकार का प्रेरणास्‍पद ग्रंथ क्‍या वाकई राष्‍ट्रजीवन में उच्‍च आदर्शों की स्‍थापना में योगदान कर सकता है? स्‍पष्‍ट तौर पर नहीं ! क्‍योंकि स्‍वतंत्रता के पिछले साठ वर्षों में हमने जिस प्रकार के राष्‍ट्रीय चरित्र और संस्‍कृति का निर्माण किया है वह मात्र दिखावे से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार के खोखले चरित्र की नींव पर महान सिद्धांतों, आदर्शों और मूल्‍यों की स्‍थापना कतई नहीं हो सकती।

आजादी से पहले के नेताओं की गौरवशाली विरासत कुछ ही सालों में धूल में मिला देने वाले देश में यह बात कितनी बेहूदा प्रतीत होती है कि मात्र किसी धर्मग्रंथ के प्रभाव से उस महान विरासत को पुनर्जीवन मिल सकेगा। आज जब संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ द्वारा आगामी 2 अक्‍टूबर से गांधी जयंती को अंतर्राष्‍ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जा रहा है तब यह विचारणीय है कि गांधी की हमारे राष्‍ट्रजीवन में क्‍या प्रासंगिकता बची रह गई है। क्‍यों उनकी विचारधारा को फिल्‍मों की बैसाखी के सहारे ढोने का दिखावा किया जाता है। राष्‍ट्रपिता घोषित करने के बावजूद हमने उनके विचारों को सादा जीवन उच्‍च विचार की बजाय उच्‍च जीवन तुच्‍छ विचार में परिणत कर दिया है। जब मात्र साठ वर्षों में हमने उनकी विरासत को आगे बढ़ाने की बजाय मटियामेट कर दिया तो फिर किस आधार पर कोई व्‍यक्ति यह कल्‍पना कर लेता है कि सदियों पुरानी धार्मिक विरासत को लोगों के बीच इतनी आसानी से मान्‍यता मिल जायेगी। यहां मान्‍यता शब्‍द को मैं भिन्‍न संदर्भ में प्रयोग कर रहा हूं। कुछ लोगों के लिए मान्‍यता का अर्थ उसकी जय-जयकार, उसकी प्रशंसा या उस पर गर्व करना हो सकता है। जबकि मेरा मानना है कि जब तक व्‍यक्ति अपने आचरण से किसी को मान्‍य नहीं करता है तब तक सभी प्रकार की मान्‍यताएं दिखावा मात्र हैं। हम लोग हमेशा अपनी प्रचीन और महान भारतीय सभ्‍यता के दंभ में फूले रहते हैं। जबकि आज उसी देश में एक ओर किसान आत्‍महत्‍या करते हैं और दूसरी ओर हमारी मायानगरी मुंबई गणेशोत्‍सव पर करोड़ों-अरबों रुपए फूंक देती है।

हमारी समस्‍या ये है कि हम अपने महापुरुषों पर गर्व तो करते हैं पर उनके अनुकरण में असुविधा महसूस करते हैं। राम के अस्तित्‍व के प्रश्‍न को लेकर पूरे देश की आस्‍था राम के संबंध में प्रकट होती है परंतु यह भी एक तथ्‍य है कि मर्यादा पुरुषोत्‍तम के पूजक इस देश में ही गरीबी और भुखमरी से पीडि़त लोगों तक पहुंचने के लिये आवंटित अनाज भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ जाता है। क्‍या केवल पूजा मात्र से, जय-जयकारों से या ढकोसलों से हम एक महान राष्‍ट्र का निर्माण कर सकेंगे? क्‍या गीता को राष्‍ट्रीय धर्मग्रंथ घोषित करने के पश्‍चात् ही लोग उसका महत्‍व जान पायेंगे? गीता, रामायण हमारे देश के अधिकांश घरों के पूजाघरों में मिल जायेगीं। परंतु क्‍या पूजाघरों में रख देने से हमने उनके निहितार्थ को ग्रहण कर लिया?

भारत में धार्मिक कहे जाने वाले बहुत से लोग सुबह नहा-धोकर गीता पाठ करते हैं परंतु अपने सार्वजनिक जीवन में वे उन्‍हीं बुराईयों से युक्‍त हैं जिनके कारण देश को भ्रष्‍टाचार की सूची में अव्‍वल स्‍थान मिलता है। धर्मग्रंथों को पवित्र मानकर उनकी पूजा करने वाले घरों में भी कन्‍या भ्रूण-हत्‍या जैसे जघन्‍य अपराध अंजाम दिये जाते हैं। हर वर्ष दशहरे पर हम रावण नामक मिथकीय चरित्र के पुतले फूंककर बुराई पर अच्‍छाई का जश्‍न मनाते हैं। इसके बावजूद क्‍या हम अपने अंदर की बुराईयों का समूल नाश करने के लिए तत्‍पर हैं?

निष्‍कर्ष स्‍पष्‍ट है कि किसी ग्रंथ की मात्र पूजा कर लेने या उसे उच्‍च स्‍थान पर प्रतिष्ठित कर देने भर से देश का भला होने वाला नहीं है। जब तक कि हम वाकई अपने राष्‍ट्र, उसकी उन्‍नति और स्‍वयं अपनी उन्‍नति के प्रति समर्पित नहीं हैं। बुराई को मिटाने के लिए हमें खुद के भीतर झांकना होगा ना कि धर्मग्रंथों की झांकी लगाने से इसका निवारण संभव होगा। क्‍या हमें इस मामले में पश्चिम से सीख नहीं लेनी चाहिए कि बिना किसी धर्मग्रंथ और धार्मिक चोंचलों के बिना वे अपने नागरिकों को एक बेहतर जीवन स्‍तर प्रदान करने में सक्षम हो सके हैं।

Wednesday, September 12, 2007

दर्शन दे-दे बिजली मैया जियरा ब्‍लागिंग को तड़पे

कुछ समय पहले हमने जोर-शोर से घोषणा की कि अब तो हमारा नाम ब्‍लाग-जगत में नियमित लेखकों में शुमार होकर रहेगा। पर हाय रे किस्‍मत! हमारी बिजली मैया को ये घोषणा रास न आई। तब से लेकर आज तक बिजली हमें ठेंगा दिखा रही है कि लो बेट्टा कल्‍लो ब्‍लागिंग। बिजली मैया पहले भी अंतर्धान होती थी पर इस बार से कुछ ऐसा संयोग बना कि जब भी कुछ लिखने का आइडिया दिमाग में आया बिजली गुल। लगता है हमारे दिमाग और बिजलीघर के फ्यूज वायर का कुछ संबंध है तभी तो इधर कुछ लिखने के बारे में दिमाग पर जोर डाला, उधर बिजली गुल। शायद ज्‍यादा लोड नहीं झेल पाता।

चंबल क्षेत्र में बारिश के मौसम में बाजरे की फसल बहुत होती है। पर हर साल की तरह इस बार भी बारिश कम हुई तो किसानों के मुंह लटक गए। पर हमें क्‍या ! हम न तो बाजरा उगाते हैं, न खाते हैं। हम क्‍या जानें किसानों का दर्द। पर जबसे बिजली मैया ने हमें तरसाना शुरू किया तब हमें जाकर किसानों का दर्द समझ में आया कि कैसे वो टकटकी लगाकर बादलों का इंतजार करते हैं। वैसे भी भारत में बिजली और मानसून में बहुत समानता है। किसान लोग फसल के लिए मानसून की बाट जोहते हैं और दूसरे शहरी लोग अपने रोजमर्रा के कामों के लिए बिजली की। वैसे आजकल हमारे प्रदेश की सत्‍ताधारी पार्टी भी अपने विकास कार्यों की ढपली बजाते हुए विकास शिविर लगाकर लोगों को बता रही है कि पिछले समय में प्रदेश में कितना धुंआधार विकास हुआ है। पर लोगों को उनकी बात समझ में ही नहीं आती उन्‍हें तो 24 घंटे बिजली चाहिए। चौबीस घंटे तो भैया सूर्य देव भी अपना प्रकाश नहीं देते फिर ये तो बिजली है।

हमारे दिमाग में यकायक एक खयाल आया कि क्‍यों न गुलजार साब को ही एक चिट्ठी लिख दें। सुना है हाल ही में उन्‍होंने माचिस की बजाय जिगरे से बीड़ी जलाने का तरीका ईजाद किया है। उसी तरह उनसे गुजारिश कर दें कि बिना बिजली के हिन्‍दी ब्‍लागर्स के लिए भी ब्‍लागिंग करने का कोई फार्मूला निकालें। वैसे भी उनका हिन्‍दी के विकास में बड़ा योगदान है। थोड़ा और सही। पर हमें इधर भारतीय डाक विभाग पर भरोसा नहीं रहा कि वो हमारी चिट्ठी पहुंचा ही देगा या लेटरबाक्‍स में पानी भरने से उसका राम नाम सत्‍त हो जाएगा। सो ब्‍लागर बंधुओं से भी गुजारिश है कि वे भी अपने स्‍तर पर प्रयास करके ये संदेश गुलजार साब तक पहुंचाएं।

खैर एकमात्र खुशी की बात यह है कि अभी-अभी हमारे निकटवर्ती शहर के ब्‍लागर मित्र प्रतीक पाण्‍डे की तरफ से एक सुझाव आया है। उन्‍होंने बड़ी नेक सलाह दी है कि जब भी कोई नया आइडिया दिमाग में कुलबुलाए उसे डायरी पर नोट कर लीजिए। फिर जब भी बिजली मैया की कृपा हो तो टुकड़ों-टुकड़ों में उसे टाइप कर डालिए और कर दीजिए पोस्‍ट। सो प्रतीक भाई की सलाह मानकर यह पोस्‍ट लिखी जा सकी है। इसलिए इसका श्रेय भी उन्‍हीं को दिया जाना चाहिए। हां, यदि गलती से आपको ये पोस्‍ट अच्‍छी लगे तो श्रेय अपुन को भी दिया जा सकता है।:)

