अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हॉं, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा- तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम। पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा-, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं।” यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था।
श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भी देखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं कि बच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे पर यहॉं पथराव हो गया। पॉंच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पॉंचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती: ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर।
मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लँगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं। अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे। उन्होने अपने नेम-प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहॉं उन्होने अपने को ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम-प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता।
सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है। इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है- टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त पर लेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है।
क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है। जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे- इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।
हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने मैं एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हे डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहीं उठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़कर कराहने लगते। स्त्री पूछती- “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते- “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?” उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा- “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत-रस इतनेहु माहीं।”
श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमी आए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा- काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधर मुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडि़त रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा। ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है, परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में हूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने-आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे।
अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध-श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली। पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर ‘श्रद्धेय’ लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादर से बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं छुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एक चमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा। और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हाय मैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा।
श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’-‘अव्यक्ति’ हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे- जबकि व्यक्ति की, चरित्र की, पहचान ही यह है कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं- तुम अब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे।
और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं।
अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”
(हरिशंकर परसाई की साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कृति ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ से साभार।)
Thursday, May 10, 2007
राष्ट्रपति कलाम की दो कविताएं
हमारे माननीय राष्ट्रपति जो ’जनता के रासःट्रपति के रूप में अधिक लोकप्रिय हैं. एक वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक आदि के रूप में तो उनकी प्रतिभा सर्वविदित है ही साथ ही वे एक बहुत अच्छे कवि भी हैं. निम्न कवितएं उनकी आत्मकथा ’अग्नि की उड़ान से ली गयी हैं....
ज्ञान का दीपक जलाए रखूंगा
हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूंगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूंगा
जिससे मेरा देश महान हो।
माँ
समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।
तेरी बांहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुंचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बांटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।
दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्शियत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझ पर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।
याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुंदी आंखों से ताकता तुझे,
थामता आंसू पलकों पर
घुटनों के बल
बांहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उंगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की,
जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।
ज्ञान का दीपक जलाए रखूंगा
हे भारतीय युवक
ज्ञानी-विज्ञानी
मानवता के प्रेमी
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य
की लालसा पाप है।
मेरे सपने बड़े
मैं मेहनत करूंगा
मेरा देश महान् हो
धनवान् हो, गुणवान् हो
यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है,
कहीं भी धरती पर,
उससे ऊपर या नीचे
दीप जलाए रखूंगा
जिससे मेरा देश महान हो।
माँ
समंदर की लहरें,
सुनहरी रेत,
श्रद्धानत तीर्थयात्री,
रामेश्वरम द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।
सबमें तू निहित,
सब तुझमें समाहित।
तेरी बांहों में पला मैं,
मेरी कायनात रही तू।
जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा सा मैं
जीवन बना था चुनौती, जिंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम
पहुंचते किरणों से पहले।
कभी जाते मंदिर लेने स्वामी से ज्ञान,
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक,
स्टेशन को जाती रेत भरी सड़क,
बांटे थे अखबार मैंने
चलते-पलते साये में तेरे।
दिन में स्कूल,
शाम में पढ़ाई,
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई,
तेरी पाक शख्शियत ने बना दीं मधुर यादें।
जब तू झुकती नमाज में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझ पर
और मेरे जैसे कितने नसीबवालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान।
याद है अभी जैसे कल ही,
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में,
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार।
आधी रात में, अधमुंदी आंखों से ताकता तुझे,
थामता आंसू पलकों पर
घुटनों के बल
बांहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं।
तूने जाना था मेरा दर्द,
अपने बच्चे की पीड़ा।
तेरी उंगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से,
और भरी थी मुझमें
अपने विश्वास की शक्ति-
निर्भय हो जीने की,
जीतने की।
जिया मैं
मेरी माँ !