Thursday, August 23, 2007

मुझे कानून पर पूरा भरोसा है

अपने मुन्‍नाभाई जेल से आकर यही ढिंढोरा पीट रहे हैं। वैसे अब ये कौन सी नयी बात है। वे तो शुरू से ही ये कहते आ रहे हैं और आगे भी कहते रहेंगे। कहो भैया खूब कहो, हमको कौनो प्राब्‍लम नहीं है। वैसे भी इस देश के कानून में सबसे ज्‍यादा भरोसा ऐसे अपराधियों, राजनेताओं का ही रह गया है। कुछ दिन पहले मोनिका बेदी भी दिखीं थीं टीवी पर। जेल से निकलने के बाद अपना फोटो सेशन कराते हुए और घोषणा करते हुए कि उनका इस देश के कानून में भरोसा है। भरोसा काहे न हो भाई जब सौ चूहे खाने वाली बिल्‍ली की हज यात्रा का पूरा इंतजाम बाइज्‍जत हो गया हो।

एक कहावत है: Justice delayed is justice denied. बेचारा मुन्‍नाभाई जिसने लुच्‍चों-लफंगों तक को गांधी के विचारों से अवगत कराया। सबको अहिंसा का पाठ पढ़ाया। जो कि बड़े-बड़े राजनेता तक न कर सके। पर फिर भी बेचारे को चौदह साल से कचहरी के चक्‍कर कटवाये जा रहे हैं। और गुनाह भी क्‍या- आर्म्‍स एक्‍ट में दोषी। कभी हमारे चंबल रीजन में तलाशी अभियान चलाया जाय तो हर घर में कोई न कोई आर्म्‍स एक्‍ट वाला केस मिल जायेगा(हालांकि मुझ जैसे चिरकुट जिन्‍होंने ठीक से गाली देना भी नहीं सीखा, इनमें शामिल नहीं हैं)। और बिहार में तो सुना है कि क्‍लाश्निकोव के बड़े-बड़े निर्माता मौजूद हैं। फिर एक बेचारे अभिनेता पर ऐसा अन्‍याय क्‍यों? जमानत मिलने पर भी अब बेचारे पर तलवार लटकी है। थाने में हाजिरी लगाओ फिर कोर्ट के लिखित आर्डर मिल जाने पर सरेंडर करो। फिर भी बेचारा कानून में पूरा विश्‍वास जता रहा है। अरे इतने पर तो हमारे कानून को उसका आभारी होना चाहिए। जब देश के बड़े-बड़े बुद्धिजीवी गाहे-बगाहे ढिंढोरा पीटते रहते हैं कि उनका इस देश के कानून से विश्‍वास उठता जा रहा है, उस समय भी एक(बेचारा) अभिनेता कह रहा है कि उसका देश के कानून में पूरा विश्‍वास है। इसके लिए तो उसे सजा देने की बजाय उसका नागरिक अभिनंदन की तर्ज पर कानूनन अभिनंदन होना चाहिए और एक भव्‍य समारोह आयोजित करके हमारे मुख्‍य न्‍यायाधीश और सी.बी.आई. को घोषणा करनी चाहिए कि देख लो सियारों* अब हमें तुमसे सर्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं, अब हमको भी गांधी की तरह अपना एक ब्रांड अंबेसेडर मिल गया है। जिसकी अगली फिल्‍म के रिलीज होने के बाद देश का बच्‍चा-बच्‍चा भी कहता नजर आयेगा- मुझे कानून पर पूरा भरोसा है।

*गौरतलब है कि एक जगह हरिशंकर परसाई ने लिखा है- इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं।

लो हम फिर आ गये झिलाने

प्रतीक भाई बहुत दिन से कह रहे हैं कुछ लिखते काहे नहीं। काहे ब्‍लागिंग बंद कर रखी है। हमने बहाना लगा दिया कि बिजी हैं, पढ़ाई का दबाव है आदि आदि। प्रतीक भाई भी कहां किसी से कम पड़ते हैं। उन्‍होंने रट लगानी शुरू कर दी कि- नहीं अब तो लिखना ही पड़ेगा, आप बहुत अच्‍छा लिखते हैं, आपका लिखा पढ़ने से असीम आनंद मिलता है। अब हम उनको क्‍या कहें?

एक बेसुरे बाथरूम सिंगर से कहिये कि वाह आपकी आवाज कितनी मीठी है, आपको तो सारेगामा में होना चाहिए था तो वह कुछ उछलने जैसी प्रतिक्रिया करेगा। पर हम समझदार आदमी हैं। हमको पता है सामने वाला बंदा हमें चने के झाड़ पे चढ़ाए बिना मानेगा नहीं और उतरना हमें खुद ही पड़ेगा। इसलिए वो हमें और चने के झाड़ पे चढ़ाएं, इससे पहले ही हमने डिसाइड कर लिया कि अब हम नियमित लिखा करेंगे। वैसे भी बकौल श्रीलाल शुक्‍ल अधिकांश लेखन मुरव्‍वत का नतीजा होता है।

लीजिए हो गया न कबाड़ा! बात हो रही थी झिलाने की और पहुंच गयी लेखन पर। यही होता है जब एक ठर्रा पीने वाले को अंग्रेजी पिला दी जाए तो वह सातवें आसमान में उड़ने लगता है। इधर प्रतीक ने हमको चढ़ाया और उधर हम वाया लेखन श्रीलाल शुक्‍ल तक पहुंच गये। पर भाई लोग ये तो सभी जानते हैं कि इस टाइप के आदमी को छेड़ना खतरनाक होता है क्‍योंकि जब वह अपनी रौ में आता है तो सब दूर भाग जाते हैं कहते हुए- बहुत झिलाता है। एक उदाहरण यहां मधुमक्‍खी के छत्‍ते का भी दिया जा सकता है।

तो भाई अब छेड़ ही दिया है तो लीजिए आज से फिर झेलना शुरू कीजिए।

Thursday, July 05, 2007

Hindi Story of Leo Tolstoy- सूरत का कहवाघर

दुनिया में अनेक धर्मों और उनके मानने वालों की ईश्‍वर के बारे में अपनी-अपनी धारणाएं हैं। सबके अपने-अपने भगवान हैं और अपने भगवान को श्रेष्‍ठ साबित करने की एक होड़ सबमें मची हुई है। पर उस होड़ के परे जाकर क्‍या हमने कभी सोचा है कि भगवान क्‍या है? ‘वार एंड वीस’ और ‘अन्‍ना करेनिना’ जैसी महान कृतियों के लेखक लियो टॉल्‍सटॉय इस बारे में कुछ कह रहे हैं अपनी इस कहानी में। कहानी का घटनास्‍थल है भारत के सूरत शहर का एक कॉफी हाउस-



कहानी- सूरत का कहवाघर

लेखक- लियो टॉल्‍सटॉय


सूरत नगर में एक कहवाघर था, जहां अनेकानेक यात्री और विदेशी दुनियाभर से आते थे और विचारों का आदान-प्रदान करते थे। एक दिन वहां फारस का एक विद्वान आया। पूरी जिंदगी ‘प्रथम कारण’ के बारे में चर्चा करते करते उसका दिमाग ही चल गया था। उसने यह सोचना शुरू कर दिया था कि सृष्टि को नियंत्रण में रखने वाली कोई उच्‍च सत्‍ता नहीं है। इस व्‍यक्ति के साथ एक अफ्रीकी गुलाम भी था, जिससे उसने पूछा- बताओ, क्‍या तुम्‍हारे ख्‍याल में भगवान है? गुलाम ने अपनी कमरबंद में से किसी देवता की लकड़ी की मूर्ति निकाली और बोला- यही है मेरा भगवान, जिसने जिंदगी भर मेरी रक्षा की है। गुलाम का जवाब सुनकर सभी चकरा गए। उनमें से एक ब्राह्मण था। वह गुलाम की ओर घूमा और बोला- ब्रह्म ही सच्‍चा भगवान है। एक यहूदी भी वहां बैठा था। उसका दावा था- इस्राइल वासियों का भगवान ही सच्‍चा भगवान है, वे ही उसकी चुनी हुई प्रजा हैं। एक कैथोलिक ने दावा किया- भगवान तक रोम के कैथोलिक चर्च द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। लेकिन तभी एक प्रोटेस्‍टेंट पादरी जो वहां मौजूद था, बोल उठा- केवल गॉस्‍पेल के अनुसार प्रभु की सेवा करने वाले प्रोटेस्‍टेंट ही बचेंगे। कहवाघर में बैठे एक तुर्क ने कहा- सच्‍चा धर्म मुहम्‍मद और उमर के अनुयायियों का ही है, अली के अनुयायियों का नहीं। हर कोई दलीलें रख रहा था और चिल्‍ला रहा था। केवल एक चीनी ही, जो कि कनफ्यूशियस का शिष्‍य था, कहवाघर के एक कोने में चुपचाप बैठा था और विवाद में हिस्‍सा नहीं ले रहा था। तब सभी लोग उस चीनी की ओर घूमे और उन्‍होंने उससे अपने विचार प्रकट करने को कहा।

कनफ्यूशियस के शिष्‍य उस चीनी ने अपनी आंखें बंद कर लीं और क्षण भर सोचता रहा। तब उसने आंखें खोलीं, अपने वस्‍त्र की चौड़ी आस्‍तीनों में से हाथ बाहर निकाले, हाथ को सीने पर बांधा और बड़े शांत स्‍वर में कहने लगा- मित्रगण, मुझे लगता है, लोगों का अहंकार ही धर्म के मामले में एक-दूसरे से सहमत नहीं होने देता। मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहता हूं, जिससे ये बात साफ हो जाएगी।

- मैं यहां चीन से एक अंग्रेजी स्‍टीमर से आया। यह स्‍टीमर दुनिया की सैर को निकला था। ताजा पानी लेने के लिए हम रुके और सुमात्रा द्वीप के पूर्वी किनारे पर उतरे, दोपहर का वक्‍त था। हममें से कुछ लोग समंदर के किनारे ही नारियल के कुंजों में जा बैठे। निकट ही एक गांव था। हम सब लोगों की राष्‍ट्रीयता भिन्‍न-भिन्‍न थी।

- जब हम बैठे हुए थे, तो एक अंधा आदमी हमारे पास आया। बाद में हमें मालूम हुआ कि सूर्य की ओर लगातार देखते रहने के कारण उसकी आंखें चली गई थीं- वह जानना चाहता था कि सूर्य आखिर है क्‍या, ताकि वह उसके प्रकाश को पकड़ सके।

- यह जानने के लिए ही वह सूर्य की ओर देखता रहा। परिणाम यही हुआ कि सूर्य की रोशनी से उसकी आंखें दुखने लगीं और वह अंधा हो गया।

- तब उसने अपने आपसे कहा- सूर्य का प्रकाश द्रव नहीं है, क्‍योंकि यदि वह द्रव होता, तो इसे एक पात्र से दूसरे पात्र में उड़ेला जा सकता था, तब यह पानी और हवा की तरह चलता। यह आग भी नहीं है, क्‍योंकि अगर यह आग होता, तो पल भर में बुझ सकता था। यह कोई आत्‍मा भी नहीं है, क्‍योंकि आंखें इसे देख सकती हैं। यह कोई पदार्थ भी नहीं है, क्‍योंकि इसे हिलाया नहीं जा सकता। अत:, क्‍योंकि सूर्य का प्रकाश न द्रव है, न अग्नि है, न आत्‍मा है और न ही कोई पदार्थ, यह कुछ भी नहीं है।

- यही था उसका तर्क। और, हमेशा सूर्य की ओर देखते रहने और उसके बारे में सोचते रहने के कारण वह अपनी आंखें और बुद्धि दोनों ही खो बैठा। और जब वह पूरी तरह अंधा हो गया, उसे पूरा विश्‍वास हो गया कि सूर्य का अस्तित्‍व ही नहीं है।

- इस अंधे आदमी के साथ एक गुलाम भी था, उसने अपने स्‍वामी को नारियल कुंज में बैठाया और जमीन से एक नारियल उठाकर उसका दिया बनाने लगा। उसने नारियल के रेशों से एक बत्‍ती बनाई, गोले में से थोड़ा तेल निचोड़कर खोल में डाला और बत्‍ती को उसमें भिगो लिया।

- जब गुलाम अपने काम में मस्‍त था, अंधे आदमी ने सांस भरी और उससे बोला- तो दास भाई, क्‍या मेरी बात सही नहीं थी, जब मैंने तुम्‍हें बताया था कि सूर्य का अस्तित्‍व ही नहीं है। क्‍या तुम्‍हें दिखाई नहीं देता कि अंधेरा कितना गहरा है? और लोग फिर भी कहते हैं कि सूर्य है.... अगर है, तो फिर यह क्‍या है?

- मुझे मालूम नहीं है कि सूर्य क्‍या है- गुलाम ने कहा- मेरा उससे क्‍या लेना-देना ! पर मैं यह जानता हूं कि प्रकाश क्‍या है। यह देखिए, मैंने रात्रि के लिए एक दीया बनाया है, जिसकी मदद से मैं आपको देख सकता हूं।
-तब गुलाम ने दिया उठाया और बोला- यह है मेरा सूर्य।

- एक लंगड़ा आदमी, जो अपनी बैसाखियां लिए पास ही बैठा था, यह सुनकर हंस पड़ा- लगता है तुम सारी उमर नेत्रहीन ही र‍हे- उसने अंधे आदमी से कहा- और कभी नहीं जान पाए कि सूर्य क्‍या है। मैं तुम्‍हें बताता हूं कि यह क्‍या है। सूर्य आग का गोला है, जो हर रोज समंदर में से निकलता है और शाम के समय हर रोज हमारे ही द्वीप की पहाडि़यों के पीछे छुप जाता है। अगर तुम्‍हारी नजर होती तो तुमने भी देख लिया होता।

- एक मछुआरा जो यह बातचीत सुन रहा था, बोला- बड़ी साफ बात है कि तुम अपने द्वीप से आगे कहीं नहीं गए हो। अगर तुम लंगड़े न होते और अगर तुम भी मेरी तरह नौका में कहीं दूर गए होते, तो तुम्‍हें पता चलता कि सूर्य हमारे द्वीप की पहाडि़यों के पीछे अस्‍त नहीं होता। वह जैसे हर रोज समंदर में से उदय होता है, वैसे ही हर रात समंदर में ही डूब जाता है।

- तब एक भारतीय, जो हमारी ही पार्टी का था, यों बोल उठा- मुझे हैरानी हो रही है कि एक अक्‍लमंद आदमी ऐसी बेवकूफी की बातें कर रहा है। आग का कोई गोला पानी में डूबने पर बुझने से कैसे बच सकता है? सूर्य आग का गोला नहीं है। वह तो देव नाम की दैवीय श‍क्ति है, और वह अपने रथ में बैठकर स्‍वर्ण-पर्वत मेरू के चारों ओर चक्‍कर लगाता रहता है। कभी-कभी राहु और केतु नाम के राक्षसी नाग उस पर हमला कर देते हैं और उसे निगल जाते हैं, तब पृथ्‍वी पर अंधकार छा जाता है। तब हमारे पुजारी प्रार्थना करते हैं, ताकि देव का छुटकारा हो सके। तब यह छोड़ दिया जाता है। केवल आप जैसे अज्ञानी ही ऐसा सोच सकते हैं कि सूर्य केवल उनके देश के लिए ही चमकता है।

- तब वहां उपस्थित एक मिस्री जहाज का मालिक बोलने लगा- नहीं, तुम भी गलत कह रहे हो। सूर्य दैवीय शक्ति नहीं है और भारत और स्‍वर्ण-पर्वत के चारों ओर ही नहीं घूमता। मैं कृष्‍ण सागर पर यात्राएं कर चुका हूं। अरब के तट के साथ-साथ भी गया हूं। मड-गास्‍कर और फिलिपींस तक हो आया हूं। सूर्य पूरी धरती को आलोकित करता है, केवल भारत को ही नहीं, यह केवल एक ही पर्वत के चक्‍कर नहीं काटता रहता, जबकि दूर पूरब में उगता है- जापान के द्वीपों से भी परे और दूर पश्चिम में डूब जाता है- इंग्‍लैंड के द्वीपों से भी आगे कहीं, इसलिए जापानी लोग अपने देश को ‘निप्‍पन’ यानी ‘उगते सूरज का देश’ कहते हैं। मुझे अच्‍छी तरह मालूम है, क्‍योंकि मैंने काफी दुनिया देखी है।

- वह बोलता चला गया होता अगर हमारे जहाज के अंग्रेज मल्‍लाह ने उसे रोक न दिया होता। वह कहने लगा- दुनिया में और कोई ऐसा देश नहीं है, जहां के लोग सूर्य की गतिविधियों के बारे में इतना जानते हैं, जितना इंग्‍लैंड के लोग। इंग्‍लैंड में हर कोई जानता है कि सूर्य न तो कहीं उदय होता है, न ही अस्‍त। वह हर समय पृथ्‍वी के चारों ओर चक्‍कर लगाता रहता है। यह सही बात है, क्‍योंकि जहां कहीं भी हम गए, सुबह सूर्य निकलता और रात को डूबता दिखाई दिया- यहां की ही तरह।

- तब एक अंग्रेज ने एक छड़ी ली और रेत पर वृत्‍त खींचकर समझाने का प्रयास किया कि कैसे सूर्य आसमान में चलता रहता है और पृथ्‍वी का चक्‍कर लगाता रहता है। पर वह ठीक तरह समझा नहीं पाया और फिर जहाज के चालक की ओर इशारा करते हुए बोला- वह ठीक तरह समझा सकता है।

- चालक, जो काफी समझदार था, चुपचाप सुनता रहा था। अब सब लोग उसकी ओर मुड़ गए और वह बोला- आप सब लोग एक-दूसरे को बहका रहे हैं। आप सब धोखे में हैं। सूर्य पृथ्‍वी के चारों ओर नहीं, पृथ्‍वी सूर्य के चारों ओर घूमती है और चलते-चलते अपने चारों ओर भी घूमती है और चौबीस घंटों में सूर्य के आगे से पूरी घूम जाती है- केवल जापान, फिलीपींस, सुमात्रा ही नहीं, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका तथा अन्‍य प्रदेश भी साथ घूमते हैं, सूर्य किसी एक पर्वत के लिए नहीं चमकता, न किसी एक द्वीप या सागर या केवल हमारी पृथ्‍वी के लिए ही। यह अन्‍य ग्रहों के लिए भी चमकता है।

- आस्‍था के मामलों में भी- कनफ्यूशियस के शिष्‍य चीनी ने कहा- अहंकार ही है, जो लोगों के मन में दुराव पैदा करता है। जो बात सूर्य के संबंध में निकलती है, वही भगवान के मामले में सही है। हर आदमी अपना खुद का एक विशिष्‍ट भगवान बनाए रखना चाहता है- या ज्‍यादा से ज्‍यादा अपने देश के लिए हर राष्‍ट्र उस शक्ति को उस मंदिर में बंद कर लेना चाहता है।

- क्‍या उस मंदिर से किसी भी अन्‍य मंदिर की तुलना की जा सकती है, जिसकी रचना भगवान ने खुद सभी धर्मों और आस्‍थाओं के मानने वालों को एक सूत्र में बांधने के लिए की है?

- सभी मानवीय मंदिरों का निर्माण इसी मंदिर के अनुरूप हुआ है, जो कि भगवान की अपनी दुनिया है। हर मंदिर के सिंहद्वार होते हैं, गुंबज होते हैं, दीप होते हैं, मूर्तियां और चित्र होते हैं, भित्ति-लिपियां होती हैं, विधि-विधान-ग्रंथ होते हैं, प्रार्थनाएं होती हैं, वेदियां होती हैं और पुजारी होते हैं। पर कौन सा ऐसा मंदिर है, जिसमें समंदर जैसा फव्‍वारा है, आकाश जैसा गुंबज है, सूर्य-चंद्र और तारों जैसे दीप हैं और जीते-जागते, प्रेम करते मनुष्‍यों जैसी मूर्तियां हैं? भगवान द्वारा प्रदत्‍त खुशियों से बढ़कर उसकी अच्‍छाईयों के ग्रंथ और कहां हैं, जिन्‍हें आसानी से पढ़ा और समझा जा सके? मनुष्‍य के हृदय से बड़ी कौन-सी विधान-पुस्‍तक है? आत्‍म-बलिदान से बड़ी बलि क्‍या है? और अच्‍छे आदमी के हृदय से बड़ी कौन-सी वेदी है, जिस पर स्‍वयं भगवान भेंट स्‍वीकार करते हैं?