और जीता मैं।
कयामत के दिन
मिलेगा तुझसे फिर तेरा कलाम,
माँ तुझे सलाम।
Monday, May 07, 2007
अखबार पढ़ने की बीमारी
अखबार पढ़ना एक अच्छी आदत है, ऐसा बचपन में हमें सिखाया गया था। हमारे मास्साब ने अखबार पढ़ने के कई महत्व गिनाये थे- इससे जनरल नॉलेज बढ़ती है, शब्दज्ञान बढ़ता है, फलां ज्ञान बढ़ता है,.....। शब्दज्ञान का तो पता नहीं, हां खेलपृष्ठ को पढ़-पढ़कर क्रिकेट-ज्ञान हमारा जरूर बढ़ गया। जागरूक अभिभावक बच्चों को अखबार पढ़ने का महत्व समझाते हैं। आजकल के समझदार बच्चे ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ पढ़ने लगे हैं और अंग्रेजी सीखने के साथ नॉलेज भी गेन करते हैं।
भई अपन तो ठहरे देशी उजड्ड ! अपन को हिंदी अखबार ही रास आता है। यदि अखबार स्थानीय हो तो मजा ही अलग है। अपने गली मुहल्ले शहर में कहां सट्टा होता है, किस नाली की सफाई नहीं हुई है, किस मोहल्ले में किसको कुत्ते ने काटा, ये सब खबरें क्या अंतर्राष्ट्रीय खबरों से कम महत्व रखती हैं। पर कुछ समय पहले मुझे महसूस हो गया कि ये अखबार बीमारी के वाहक हैं इसलिए आजकल अपन इंटरनेट पर खबरें पढ़ कर काम चला लेते हैं। अखबार विशेषकर हिंदी अखबार पढ़ने वालों में एक खास बीमारी पाई जाती है- अड्डेबाजी की। ये अड्डेबाज आपको किसी भी सार्वजनिक स्थान, पान की या चाय की दुकान, सड़क के नुक्कड़, बस-रेल आदि में सहज ही नजर आ जायेंगे। अड्डेबाजी का एक और सह-उत्पाद है- ध्वनि प्रदूषण। शहरों में जितना भी ध्वनि प्रदूषण होता है, उससे आधा तो इन अड्डेबाजों की ही करामात है। मोटर वाहनों, टेंपो-आटोरिक्शावालों, भोंपुओं पर नाहक ही सब दोष मढ़ दिया जाता है।
सारे देश की भांति हमारे मुहल्ले में भी यह प्रजाति पाई जाती है। हमारा स्थानीय प्रशासन इन पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है सो कई दशकों पूर्व उसने इन अड्डेबाजों के अड्डेबाजी के लिए एक स्थान मुकर्रर किया। वैसे तो यह स्थान सार्वजनिक पुस्तकालय कहलाता है, परंतु यहां की पुस्तकें इन अड्डेबाजों और उनके नाते-रिश्तेदारों के निजी पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाती हैं। कुल मिलाकर इस पुस्तकालय का बलात्कार हमारे अड्डेबाज बुद्विजीवी बहुत पहले ही कर चुके हैं। अब इसका महत्व केवल इतना रह गया है कि यहां कुछ अखबार और पत्रिकाएं आ जाती हैं और अड्डेबाजी के लिए प्लास्टिक की कुर्सियों और एक पंखे की उत्तम व्यवस्था है। यहां सुबह-शाम ऐसे ही अड्डेबाज बुद्विजीवियों का जमावड़ा होता है और देश-दुनिया की समस्याओं पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है। ये बुद्विजीवी सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हैं और दिनभर गुस्से में रहते हैं। व्यवस्था, शासन, प्रधानमंत्री, दुनिया, भगवान और न जाने किस-किस को कोसते रहते हैं। दिनभर इनका पेट खराब ही रहता है। शाम होते ही ये फिर से आकर अड्डे की कुर्सियों पर कब्जा जमा लेते हैं। फिर दिनभर का गुस्सा उतारा जाता है। जमाने भर को गालियां देकर जब ये घर लौटते हैं तो इनका पेट साफ हो जाता है और रात को यह सोचकर ये चैन की नींद सो जाते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