- जितना ऊंचा आदमी का विचार भगवान के बारे में होगा, उतना ही बेहतर वह उसे समझ सकेगा। और जितनी अच्‍छी तरह वह उसे समझेगा, उतना ही उसके निकट वह होता जाएगा।

- इसीलिए जो आदमी सूर्य की रोशनी को पूरे विश्‍व में फैला देखता है, उसे अंधविश्‍वासी को दोष नहीं देना चाहिए, न ही उससे घृणा करनी चाहिए कि वह अपनी मूर्ति में उस रोशनी की एक किरण देखता है। उसे नास्तिक से भी नफरत नहीं करनी चाहिए कि वह अंधा है और सूर्य को नहीं देख सकता। ये थे कनफ्यूशियस के शिष्‍य चीनी विद्वान के शब्‍द। कहवाघर में बैठे सभी लोग शांत और खामोश थे। फिर वे धर्म को लेकर नहीं झगड़े। न ही उन्‍होंने विवाद ही किया।

Wednesday, July 04, 2007

दस जनपथ रबर स्‍टांप कंपनी प्राईवेट लिमिटेड

दस जनपथ रबर स्‍टांप कंपनी फिर से सुर्खियों में है। 2004 के आम चुनावों के बाद से यह कंपनी लगातार सुर्खियों में ही रहती है। 2004 में जब पहली बार इस कंपनी ने पी.एम. ऑफिस के लिए एक बढि़या, मेहनती, ईमानदार, वफादार रबर स्‍टांप जारी किया था तब से ही इस कंपनी की धाक जम गई थी। समझदार लोगों ने तभी अनुमान लगा लिया था कि अब यह देश रबर स्‍टांपों के बलबूते चलेगा। राष्‍ट्रपति चुनाव नजदीक हैं इसलिए इस कंपनी की सीएमडी सोनिया गांधी अपनी कंपनी का नया प्रॉडक्‍ट लांच करने जा रही हैं। जैसा कि नाम से ही विदित है यह कंपनी रबर स्‍टांप निर्माण में महारत रखती है इसलिए इस कंपनी का नया प्रॉडक्‍ट भी एक रबर स्‍टांप ही होगा जिसकी डिलीवरी सीधे रायसीना हिल्‍स की जायगी। इस नये प्रॉडक्‍ट में इस बार दस जनपथ की सहयोगी कंपनी है- इंडियन कम्‍युनिस्‍ट इंक। यह कंपनी भी अपने क्षेत्र की एक जानी-मानी कंपनी है, पर इसका बाजार पूंजीकरण बहुत कम है। इसीलिए इस कंपनी ने बाजार पर अपनी पकड़ बनाने के उद्देश्‍य से दस जनपथ से हाथ मिलाया है।

वैसे दस जनपथ रबर स्‍टांप कंपनी कोई नयी कंपनी नहीं है। पहले इस कंपनी का नाम द ग्रेट इंदिरा चाटुकार मैन्‍युफैक्‍चरिंग कंपनी हुआ करता था। तब यह कंपनी मुख्‍यत: चाटुकार, चमचे, नतमस्‍तक, दण्‍डवतप्रणाम वाले, जैसे प्रॉडक्‍ट ही बनाया करती थी। पर आजकल इस कंपनी की सीएमडी सोनिया गांधी ने रबर स्‍टांप निर्माण को अपना प्रमुख लक्ष्‍य बनाया है। बाकी प्रॉडक्‍ट्स का निर्माण भी कंपनी यथावत कर रही है।

हां तो बात हो रही थी कंपनी के नये प्रॉडक्‍ट की। प्रॉडक्‍ट का नाम है- प्रतिभा पाटिल। कंपनी जहां अपने प्रॉडक्‍ट को बढि़या, टिकाऊ, शानदार और लोकप्रिय होने का दावा कर रही है, वहीं दूसरी कंपनियां इसे एक घटिया उत्‍पाद बताकर अपने उत्‍पाद की डिलीवरी होने की आस लगाये बैठी है। दक्षिण की एक कंपनी की मुखिया ने प्रतिभा पाटिल नाम के इस प्रॉडक्‍ट को देश के साथ मजाक तक बता दिया। ये मजाक है या नहीं ये तो पब्लिक जाने पर वे मोहतरमा खुद कितना बड़ा मजाक हैं यह भी गौर किया जाना चाहिए।

कुछ दिनों से इस बहुप्रचारित उत्‍पाद के समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि इसकी लांचिंग महिला सशक्तिकरण की दिशा में मील का पत्‍थर है क्‍योंकि प्रॉडक्‍ट का नाम किसी महिला से मिलता-जुलता लगता है। इस देश में महिला सशक्तिकरण चुटकियों में हो जाता है। किसी गधी को सजा-संवारकर बढि़या कुर्सी पर बिठा दो और हो गया देश की करोड़ों महिलाओं का सशक्तिकरण। इतना हो जाने पर क्‍या जरूरत रह जाती है लिंगभेद मिटाने, उनके सामाजिक उत्‍थान, उनकी शिक्षा, उन्‍हें बराबरी का हक दिलाने की। विदेशी सर्टिफिकेट ही तो लेना है। मिल जायेगा। अमेरिका में हिलेरी क्लिंटन मारती रहें हाथ-पैर, पर हमने उनसे पहले अपने देश की महिलाओं का सशक्तिकरण करके दिखा दिया और ये दिखावा ही तो परम सत्‍य है। बाकी तो सब छलावा है।

हमारे देश में लोग बेकार ही रोना रोते रहते हैं। पर देश की जो समस्‍याएं इतनी बड़ी लगती हैं वे वास्‍तव में उतनी बड़ी हैं नहीं। देखिये न हमारे देश की सबसे बड़ी कंपनी की सीएमडी सोनिया गांधी ने तो ये साबित करके भी दिखा दिया। महिला सशक्तिकरण का हल्‍ला सालों से मच रहा था और उन्‍होंने एक चुटकी में ही समस्‍या हल करके दिखा दी। लोग चिल्‍लाते रहते थे कि राजनीति से त्‍याग, समर्पण, कर्तव्‍य, नैतिक मूल्‍य सब नष्‍ट हो गये। पर सोनियाजी ने अपने ‘महान त्‍याग’ से सबको दिखा दिया कि भैया जब तक मुझ जैसी त्‍याग, बलिदान, नैतिकता की देवी इस देश में है राजनीति का स्‍तर बना रहेगा। कुछ समझदार यह बात समझ भी रहे हैं इसीलिए उन्‍होंने अभी से इस देवी के पोस्‍टर, कैलेंडर, फोटो आदि बनाकर पूजा भी शुरू कर दी है। बाकी बेवकूफ भी जितनी जल्‍दी इस बात को समझ ले उतनी ही जल्‍दी उनका कल्‍याण होगा।

अपन वापस लौटते हैं प्रॉडक्‍ट पर। पता नहीं क्‍यों बहुत से लोग प्रॉडक्‍ट की औपचारिक लांचिंग से पहले ही उसे डिफेक्‍टेड बताने में जुटे हैं। आजकल का मीडिया तो कुछ ज्‍यादा ही समझदार हो गया है। किसी की भी पोल-पट्टी पूछ लो इन गुरू लोगों से। किसी के चरित्र की भी खटिया खड़ी करवालो। पर अब ये गुरू लोग बता रहे हैं कि इस नये प्रॉडक्‍ट का चरित्र कुछ ठीक नहीं है। इसका चरित्र कमोबेश हमारे राजनेताओं से ही मिलता-जुलता है। ये भी सुना गया कि ये भूतों से भी बातें करता है और इसने इतिहास भी पढ़ रखा है। पर भाई अपनी तो इन लोगों को यही सलाह है कि जब कानूनी रूप से डिलीवरी का टेंडर सोनियाजी के पास है तो क्‍यों बेकार माथापच्‍ची करते हो। कहीं ये न हो कि दस जनपथ कंपनी आपके आरोपों से तंग आकर किसी साफ-सुथरे विदेशी रबर स्‍टांप को मंगवाकर डिलीवरी कर दे।

Tuesday, July 03, 2007

जाओ नहीं देते ताज को वोट क्‍या कल्‍लोगे

ताज ने तो स्‍साला नाक में ही दम कर दिया। अखबार उठा के देखो तो ताज, इंटरनेट पर जाओ तो ताज और अब तो खुद को देशप्रेमी कहने वाले कुछ लोग सड़क पर भी हल्‍ला मचाते दिख जायेंगे कि ताज को वोट दो, वोट दो। यार हमारी मंद अकल में तो ये बातें समझ में ही नहीं आतीं कि ताज को वोट देने से कैसे देश का गौरव बढ़ जाता है? क्‍यों यह इमारत मोहब्‍बत की मिसाल है? देशप्रेम का इससे क्‍या लेना-देना है? खैर जब लोग कह रहे हैं तो कुछ सोचकर ही कह रहे होंगे।

भई अपनी अल्‍पबुद्धि से जब हमने विचार किया कि क्‍यों ताज को वोट दिया जाय तो पता चला कि कोई सेवन वंडर्स फाउंडेशन है जो दुनिया भर के कुछ चुनिंदा स्‍मारकों की कोई लिस्‍ट-फिस्‍ट बना रहा है और लोगों से वोटिंग करने को कह रहा है। अब देशभर में हल्‍ला हो रहा है कि हमारा ताज तो इस लिस्‍ट में आना ही चाहिए, नहीं तो देश की नाक कट जायगी। मेरी समझ में ये नहीं आता कि क्‍यों देश की नाक विदेशी सर्टिफिकेट से ही जुड़ती है। जब सबको पता है कि ताज सौदर्य का और मुहब्‍बत का प्रतीक है तो ऐसी इमारत को विश्‍व की अन्‍य खंडहर और भुतहा इमारतों से होड़ करने की क्‍या जरूरत आन पड़ी? पर वही गुलाम मानसिकता ! किसी विदेशी ने कहा कि बेटा करो वोटिंग तभी हम मानेंगे कि तुम्‍हारा ताज वाकई कुछ है तो हम हो गये शुरू। और फिर है कौन ये सेवन वंडर्स फाउंडेशन जिसे ताज को सर्टिफिकेट देने का ठेका मिल गया। यदि कल को मैं कोई फाउंडेशन बना लूं और कहूं कि भैया करो वोट कि कौन सी इमारत स्‍थापत्‍य की दृष्टि से विश्‍व में सर्वोत्‍तम है। पर इसके लिए औकात भी चाहिए जो मेरी है नहीं। पर ऐसे किसी संगठन का कोई अधिकारिक आधार है क्‍या? यूनेस्‍को तक से उसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं।


ताज को पता नहीं क्‍यों लोग सौदर्य, मुहब्‍बत और प्रेम की निशानी बताते हैं। मेरे ख्‍याल से तो ये इमारत मूर्खता और अहंकार का प्रतीक है। शाहजहां के पास दौलत थी तो उसने दुनिया को दिखाया कि मुझसे ज्‍यादा प्रेम आज तक किसी ने अपनी महबूबा से नहीं किया। यह कितनी बड़ी मूर्खता है कि आज भी लोग शाहजहां के मुहब्‍बत के किस्‍से बड़े फख्र से सुनते हैं और ताज को उसके अमर प्रेम का प्रतीक बताते हैं। मतलब जो अपनी मुहब्‍बत को दौलत में तौल दे, महंगी और सुंदर इमारत बनवा दे उसका प्रेम महान। हम जैसे लोग जो अपनी गर्लफ्रेंड को फाइवस्‍टार में एक बार डिनर भी न करा सकें, उनका प्रेम झूठा। इस हिसाब से तो नंबर दो की कमाई वाले नेता, अफसर जो अनाप-शनाप पैसा कॉलगर्ल्‍स पे लुटाते हैं और रखैलें रखते हैं, उनका प्‍यार भी महान। पर यहां प्‍यार कहां होता है पता ही नहीं चलता। साहिर लुधियानवी ने ताज के बारे में बिलकुल सही कहा है कि ‘एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर हम गरीबों की मुहब्‍बत का मजाक उड़ाया है’। सुमित्रानंदन पंत ने भी इसे देखकर कह दिया कि ‘हाय, मृत्‍यु का ऐसा सुंदर स्‍मारक और जीवन की ऐसी अवहेलना’।


ताज का निर्माण पूरा होने के बाद इसके वास्‍तुकार और निर्माण से जुड़े लोगों के हाथ काट दिये गये थे ताकि वे लोग इतनी खूबसूरत इमारत दुनिया में कहीं और न बना सकें। ऐसे में यह इमारत एक शासक की मुहब्‍बत की दास्‍तां बयां करती है या क्रूरता और अहंकार की? सुना है इसे बनाने में सोलह वर्ष का समय लगा था और अपार धन इसके निर्माण पर खर्च हुआ। ऐसे में यह इमारत प्रतीक है धन और समय की बर्बादी का। जनता का जो पैसा उसके कल्‍याण के लिए खर्च किया जाना चाहिए था, वह एक अहंकारी और मूर्ख बादशाह ने निर्जीव पत्‍थर की इमारत बनाने में लुटा दिया। हमारे बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि दूसरे के साथ बुरा करने वालों का कभी भला नहीं होता। वही हुआ भी। उसी के बेटे के कारण अपने जीवन के अंतिम वर्ष उसने कैद में गुजारे। चीन की महान दीवार के निर्माणकर्ता मिंग साम्राज्‍य का पतन होने में भी ज्‍यादा समय नहीं लगा। जिस दीवार पर के निर्माण के लिए उन्‍होंने किसानों से अनाप-शनाप लगान वसूला, उन्‍हीं के विद्रोह के कारण वह साम्राज्‍य धूल में मिल गया। पिरामिड बनाने वाली सभ्‍यता का पता ही न चला। रोम के कोलोसियम में क्रूर खेलों को देखने की शौकीन सभ्‍यता दफन हो गई।


वैसे मुझे ताजमहल से और शाहजहां से कोई दुश्‍मनी नहीं है। वाकई इसका स्‍थापत्‍य बेजोड़ है। संगमरमर का ऐसा सुंदर स्‍मारक संसार भर में नहीं है। पर मेरी आपत्ति इस बात को लेकर है कि लोग इसे राष्‍ट्रगौरव के साथ जोड़ने पर तुले हुए हैं। ताजमहल का नाम लिस्‍ट में आयेगा तो राष्‍ट्रगौरव बढ़ेगा वरना नाक के कट के गिर जाने का खतरा है। राष्‍ट्र का सारा गौरव मानो संगमरमर के पत्‍थरों में दबा पड़ा है। जब भी गौरव कुछ कम हुआ निकालकर कमी पूरी कर लेंगे। अखबार में आज बड़ी मजेदार बात पढ़ी। लिखा था- ‘बहादुर हिंदुस्‍तानियों ने देशप्रेम और गौरव के लिए अपना सब कुछ निछावर कर दिया था और हम आपको सिर्फ ताज को वोट देने के लिए कह रहे हैं’। 1947 के बाद से अब तक के वर्षों में खूब प्रगति हो गई। तब आदमी को देशप्रेम के लिए जान तक न्‍यौछावर करनी पड़ती थी। पर आज के युग में सब आसान हो गया है। बस एक एस.एम.एस करो और हो गया साबित कि आपमें ही है देशप्रेम का सच्‍चा जज्‍बा। यदि आपके पास इंटरनेट कनेक्‍शन है तो आपसे बड़ा देशभक्‍त तो कोई है ही नहीं। बस थोड़ी वोटिंग-सोटिंग कर डालो एक साइट खोल के। पर विडंबना ये है कि देश के उन करोड़ों लोगों के बारे में तो सोचिए जो मोबाइल और इंटरनेट तो क्‍या अपने लिए रोटी तक ‘अफोर्ड’ नहीं कर पाते। वे कैसे अपने देशप्रेम को साबित करें?

Wednesday, June 27, 2007

Free Download or watch online old and new Hindi movies, tv serials and documentaries

आज फ़िल्म जगत और टीवी सीरियल्स से संबंधित एक बढ़िया जालस्थल का पता लगा. यदि आप नयी और पुरानी हिन्दी फ़िल्मों के शौकीन हैं तो इस जालस्थल पर आप मनपसंद फ़िल्में देख और डाउनलोड कर सकते हैं. दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक और नये सेटैलाइट चैनल्स पर दिखाये जाने वाले धारावाहिक भी यहां उपलब्ध हैं. साथ ही कई विषयों पर बनी डाक्युमेन्टरी फ़िल्में भी यहां संग्रहित हैं. म्यूजिक वीडियोज साथ ही और भी बहुत कुछ. जालस्थल पर जाने के लिये यहां चटका लगाईये.

Tuesday, June 26, 2007

Watch online Vyomkesh Bakshi old detective stories of doordarshan


याद कीजिये दूरदर्शन का वह सीरियल जिसने हिन्दी दर्शकों को पहली बार जासूसी के रोमांच से भर दिया। शरला‌क होम्स का ठेठ भारतीय संस्करण व्योमकेश बक्शी, जिसने दर्शकों के बीच अपार लोकप्रियता हासिल की। रजत कपूर के अभिनय के रूप में भारतीय जासूस का वह संस्करण आज भी लोगों को याद है। शरीर में अचानक रोमांच सा पैदा करने वाला वह पार्श्व संगीत कैसे भुलाया जा सकता है। आज तक छोटे पर्दे पर कोई भी जासूसी कार्यक्रम उसकी लोकप्रियता के इर्द-गिर्द भी नहीं पहुंचा है। व्योमकेश बक्शी के वह रोमांचक कारनामे अब आप आनलाइन भी देख सकते हैं। दूरदर्शन के कुछ अन्य पुराने कार्यक्रमों की लिंक्स मैं पहले भी यहां उपलब्ध करा चुका हूं।



व्योमकेश बक्शी आनलाइन देखने के लिये इन लिंक्स पर जायें-


Tasveer Chor







Bemisal:







Amrit ki Maut:







Balak jasoos:








इस कार्यक्रम के कुछ डाउनलोड लिंस भी यहां उपलब्ध हैं-








Friday, June 08, 2007

झीनी झीनी बीनी चदरिया

पिछली बार मैंने जिस किताब का जिक्र किया था वह बनारस शहर की खूबसूरत संस्‍कृति को एक चलचित्र की भांति हमारे सामने प्रस्‍तुत करती है। पर कमाल की बात यह है कि उसके बाद फिर से एक किताब हाथ लगी जो हमें उसी बनारस की गलियों में वापस ले जाती है। बनारस शहर को बड़ी नजदीकी से देखने वाले लेखक अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह अपनी पुस्‍तक के माध्‍यम से हमें बनारस की उस संस्‍कृति के समक्ष ला खड़ा करते हैं जहां इस शहर का एक तबका सदियों से अपनी कला के माध्‍यम से बनारस के साड़ी उद्योग की पहचान विश्‍व भर में कायम रखे हुए है। अपनी जिंदगी में आने वाली कठिनाईयों से जूझते हुए ये कलाकार किस तरह आज भी इस अद्भुत कलाकारी को जिंदा रखे हुए हैं, इसी की बानगी प्रस्‍तुत करती हुई पुस्‍तक है झीनी झीनी बीनी चदरिया