ऐसे ही एक अड्डेबाज सज्जन हैं जो अपने सरकारी दफ्तर में कभी-कभार ही पाये जाते हैं। एक दिन शहर में फैली गंदगी के कारण कामचोर नगरपालिका के अमले पर बहुत गुस्सा हो रहे थे। बाद में यह कहकर शांत हो गए कि इस देश में तो कोई काम करना ही नहीं चाहता। एक प्राइमरी स्कूल के मास्टरसाब भी हैं जो स्कूल में जाकर कक्षाएं लेने को अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं और पुस्तकालय में किसी कुर्सी पर जमे हुए अखबार पढ़ते पाये जाते हैं। एक दिन अखबार पढ़कर वे बिगड़ गये। बोले- इस देश का क्या होगा, सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर रही है, अजी पहले उनके लिए प्राथमिक शिक्षा की तो ढंग से व्यवस्था करे। अगले दिन वे आई.आई.टी. से होने वाले ब्रेन-ड्रेन पर चिंता करते सुने गए। एक दिन बड़ा ही मजेदार वाकया हो गया। एक सज्जन पुस्तकालय में पधारे। गले में सोने की मोटी चेन पड़ी हुई थी। मोबाइल फोन उनके पास दो थे। एक कान से चिपका हुआ था, दूसरे के बजने की आवाज जेब से आ रही थी। वे कभी-कभार अखबारों में छपने वाले टेंडरों की जानकारी लेने आया करते हैं। वैसे उनका एक अलग ही टाइप का व्यवसाय है। उनके पास सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक दुकान का लाइसेंस है और वह मिट्टी का तेल बस-ट्रक, ट्रैक्टर वालों को बेचते हैं। उनके सामने अखबार पड़ा हुआ था। आजकल हमारे माननीय सांसदगण संसद की बजाय अदालतों और जेलों का चक्कर काटते हुए एक तीसरी जगह भी देखे जाते हैं- अखबारों की हेडलाइन में(पुलिस द्वारा धक्का देकर ले जाये जाते हुए)। सो उन महाशय की ऐसे ही किसी सांसद पर नजर पड़ गई। छूटते ही बोले- क्या हो रहा है इस देश में। बाद में बहुत देर तक वह सांसदों को उनके आचरण के लिए गरियाते रहे और राजनीति में भ्रष्टाचार,अपराधीकरण आदि पर चिंता जताते रहे। चलते-चलते उन्होंने कहा- इन भ्रष्टाचारियों के साथ यही व्यवहार होना चाहिए। मुझे लगा उनका आशय था कि हम रोज मिट्टी का तेल ब्लैक करते हैं, सड़क के ठेके में घटिया माल लगाकर पूरा पैसा डकार जाते हैं। जब हमारे खिलाफ शिकायतें हो रही हैं तो सांसद भी तो साले फंसने चाहिए !
मेरे एक मित्र भी हैं जो राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा करना अपने समय की बर्बादी समझते हैं। वे हमेशा अंग्रेजी अखबार पढ़ते हैं, अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर चर्चा करते हैं और अड्डेबाजों की भीड़ में अपनी कुछ अलग पहचान बनाने के लिए उनसे थोड़ा हटकर बैठते हैं। एक दिन हमारे अड्डेबाज गांवों में होने वाले पंचायत चुनावों को लेकर चर्चा करने लगे। हमारे मित्रबंधु लगे नाक-भौं सिकोड़ने कि ये छोटे लोग केवल छोटी ही बात कर सकते हैं। वैसे आजकल हमारे मित्र बंधु इराक मामले में व्यस्त हैं और दुनिया से आतंकवाद मिटाने व मध्यपूर्व की बेहतरी के लिए उनका अपना एक रोडमैप है। इनसे छोटे मुद्दों पर बात करना वे अपनी तौहीन समझते हैं। ये शायद एक अलग टाइप की बीमारी है जो अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों को ही होती है, ऐसा मेरा ख्याल है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे से याद आया मेरी एक सहपाठी हुआ करती थी। वह अपने आपको कूटनीति की गहरी जानकार मानती थी। हुआ यूं कि एक दिन उसने एक अखबार में कश्मीर घाटी से संबंधित कोई लेख पढ़ लिया था।