कबीर के इन मेहनतकश वंशजों को इस बात का गर्व है कि आज भी उनकी यह कला बनारस शहर की पहचान है। यह पुस्‍तक एक झरोखा है जो उनके समाज की गलियों, मुहल्‍लों में जाकर खुलता है और हमें दर्शन कराता है बनारसी साड़ी के बुनकरों के जीवन का, उनके संघर्षों का, मशीनों के युग में भी हथकरघे की श्रेष्‍ठता सिद्ध करने के उनके प्रयासों का, व्‍यवस्‍था द्वारा किये जाने वाले उनके शोषण का और भी बहुत कुछ का। जो बाहरी दुनिया के लिए एकदम अनजाना ही है।


उपन्‍यास का कथाक्रम मुख्‍यत: मतीन और उसके परिवार के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें हैं उसकी बीवी अलीमुन और बेटा इकबाल। मतीन भी आम गरीब बुनकर की तरह शोषण का शिकार है, पर वह संघर्ष से डरने वाला इंसान नहीं है। वह अपनी और अपने समाज की बदहाली पर आंसू नहीं बहाता बल्कि खाली हाथ होते हुए भी इस स्थिति को बदल डालने के लिए भरसक प्रयास करता है। वह अपने बेटे इकबाल के लिए एक बेहतर भविष्‍य की कल्‍पना करता है और इसके लिए जी-तोड़ संघर्ष करता है। इस संघर्ष में समाज के लोग भी उसका साथ देते हैं। पर भ्रष्‍ट सरकारी संस्‍थाओं और सेठों व गिरस्‍तों का चक्रव्‍यूह उनके लिए भारी पड़ता है और वे अपने को असहाय पाते हैं। पर पात्रों का सबसे बड़ा जज्‍बा है हार न मानने का, जिसे वे बार-बार ठोकर खाने के बावजूद अंत तक चुकने नहीं देते।


साड़ी बुनकरों की जिंदगी को उनकी सामाजिक परंपराओं, रूढि़यों, विश्‍वासों आदि ने किस हद तक प्रभावित किया है इसका लेखक ने अच्‍छा विश्‍लेषण किया है। मुस्लिम बुनकरों के इस समाज को कुरीतियों, ढोंग, मजहब के नाम पर बने व्‍यर्थ के नियम-कायदों आदि ने जिस बुरी तरह जकड़ रखा है, वह भी पिछड़ेपन की इन परिस्थितियों के लिए बहुत हद तक जिम्‍मेदार है। पर सबसे अच्‍छी बात है कि इसी समाज में से कुछ ऐसे लोग भी उठ खड़े होते हैं जिन्‍हें इस बात का भान हो चुका है कि यदि हमें उन्‍नति करनी है तो ये जड़वाद तोड़ना होगा और इन्‍हीं के कारण इस गरीब समाज ने आशा का दामन नहीं छोड़ा है। सोवियतलैंड-नेहरू पुरस्‍कार से सम्‍मानित अब्‍दुल बिस्मिल्‍लाह की यह कृति एक बेहतरीन रचना है और गरीब बुनकरों की अभावों से भरी जिंदगी पर व्‍यर्थ करुणा पैदा करने के बजाय संघर्ष करने के उस जज्‍बे को समर्पित है जो बार-बार ठो‍करें खाने के बावजूद भी उनके दिलों में जिंदा है।


प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
मूल्‍य- पचास रुपये(पेपरबैक संस्‍करण)

Thursday, June 07, 2007

खेती इन बॉलीवुड स्‍टाइल


ये लो बिग बी के बाद अब अपने देशभक्‍त आमिर खान भी देश की खाद्यान्‍न समस्‍या दूर करने निकल पड़े। उनकी मंशा है कि उन्‍हें भी पुणे में खेती के लिए जमीन मिले ताकि राजस्‍थान के साथ वे महाराष्‍ट्र में भी खाद्यान्‍न समस्‍या से निपट सकें। बाकी बालीवुड तो पहले से है ही लाइन में और हो भी क्‍यों न बिग बी खुद उनका नेतृत्‍व करने जो निकले हैं।

मुझे एक पुरानी फिल्‍म का गाना याद आ रहा है जिसमें नायक लोगों को मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती मेरे देश की धरती ओओओओओ आआआआआ....... जैसा कुछ गाकर बताता है कि भाई लोग बहुत सोना दबा पड़ा है इस धरती में निकाल लो और बन जाओ खुशहाल। पर यहां तो गंगा एकदम ही उल्‍टी बह रही है। बिग बी बालीवुड से कह रहे हैं कि आओ जितना भी कमाया है उसमें से कुछेक करोड़ अपनी धरती मां को भी अर्पित करो और किसान बनके अपनी धरती मां की और देशवासियों की सेवा करो। पर भैया ये विदेश में शूटिंग करने वाले हमेशा ही भूल जाते हैं कि हिंदुस्‍तान में अच्‍छे काम करने वालों की कौन कदर करता है। इधर हमारे मनमोहन सिंह गला फाड़ के चिल्‍ला रहे हैं कि देश को खाद्यान्‍न समस्‍या से निपटने के लिए एक और हरित क्रांति की जरूरत है पर जब कांग्रेस में ही उनको कोई नहीं पूछता तो कोई और क्‍यों पूछने लगा। फिर भी ये बेचारे फिल्‍मी लोग अपने खून-पसीने की कमाई लगाकर प्रधानमंत्री के कहने पर खेती के लिए जमीनें खरीद रहे हैं कि आगे चलकर प्रधानमंत्री को शर्मिंदा न होना पड़े कि उनकी किसी ने सुनी ही नहीं।


पर आग लगे हिंदुस्‍तान में बने उल्‍टे-सीधे कानूनों को जो कुछेक अच्‍छे लोगों को उनका काम भी ठीक से नहीं क‍रने देते। अमिताभजी ने जब उन्‍होंने सुना कि महाराष्‍ट्र के बाद उत्‍तरप्रदेश के किसान भी आत्‍महत्‍या करने लगे हैं तो वे निकल पड़े लोगों को संदेश देने कि अमीरजादों जरा बेचारे गरीब किसान की भी हालत देखो। वो बेचारा भुखमरी के कगार पर है। सरकार नहीं दे रही तो हम ही उसे थोड़ा अन्‍न उगाकर दे दें। कितनी महान भावना है ये परोपकार की। पता लगते ही उधर छोटे भाई अमर सिंह ने बुला लिया कि भाईसाहब आपने वो कहावत तो सुनी है न- चैरिटी बिगिंस एट होम। अमिताभ भी समझ गये कि जब खुशहाली लानी ही है तो क्‍यों न पहले अपने ही घर को खुशहाल बनाया जाये और कूद पड़े हल लेकर बाराबंकी में। पर छोटे भाई का तो कर्तव्‍य ही है बड़े भाई की सेवा करना। सो छोटे भैया बोल पड़े कि आप कहां यहां उत्‍तरप्रदेश में फंसे हैं। यहां का काम तो हम देख ही रहे हैं आप जाईये आपका कार्यक्षेत्र बड़ा है, खुशहाली की ये लहर बाकी देश में भी चलाईये। बिग बी को बात जंच गई सो वो लगे पुणे में जुताई करने। पर उधर उनके बाडी गार्ड जैसे भाई के बुरे दिन आये तो क्‍या यूपी और क्‍या महाराष्‍ट्र दोनों जगह से उन्‍हें नोटिस मिल गया कि बंद करिए ये बालीवुडिया खेती और खिसकिए यहां से। जाकर सिनेमा में लोगों का मनोरंजन करिए। अब पूरा प्रशासन पड़ा है उनके और बालीवुड के पीछे डंडा लेके कि इतनी सालों से हमने इस देश में खुशहाली को फटकने भी नहीं दिया और तुम सालों खुशहाली लाकर, ज्‍यादा अन्‍न उगाकर हमें बदहाल करना चाहते हो।

मेरे ख्‍याल से माननीय उच्‍चतम न्‍यायालय को इस मामले में संज्ञान लेना चाहिए और यह आदेश पारित करना चाहिए कि जो फिल्‍मस्‍टार खेती का काम करना चाहें उनको इसका पूरा हक मिले। आखिर जो लोग रंग दे बसंती, लगे रहो मुन्‍नाभाई आदि फिल्‍में बनाकर देशभक्ति का नायाब उदाहरण देश के सामने प्रस्‍तुत करते हैं क्‍या उन्‍हें इतना भी हक नहीं कि वे अपनी इच्‍छा से खेती कर पायें। फिर भी प्रधानमंत्री के उस बयान से, जिसमें उन्‍होंने खेती में आवश्‍यकता से अधिक लोगों के लगे होने की बात कही थी, न्‍यायपालिका और संसद में टकराव हो सकता है क्‍योंकि वे नहीं चाहेंगे कि कुछ और लोग आकर खेती करें। पर मनमोहनजी चिंता मत करिए ये फिल्‍मी किसान आत्‍महत्‍या नहीं करने वाले जो आपको इन्‍हें मुआवजा देना पड़े और लानत झेलनी पड़े। इसलिए एक बीच का रास्‍ता तो निकलना ही चाहिए जिसमें सरकार खेती को सेलेब्रिटी स्‍टेटस दिलाने के लिए बाकायदा कुछ भूमि को बालीवुड के लिए आरक्षित कर दे। इससे दो फायदे तो तुरंत होंगे कि बालीवुड के लोगों की मेहनत का अन्‍न देश को मिलेगा और उस अन्‍न की नीलामी से मिलने वाले राजस्‍व से देश में कई नयी विकास परियोजनाएं शुरू की जा सकेंगीं। जिन लोगों में खरीदने की कूवत होगी वे शान से कहेंगे कि भई अपन तो बासमती की बजाय आमिर खान ब्रांड चावल खाते हैं या फिर मैं तो अमिताभ के खेत में उगा गेंहूं ही खाता हूं। कोई कहेगा- आइम सो चूजी एबाउट माइ फूड ब्रांड, ऑलवेज परचेज द वेजीटेबल्‍स ऑफ सलमानस फार्म।


एक और फायदा होगा इसका कि खेती-किसानी जैसे कार्यों को स्‍वत: ही सेलेब्रिटी दर्जा मिल जायेगा। न्‍यूज चैनल का पत्रकार खेत में जाकर किसान से बात करेगा और कुछ इस प्रकार के सवाल-जवाब होंगे-


प्रश्‍न- कैसा महसूस कर रहे हैं आप खेती करते हुए?
उत्‍तर- देखौ भैया हम बस खेती करत हैं महसूस-फहसूस नाहीं करत।


प्रश्‍न- आजकल आपकी कौन-कौन सी फसलें फ्लोर पर हैं?
उत्‍तर- भैया ई फ्लोर का है?


प्रश्‍न- मतलब आपकी आगे कौन-कौन सी फसलें बाजार में आने वाली हैं?
उत्‍तर- जो फसल मौसम पे आये हैं सो ही इस बरस भी आये हैं।


प्रश्‍न- जब आपकी कोई फसल दूसरों की फसल से ज्‍यादा चलती है तो कैसा लगता है
?
उत्‍तर- भैया ये फसल का चलना-उलना अपन नहीं जानत।


प्रश्‍न- क्‍या फसल उगाने से पहले आप जुताई आदि की कोई रिहर्सल वगैरा करते हैं
?
उत्‍तर- भैया हम ये रिहर्सल ना जानें, हम तो बस खेती जानें हैं।


एक अंतिम सवाल- जब लोग आपको दूसरों से बेहतर हल चलाते देखकर प्रशंसा करते हैं तो कैसा फील करते हैं
?
उत्‍तर- भैया ई में प्रशंसा की कौन बात है। हमें तो खेती करन से मतलब, हम ई प्रशंसा के फेर-फार में नहीं पड़त।

पर फिर भी मुझे नहीं लगता कि सरकार की नीयत ठीक है और हमेशा उन्‍नत खेती की रट लगाने पर भी वह खेती की उन्‍नति के लिए कुछ कदम उठायेगी।

Thursday, May 10, 2007

विकलांग श्रद्धा का दौर – हरिशंकर परसाई

अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हॉं, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा- तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम। पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा-, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं।” यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था।

श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भी देखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं कि बच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे पर यहॉं पथराव हो गया। पॉंच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पॉंचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती: ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर।

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लँगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं। अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे। उन्होने अपने नेम-प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहॉं उन्होने अपने को ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम-प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता।

सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है। इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है- टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त पर लेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है।

क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है। जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे- इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।

हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने मैं एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हे डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहीं उठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़कर कराहने लगते। स्त्री पूछती- “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते- “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?” उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा- “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत-रस इतनेहु माहीं।”

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमी आए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा- काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधर मुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडि़त रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा। ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है, परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में हूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने-आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे।

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध-श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली। पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर ‘श्रद्धेय’ लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादर से बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं छुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एक चमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा। और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हाय मैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा।

श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’-‘अव्यक्ति’ हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे- जबकि व्यक्ति की, चरित्र की, पहचान ही यह है कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं- तुम अब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे।

और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं।

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

(हरिशंकर परसाई की साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से साभार।)

राष्ट्रपति कलाम की दो कविताएं

हमारे माननीय राष्ट्रपति जो ’जनता के रासःट्रपति के रूप में अधिक लोकप्रिय हैं. एक वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक आदि के रूप में तो उनकी प्रतिभा सर्वविदित है ही साथ ही वे एक बहुत अच्छे कवि भी हैं. निम्न कवितएं उनकी आत्मकथा ’अग्नि की उड़ान से ली गयी हैं....


ज्ञान का दीपक जलाए रखूंगा

हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूंगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूंगा
जिससे मेरा देश महान हो।



माँ

समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।

तेरी बांहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुंचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बांटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।

दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्शियत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझ पर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।

याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुंदी आंखों से ताकता तुझे,
थामता आंसू पलकों पर
घुटनों के बल
बांहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उंगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की,
जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।

Monday, May 07, 2007

अखबार पढ़ने की बीमारी

अखबार पढ़ना एक अच्‍छी आदत है, ऐसा बचपन में हमें सिखाया गया था। हमारे मास्‍साब ने अखबार पढ़ने के कई महत्‍व गिनाये थे- इससे जनरल नॉलेज बढ़ती है, शब्‍दज्ञान बढ़ता है, फलां ज्ञान बढ़ता है,.....। शब्‍दज्ञान का तो पता नहीं, हां खेलपृष्‍ठ को पढ़-पढ़कर क्रिकेट-ज्ञान हमारा जरूर बढ़ गया। जागरूक अभिभावक बच्‍चों को अखबार पढ़ने का महत्‍व समझाते हैं। आजकल के समझदार बच्‍चे ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ पढ़ने लगे हैं और अंग्रेजी सीखने के साथ नॉलेज भी गेन करते हैं।

भई अपन तो ठहरे देशी उजड्ड ! अपन को हिंदी अखबार ही रास आता है। यदि अखबार स्‍थानीय हो तो मजा ही अलग है। अपने गली मुहल्‍ले शहर में कहां सट्टा होता है, किस नाली की सफाई नहीं हुई है, किस मोहल्‍ले में किसको कुत्‍ते ने काटा, ये सब खबरें क्‍या अंतर्राष्‍ट्रीय खबरों से कम महत्‍व रखती हैं। पर कुछ समय पहले मुझे महसूस हो गया कि ये अखबार बीमारी के वाहक हैं इसलिए आजकल अपन इंटरनेट पर खबरें पढ़ कर काम चला लेते हैं। अखबार विशेषकर हिंदी अखबार पढ़ने वालों में एक खास बीमारी पाई जाती है- अड्डेबाजी की। ये अड्डेबाज आपको किसी भी सार्वजनिक स्‍थान, पान की या चाय की दुकान, सड़क के नुक्‍कड़, बस-रेल आदि में सहज ही नजर आ जायेंगे। अड्डेबाजी का एक और सह-उत्‍पाद है- ध्‍वनि प्रदूषण। शहरों में जितना भी ध्‍वनि प्रदूषण होता है, उससे आधा तो इन अड्डेबाजों की ही करामात है। मोटर वाहनों, टेंपो-आटोरिक्‍शावालों, भोंपुओं पर नाहक ही सब दोष मढ़ दिया जाता है।

सारे देश की भांति हमारे मुहल्‍ले में भी यह प्रजाति पाई जाती है। हमारा स्‍थानीय प्रशासन इन पर कुछ ज्‍यादा ही मेहरबान है सो कई दशकों पूर्व उसने इन अड्डेबाजों के अड्डेबाजी के लिए एक स्‍थान मुकर्रर किया। वैसे तो यह स्‍थान सार्वजनिक पुस्‍तकालय कहलाता है, परंतु यहां की पुस्‍तकें इन अड्डेबाजों और उनके नाते-रिश्‍तेदारों के निजी पुस्‍तकालयों की शोभा बढ़ाती हैं। कुल मिलाकर इस पुस्‍तकालय का बलात्‍कार हमारे अड्डेबाज बुद्विजीवी बहुत पहले ही कर चुके हैं। अब इसका महत्‍व केवल इतना रह गया है कि यहां कुछ अखबार और पत्रिकाएं आ जाती हैं और अड्डेबाजी के लिए प्‍लास्टिक की कुर्सियों और एक पंखे की उत्‍तम व्‍यवस्‍था है। यहां सुबह-शाम ऐसे ही अड्डेबाज बुद्विजीवियों का जमावड़ा होता है और देश-दुनिया की समस्‍याओं पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है। ये बुद्विजीवी सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हैं और दिनभर गुस्‍से में रहते हैं। व्‍यवस्‍था, शासन, प्रधानमंत्री, दुनिया, भगवान और न जाने किस-किस को कोसते रहते हैं। दिनभर इनका पेट खराब ही रहता है। शाम होते ही ये फिर से आकर अड्डे की कुर्सियों पर कब्‍जा जमा लेते हैं। फिर दिनभर का गुस्‍सा उतारा जाता है। जमाने भर को गालियां देकर जब ये घर लौटते हैं तो इनका पेट साफ हो जाता है और रात को यह सोचकर ये चैन की नींद सो जाते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।

ऐसे ही एक अड्डेबाज सज्‍जन हैं जो अपने सरकारी दफ्तर में कभी-कभार ही पाये जाते हैं। एक दिन शहर में फैली गंदगी के कारण कामचोर नगरपालिका के अमले पर बहुत गुस्‍सा हो रहे थे। बाद में यह कहकर शां‍त हो गए कि इस देश में तो कोई काम करना ही नहीं चाहता। एक प्राइमरी स्‍कूल के मास्‍टरसाब भी हैं जो स्‍कूल में जाकर कक्षाएं लेने को अपनी शान में गुस्‍ताखी समझते हैं और पुस्‍तकालय में किसी कुर्सी पर जमे हुए अखबार पढ़ते पाये जाते हैं। एक दिन अखबार पढ़कर वे बिगड़ गये। बोले- इस देश का क्‍या होगा, सरकार उच्‍च शिक्षण संस्‍थाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्‍यवस्‍था कर रही है, अजी पहले उनके लिए प्राथमिक शिक्षा की तो ढंग से व्‍यवस्‍था करे। अगले दिन वे आई.आई.टी. से होने वाले ब्रेन-ड्रेन पर चिंता करते सुने गए। एक दिन बड़ा ही मजेदार वाकया हो गया। एक सज्‍जन पुस्‍तकालय में पधारे। गले में सोने की मोटी चेन पड़ी हुई थी। मोबाइल फोन उनके पास दो थे। एक कान से चिपका हुआ था, दूसरे के बजने की आवाज जेब से आ रही थी। वे कभी-कभार अखबारों में छपने वाले टेंडरों की जानकारी लेने आया करते हैं। वैसे उनका एक अलग ही टाइप का व्‍यवसाय है। उनके पास सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक दुकान का लाइसेंस है और वह मिट्टी का तेल बस-ट्रक, ट्रैक्‍टर वालों को बेचते हैं। उनके सामने अखबार पड़ा हुआ था। आजकल हमारे माननीय सांसदगण संसद की बजाय अदालतों और जेलों का चक्‍कर काटते हुए एक तीसरी जगह भी देखे जाते हैं- अखबारों की हेडलाइन में(पुलिस द्वारा धक्‍का देकर ले जाये जाते हुए)। सो उन महाशय की ऐसे ही किसी सांसद पर नजर पड़ गई। छूटते ही बोले- क्‍या हो रहा है इस देश में। बाद में बहुत देर तक वह सांसदों को उनके आचरण के लिए गरियाते रहे और राजनीति में भ्रष्‍टाचार,अपराधीकरण आदि पर चिंता जताते रहे। चलते-चलते उन्‍होंने कहा- इन भ्रष्‍टाचारियों के साथ यही व्‍यवहार होना चाहिए। मुझे लगा उनका आशय था कि हम रोज मिट्टी का तेल ब्‍लैक करते हैं, सड़क के ठेके में घटिया माल लगाकर पूरा पैसा डकार जाते हैं। जब हमारे खिलाफ शिकायतें हो रही हैं तो सांसद भी तो साले फंसने चाहिए !