इसलिए वह अक्सर केंद्र सरकार को इस मामले में अदूरदर्शी कहकर कोसती रहती थी। एक दिन उसने नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में लेख पढ़ा और आई.ए.एस बनने का ख्वाब देखने लगी। उसकी किताबों से ज्यादा नजदीकी कभी नहीं देखी गई इसीलिए मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया कि आप आई.ए.एस क्यों बनना चाहती हैं। मोहतरमा का जवाब था कि देश में आजकल योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। पूरी नौकरशाही भ्रष्टाचार में डूबी है। योजनाओं का एक पैसा नहीं खर्च किया जा रहा। अगर वह आई.ए.एस बन गई तो यह सब गड़बड़ घोटाला समाप्त कर देगी। जवाब सुनकर मुझे हंसी आ गई। दिमाग ने अनुमान लगाया कि अखबारी वायरस इन मोहतरमा के अंदर बहुत गहरे पैठ गया है और जल्द ही इलाज नहीं किया गया तो मरीज ये बीमारी दूसरों में भी फैलाता नजर आएगा।
अखबार पढ़ना स्वयं में तो बहुत खतरनाक चीज तो है ही, इससे उत्पन्न होने वाली बीमारियां भी एकाध नहीं कई प्रकार की होती हैं और उस पर भी तुर्रा ये कि इन बीमारियों का मेडिकल साइंस में कोई इलाज नहीं। सबसे भयंकर बीमारी है देश की दशा सुधारने की। अखबार पढ़ने के शौकीन खुद जीवन में कभी न सुधरें, हर शाम देश को सुधारने का बीड़ा अवश्य उठा लेते हैं। अखबार इनके लिए दफ्तर की फाइल की तरह होते हैं। रोज नया अखबार आता है और रोज ये देश की नई-नई समस्याओं से जूझने में लगे रहते हैं। इससे भी भयंकर बीमारी है आदर्शवाद की बीमारी। भ्रष्ट से भ्रष्ट अखबार पढ़ने वाला भी रोज समाज और देश को एक नई राह दिखाता नजर आएगा।
ध्यान देने योग्य बात है कि व्यवस्था को कोसना और उसे कोसने की काबिलियत रखना दोनों मुख्तलिफ बातें हैं पर विडंबना है कि ये अड्डेबाज पाठक पहली श्रेणी में आते हैं और दूसरी श्रेणी में आने वाले लोग अपना काम करते हुए कम ही पाये जाते हैं।
हमारे इन अखबारी अड्डेबाजों की दुनिया में दुष्यंत कुमार की कविता का अर्थ कुछ इस प्रकार से निकलता है-
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही तो हमारा मकसद है,
सारी कोशिश है कि टाइमपास का कोई बहाना मिलना चाहिए।”
भई अपन तो ठहरे देशी उजड्ड ! अपन को हिंदी अखबार ही रास आता है। यदि अखबार स्थानीय हो तो मजा ही अलग है। अपने गली मुहल्ले शहर में कहां सट्टा होता है, किस नाली की सफाई नहीं हुई है, किस मोहल्ले में किसको कुत्ते ने काटा, ये सब खबरें क्या अंतर्राष्ट्रीय खबरों से कम महत्व रखती हैं। पर कुछ समय पहले मुझे महसूस हो गया कि ये अखबार बीमारी के वाहक हैं इसलिए आजकल अपन इंटरनेट पर खबरें पढ़ कर काम चला लेते हैं। अखबार विशेषकर हिंदी अखबार पढ़ने वालों में एक खास बीमारी पाई जाती है- अड्डेबाजी की। ये अड्डेबाज आपको किसी भी सार्वजनिक स्थान, पान की या चाय की दुकान, सड़क के नुक्कड़, बस-रेल आदि में सहज ही नजर आ जायेंगे। अड्डेबाजी का एक और सह-उत्पाद है- ध्वनि प्रदूषण। शहरों में जितना भी ध्वनि प्रदूषण होता है, उससे आधा तो इन अड्डेबाजों की ही करामात है। मोटर वाहनों, टेंपो-आटोरिक्शावालों, भोंपुओं पर नाहक ही सब दोष मढ़ दिया जाता है।
सारे देश की भांति हमारे मुहल्ले में भी यह प्रजाति पाई जाती है। हमारा स्थानीय प्रशासन इन पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान है सो कई दशकों पूर्व उसने इन अड्डेबाजों के अड्डेबाजी के लिए एक स्थान मुकर्रर किया। वैसे तो यह स्थान सार्वजनिक पुस्तकालय कहलाता है, परंतु यहां की पुस्तकें इन अड्डेबाजों और उनके नाते-रिश्तेदारों के निजी पुस्तकालयों की शोभा बढ़ाती हैं। कुल मिलाकर इस पुस्तकालय का बलात्कार हमारे अड्डेबाज बुद्विजीवी बहुत पहले ही कर चुके हैं। अब इसका महत्व केवल इतना रह गया है कि यहां कुछ अखबार और पत्रिकाएं आ जाती हैं और अड्डेबाजी के लिए प्लास्टिक की कुर्सियों और एक पंखे की उत्तम व्यवस्था है। यहां सुबह-शाम ऐसे ही अड्डेबाज बुद्विजीवियों का जमावड़ा होता है और देश-दुनिया की समस्याओं पर गहन विचार-विमर्श किया जाता है। ये बुद्विजीवी सुबह-सुबह अखबार पढ़ते हैं और दिनभर गुस्से में रहते हैं। व्यवस्था, शासन, प्रधानमंत्री, दुनिया, भगवान और न जाने किस-किस को कोसते रहते हैं। दिनभर इनका पेट खराब ही रहता है। शाम होते ही ये फिर से आकर अड्डे की कुर्सियों पर कब्जा जमा लेते हैं। फिर दिनभर का गुस्सा उतारा जाता है। जमाने भर को गालियां देकर जब ये घर लौटते हैं तो इनका पेट साफ हो जाता है और रात को यह सोचकर ये चैन की नींद सो जाते हैं कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता।
ऐसे ही एक अड्डेबाज सज्जन हैं जो अपने सरकारी दफ्तर में कभी-कभार ही पाये जाते हैं। एक दिन शहर में फैली गंदगी के कारण कामचोर नगरपालिका के अमले पर बहुत गुस्सा हो रहे थे। बाद में यह कहकर शांत हो गए कि इस देश में तो कोई काम करना ही नहीं चाहता। एक प्राइमरी स्कूल के मास्टरसाब भी हैं जो स्कूल में जाकर कक्षाएं लेने को अपनी शान में गुस्ताखी समझते हैं और पुस्तकालय में किसी कुर्सी पर जमे हुए अखबार पढ़ते पाये जाते हैं। एक दिन अखबार पढ़कर वे बिगड़ गये। बोले- इस देश का क्या होगा, सरकार उच्च शिक्षण संस्थाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर रही है, अजी पहले उनके लिए प्राथमिक शिक्षा की तो ढंग से व्यवस्था करे। अगले दिन वे आई.आई.टी. से होने वाले ब्रेन-ड्रेन पर चिंता करते सुने गए। एक दिन बड़ा ही मजेदार वाकया हो गया। एक सज्जन पुस्तकालय में पधारे। गले में सोने की मोटी चेन पड़ी हुई थी। मोबाइल फोन उनके पास दो थे। एक कान से चिपका हुआ था, दूसरे के बजने की आवाज जेब से आ रही थी। वे कभी-कभार अखबारों में छपने वाले टेंडरों की जानकारी लेने आया करते हैं। वैसे उनका एक अलग ही टाइप का व्यवसाय है। उनके पास सार्वजनिक वितरण प्रणाली की एक दुकान का लाइसेंस है और वह मिट्टी का तेल बस-ट्रक, ट्रैक्टर वालों को बेचते हैं। उनके सामने अखबार पड़ा हुआ था। आजकल हमारे माननीय सांसदगण संसद की बजाय अदालतों और जेलों का चक्कर काटते हुए एक तीसरी जगह भी देखे जाते हैं- अखबारों की हेडलाइन में(पुलिस द्वारा धक्का देकर ले जाये जाते हुए)। सो उन महाशय की ऐसे ही किसी सांसद पर नजर पड़ गई। छूटते ही बोले- क्या हो रहा है इस देश में। बाद में बहुत देर तक वह सांसदों को उनके आचरण के लिए गरियाते रहे और राजनीति में भ्रष्टाचार,अपराधीकरण आदि पर चिंता जताते रहे। चलते-चलते उन्होंने कहा- इन भ्रष्टाचारियों के साथ यही व्यवहार होना चाहिए। मुझे लगा उनका आशय था कि हम रोज मिट्टी का तेल ब्लैक करते हैं, सड़क के ठेके में घटिया माल लगाकर पूरा पैसा डकार जाते हैं। जब हमारे खिलाफ शिकायतें हो रही हैं तो सांसद भी तो साले फंसने चाहिए !