मेरे एक मित्र भी हैं जो राष्‍ट्रीय मुद्दों पर चर्चा करना अपने समय की बर्बादी समझते हैं। वे हमेशा अंग्रेजी अखबार पढ़ते हैं, अंतर्राष्‍ट्रीय मसलों पर चर्चा करते हैं और अड्डेबाजों की भीड़ में अपनी कुछ अलग पहचान बनाने के लिए उनसे थोड़ा हटकर बैठते हैं। एक दिन हमारे अड्डेबाज गांवों में होने वाले पंचायत चुनावों को लेकर चर्चा करने लगे। हमारे मित्रबंधु लगे नाक-भौं सिकोड़ने कि ये छोटे लोग केवल छोटी ही बात कर सकते हैं। वैसे आजकल हमारे मित्र बंधु इराक मामले में व्‍यस्‍त हैं और दुनिया से आतंकवाद मिटाने व मध्‍यपूर्व की बेहतरी के लिए उनका अपना एक रोडमैप है। इनसे छोटे मुद्दों पर बात करना वे अपनी तौहीन समझते हैं। ये शायद एक अलग टाइप की बीमारी है जो अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों को ही होती है, ऐसा मेरा ख्‍याल है। अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्दे से याद आया मेरी एक सहपाठी हुआ करती थी। वह अपने आपको कूटनीति की गहरी जानकार मानती थी। हुआ यूं कि एक दिन उसने एक अखबार में कश्‍मीर घा‍टी से संबंधित कोई लेख पढ़ लिया था।इसलिए वह अक्‍सर केंद्र सरकार को इस मामले में अदूरदर्शी कहकर कोसती रहती थी। एक दिन उसने नौकरशाही में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार के बारे में लेख पढ़ा और आई.ए.एस बनने का ख्‍वाब देखने लगी। उसकी किताबों से ज्‍यादा नजदीकी कभी नहीं देखी गई इसीलिए मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया कि आप आई.ए.एस क्‍यों बनना चाहती हैं। मोहतरमा का जवाब था कि देश में आजकल योजनाओं का ठीक से क्रियान्‍वयन नहीं हो पा रहा है। पूरी नौकरशाही भ्रष्‍टाचार में डूबी है। योजनाओं का एक पैसा नहीं खर्च किया जा रहा। अगर वह आई.ए.एस बन गई तो यह सब गड़बड़ घोटाला समाप्‍त कर देगी। जवाब सुनकर मुझे हंसी आ गई। दिमाग ने अनुमान लगाया कि अखबारी वायरस इन मोहतरमा के अंदर बहुत गहरे पैठ गया है और जल्‍द ही इलाज नहीं किया गया तो मरीज ये बीमारी दूसरों में भी फैलाता नजर आएगा।

अखबार पढ़ना स्‍वयं में तो बहुत खतरनाक चीज तो है ही, इससे उत्‍पन्‍न होने वाली बीमारियां भी एकाध नहीं कई प्रकार की होती हैं और उस पर भी तुर्रा ये कि इन बीमारियों का मेडिकल साइंस में कोई इलाज नहीं। सबसे भयंकर बीमारी है देश की दशा सुधारने की। अखबार पढ़ने के शौकीन खुद जीवन में कभी न सुधरें, हर शाम देश को सुधारने का बीड़ा अवश्‍य उठा लेते हैं। अखबार इनके लिए दफ्तर की फाइल की तरह होते हैं। रोज नया अखबार आता है और रोज ये देश की नई-नई समस्‍याओं से जूझने में लगे रहते हैं। इससे भी भयंकर बीमारी है आदर्शवाद की बीमारी। भ्रष्‍ट से भ्रष्‍ट अखबार पढ़ने वाला भी रोज समाज और देश को एक नई राह दिखाता नजर आएगा।

ध्‍यान देने योग्‍य बात है कि व्‍यवस्‍था को कोसना और उसे कोसने की काबिलियत रखना दोनों मुख्‍तलिफ बातें हैं पर विडंबना है कि ये अड्डेबाज पाठक पहली श्रेणी में आते हैं और दूसरी श्रेणी में आने वाले लोग अपना काम करते हुए कम ही पाये जाते हैं।

हमारे इन अखबारी अड्डेबाजों की दुनिया में दुष्‍यंत कुमार की कविता का अर्थ कुछ इस प्रकार से निकलता है-


“सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही तो हमारा मकसद है,
सारी कोशिश है कि टाइमपास का कोई बहाना मिलना चाहिए।”

Sunday, May 06, 2007

Download Links for Old Doordarshan Serials दूरदर्शन के पुराने कार्यक्रम डाउनलोड करें...

मुझे अभी-अभी अंतरजाल पर विचरते हुए कुछ बहुत ही कमाल की लिंक्स मिलीं- हिन्दी के पुराने कार्यक्रमों की आप भी डाउनलोड कीजिये और मजा लीजिये.


देख भाई देख डाउनलोड लिंक-

Dekh Bhai Dekh Volume 1
: http://maxupload.com/F52FE239

Dekh Bhai Dekh Volume 2
http://maxupload.com/7AA99BD5

Dekh Bhai Dekh Volume 3
http://maxupload.com/CDE8CE63

Dekh Bhai Dekh Volume 4
http://maxupload.com/290BF4F6

Dekh Bhai Dekh Volume 5
http://maxupload.com/E7AB4493

Dekh Bhai Dekh Volume 6
http://maxupload.com/B5C3815F

image links
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रामायण में लव-कुश की कहानी-

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चाणक्य-

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महाभारत-

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पुराने हिन्दी गाने-

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Mukesh's Super Hit Collection so many Songs 128kbps...
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Kishore Kumar Mega Collection
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2..best of sunidhi chauhan
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"मिले सुर मेरा तुम्हारा" सुनिये-

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मालगुडी डेज-

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Wednesday, May 02, 2007

गर्व करें या शर्म?

पिछले कुछ दिनों से भारत के पड़ोसी दक्षिण एशियाई मुल्कों से बहुत सी खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ अपनी हुकूमत बचाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार दिख रहे हैं। वैसे पहले से ही उनकी नीचता पर किसी को शक नहीं है। पर न्यायपालिका और लोकतांत्रिक शक्तियों के पीछे जिस तरह उनका फौजी, तानाशाही तंत्र डंडा लेकर पड़ा हुआ है, उससे इस देश में लोकतंत्र की पुन:स्थापना अभी दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है। ऊपर से फौजी प्रशासन ने लाल मस्जिद और मदरसा हफ्सा की आड़ लेकर लोकतंत्र के हिमायतियों के समक्ष दूसरी ओर से भी मोर्चा खोले हुए है। देश पर अराजकता और कट्टरपंथ की जकड़न और तेजी से बढ़ रही है।

उधर बांग्लादेश में तो फौजी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें ही पार कर दी हैं और दूसरा म्यांनमार बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। दक्षिण में श्रीलंका में भी हालात बेहतर नहीं हैं। वहां की लोकतांत्रिक सरकार तमिल विद्रोहियों के हमले लगातार झेल रही है। नेपाल में अभी देखना बाकी है कि लोकतंत्र वहां कितना सफल हो पाता है। वैसे सरकार में माओ के मानसपुत्रों के शामिल होने के बावजूद देश को साम्यवादी तानाशाही की राह पर धकेले जाने का खतरा अभी बना हुआ है और चीन भी यही चाहता है। चीन हालांकि सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है पर लोकतंत्र जैसे शब्द उसके लिए अभी भी अछूते ही हैं।

फिर हमारे पास ऐसा क्या है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। निस्संदेह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते आज हमारे पास गर्व करने लायक बात है और फिर ऐसे क्षेत्र में जहां लोकतंत्र अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। परंतु गर्व करने की यह स्थिति केवल तब तक है, जब हम केवल अपने पड़ोसियों से तुलना कर रहे हों। वस्तुत: हम यदि ऐसी तुलना कर भी लें तो यह स्वत: ही हास्यास्पद हो जाती है। जब हम तेजी से बढ़ती एक आर्थिक महाशक्ति की तुलना ऐसे विश्व के करने लगें जहां के लोगों के जीवन में एक सुरक्षित जीवन की प्रत्याशा, आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक बेहतर राष्ट्र का सपना जैसी कोई चीज ही न रह गई हो।

फिर भी हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व उसी तरह कायम है जिस तरह की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की होगी। पर जिस प्रकार एक लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ते हुए भी हमारे लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है वह तो हमें अपने लोकतंत्र पर शर्म करने को ही मजबूर करता है। ज्यादा गहराई में न जाकर बस कुछेक उदाहरणों पर ही दृष्टिपात करने से तस्वीर साफ दिखाई देती है। सांसदों का जघन्य अपराधों में लिप्त पाया जाना, देश को बांटने के लिए राजनेताओं की आरक्षण के नाम पर खींचतान, जेल में बैठकर चुनाव जीतना, वोट बैंक के लिए नीचता की सभी हदें पार करना।

ऐसी स्थिति में आप ही कोई निर्णय कीजिए कि हम गर्व करें या शर्म!