मेरे एक मित्र भी हैं जो राष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा करना अपने समय की बर्बादी समझते हैं। वे हमेशा अंग्रेजी अखबार पढ़ते हैं, अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर चर्चा करते हैं और अड्डेबाजों की भीड़ में अपनी कुछ अलग पहचान बनाने के लिए उनसे थोड़ा हटकर बैठते हैं। एक दिन हमारे अड्डेबाज गांवों में होने वाले पंचायत चुनावों को लेकर चर्चा करने लगे। हमारे मित्रबंधु लगे नाक-भौं सिकोड़ने कि ये छोटे लोग केवल छोटी ही बात कर सकते हैं। वैसे आजकल हमारे मित्र बंधु इराक मामले में व्यस्त हैं और दुनिया से आतंकवाद मिटाने व मध्यपूर्व की बेहतरी के लिए उनका अपना एक रोडमैप है। इनसे छोटे मुद्दों पर बात करना वे अपनी तौहीन समझते हैं। ये शायद एक अलग टाइप की बीमारी है जो अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों को ही होती है, ऐसा मेरा ख्याल है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे से याद आया मेरी एक सहपाठी हुआ करती थी। वह अपने आपको कूटनीति की गहरी जानकार मानती थी। हुआ यूं कि एक दिन उसने एक अखबार में कश्मीर घाटी से संबंधित कोई लेख पढ़ लिया था।इसलिए वह अक्सर केंद्र सरकार को इस मामले में अदूरदर्शी कहकर कोसती रहती थी। एक दिन उसने नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में लेख पढ़ा और आई.ए.एस बनने का ख्वाब देखने लगी। उसकी किताबों से ज्यादा नजदीकी कभी नहीं देखी गई इसीलिए मैंने एक दिन उससे पूछ ही लिया कि आप आई.ए.एस क्यों बनना चाहती हैं। मोहतरमा का जवाब था कि देश में आजकल योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो पा रहा है। पूरी नौकरशाही भ्रष्टाचार में डूबी है। योजनाओं का एक पैसा नहीं खर्च किया जा रहा। अगर वह आई.ए.एस बन गई तो यह सब गड़बड़ घोटाला समाप्त कर देगी। जवाब सुनकर मुझे हंसी आ गई। दिमाग ने अनुमान लगाया कि अखबारी वायरस इन मोहतरमा के अंदर बहुत गहरे पैठ गया है और जल्द ही इलाज नहीं किया गया तो मरीज ये बीमारी दूसरों में भी फैलाता नजर आएगा।
अखबार पढ़ना स्वयं में तो बहुत खतरनाक चीज तो है ही, इससे उत्पन्न होने वाली बीमारियां भी एकाध नहीं कई प्रकार की होती हैं और उस पर भी तुर्रा ये कि इन बीमारियों का मेडिकल साइंस में कोई इलाज नहीं। सबसे भयंकर बीमारी है देश की दशा सुधारने की। अखबार पढ़ने के शौकीन खुद जीवन में कभी न सुधरें, हर शाम देश को सुधारने का बीड़ा अवश्य उठा लेते हैं। अखबार इनके लिए दफ्तर की फाइल की तरह होते हैं। रोज नया अखबार आता है और रोज ये देश की नई-नई समस्याओं से जूझने में लगे रहते हैं। इससे भी भयंकर बीमारी है आदर्शवाद की बीमारी। भ्रष्ट से भ्रष्ट अखबार पढ़ने वाला भी रोज समाज और देश को एक नई राह दिखाता नजर आएगा।
ध्यान देने योग्य बात है कि व्यवस्था को कोसना और उसे कोसने की काबिलियत रखना दोनों मुख्तलिफ बातें हैं पर विडंबना है कि ये अड्डेबाज पाठक पहली श्रेणी में आते हैं और दूसरी श्रेणी में आने वाले लोग अपना काम करते हुए कम ही पाये जाते हैं।
हमारे इन अखबारी अड्डेबाजों की दुनिया में दुष्यंत कुमार की कविता का अर्थ कुछ इस प्रकार से निकलता है-
“सिर्फ हंगामा खड़ा करना ही तो हमारा मकसद है,
सारी कोशिश है कि टाइमपास का कोई बहाना मिलना चाहिए।”
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व्यंग्य
Sunday, May 06, 2007
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मुझे अभी-अभी अंतरजाल पर विचरते हुए कुछ बहुत ही कमाल की लिंक्स मिलीं- हिन्दी के पुराने कार्यक्रमों की आप भी डाउनलोड कीजिये और मजा लीजिये.
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Wednesday, May 02, 2007
गर्व करें या शर्म?
पिछले कुछ दिनों से भारत के पड़ोसी दक्षिण एशियाई मुल्कों से बहुत सी खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ अपनी हुकूमत बचाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार दिख रहे हैं। वैसे पहले से ही उनकी नीचता पर किसी को शक नहीं है। पर न्यायपालिका और लोकतांत्रिक शक्तियों के पीछे जिस तरह उनका फौजी, तानाशाही तंत्र डंडा लेकर पड़ा हुआ है, उससे इस देश में लोकतंत्र की पुन:स्थापना अभी दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है। ऊपर से फौजी प्रशासन ने लाल मस्जिद और मदरसा हफ्सा की आड़ लेकर लोकतंत्र के हिमायतियों के समक्ष दूसरी ओर से भी मोर्चा खोले हुए है। देश पर अराजकता और कट्टरपंथ की जकड़न और तेजी से बढ़ रही है।
उधर बांग्लादेश में तो फौजी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें ही पार कर दी हैं और दूसरा म्यांनमार बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। दक्षिण में श्रीलंका में भी हालात बेहतर नहीं हैं। वहां की लोकतांत्रिक सरकार तमिल विद्रोहियों के हमले लगातार झेल रही है। नेपाल में अभी देखना बाकी है कि लोकतंत्र वहां कितना सफल हो पाता है। वैसे सरकार में माओ के मानसपुत्रों के शामिल होने के बावजूद देश को साम्यवादी तानाशाही की राह पर धकेले जाने का खतरा अभी बना हुआ है और चीन भी यही चाहता है। चीन हालांकि सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है पर लोकतंत्र जैसे शब्द उसके लिए अभी भी अछूते ही हैं।
फिर हमारे पास ऐसा क्या है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। निस्संदेह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते आज हमारे पास गर्व करने लायक बात है और फिर ऐसे क्षेत्र में जहां लोकतंत्र अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। परंतु गर्व करने की यह स्थिति केवल तब तक है, जब हम केवल अपने पड़ोसियों से तुलना कर रहे हों। वस्तुत: हम यदि ऐसी तुलना कर भी लें तो यह स्वत: ही हास्यास्पद हो जाती है। जब हम तेजी से बढ़ती एक आर्थिक महाशक्ति की तुलना ऐसे विश्व के करने लगें जहां के लोगों के जीवन में एक सुरक्षित जीवन की प्रत्याशा, आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक बेहतर राष्ट्र का सपना जैसी कोई चीज ही न रह गई हो।
फिर भी हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व उसी तरह कायम है जिस तरह की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की होगी। पर जिस प्रकार एक लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ते हुए भी हमारे लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है वह तो हमें अपने लोकतंत्र पर शर्म करने को ही मजबूर करता है। ज्यादा गहराई में न जाकर बस कुछेक उदाहरणों पर ही दृष्टिपात करने से तस्वीर साफ दिखाई देती है। सांसदों का जघन्य अपराधों में लिप्त पाया जाना, देश को बांटने के लिए राजनेताओं की आरक्षण के नाम पर खींचतान, जेल में बैठकर चुनाव जीतना, वोट बैंक के लिए नीचता की सभी हदें पार करना।
ऐसी स्थिति में आप ही कोई निर्णय कीजिए कि हम गर्व करें या शर्म!
उधर बांग्लादेश में तो फौजी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें ही पार कर दी हैं और दूसरा म्यांनमार बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। दक्षिण में श्रीलंका में भी हालात बेहतर नहीं हैं। वहां की लोकतांत्रिक सरकार तमिल विद्रोहियों के हमले लगातार झेल रही है। नेपाल में अभी देखना बाकी है कि लोकतंत्र वहां कितना सफल हो पाता है। वैसे सरकार में माओ के मानसपुत्रों के शामिल होने के बावजूद देश को साम्यवादी तानाशाही की राह पर धकेले जाने का खतरा अभी बना हुआ है और चीन भी यही चाहता है। चीन हालांकि सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है पर लोकतंत्र जैसे शब्द उसके लिए अभी भी अछूते ही हैं।
फिर हमारे पास ऐसा क्या है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। निस्संदेह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते आज हमारे पास गर्व करने लायक बात है और फिर ऐसे क्षेत्र में जहां लोकतंत्र अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। परंतु गर्व करने की यह स्थिति केवल तब तक है, जब हम केवल अपने पड़ोसियों से तुलना कर रहे हों। वस्तुत: हम यदि ऐसी तुलना कर भी लें तो यह स्वत: ही हास्यास्पद हो जाती है। जब हम तेजी से बढ़ती एक आर्थिक महाशक्ति की तुलना ऐसे विश्व के करने लगें जहां के लोगों के जीवन में एक सुरक्षित जीवन की प्रत्याशा, आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक बेहतर राष्ट्र का सपना जैसी कोई चीज ही न रह गई हो।
फिर भी हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व उसी तरह कायम है जिस तरह की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की होगी। पर जिस प्रकार एक लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ते हुए भी हमारे लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है वह तो हमें अपने लोकतंत्र पर शर्म करने को ही मजबूर करता है। ज्यादा गहराई में न जाकर बस कुछेक उदाहरणों पर ही दृष्टिपात करने से तस्वीर साफ दिखाई देती है। सांसदों का जघन्य अपराधों में लिप्त पाया जाना, देश को बांटने के लिए राजनेताओं की आरक्षण के नाम पर खींचतान, जेल में बैठकर चुनाव जीतना, वोट बैंक के लिए नीचता की सभी हदें पार करना।
ऐसी स्थिति में आप ही कोई निर्णय कीजिए कि हम गर्व करें या शर्म!
सूरज को डूबने नहीं दूंगा- सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
अब मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा।
देखो मैंने, कंधे चौड़े कर लिए हैं।
मुट्ठियां मजबूत कर ली हैं।
और ढलान पर एडि़यां जमाकर
खड़े होना मैंने सीख लिया है।
घबराओं मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूं।
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा।
मैं कंधे अड़ा दूंगा।
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा।
मैंने सुना है
उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनियों का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।
रथ के घोड़े, आग उगलते रहें
अब पहिए टस से मस नहीं होंगे।
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं।
कौन रोकेगा तुम्हें?
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊंगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हें गाऊंगा,
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है,
हर आंखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊंगा।
सूरज जायेगा भी तो कहां?
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारे रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को डूबने नहीं दूंगा।
लेखक- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
देखो मैंने, कंधे चौड़े कर लिए हैं।
मुट्ठियां मजबूत कर ली हैं।
और ढलान पर एडि़यां जमाकर
खड़े होना मैंने सीख लिया है।
घबराओं मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूं।
सूरज ठीक जब पहाड़ी से लुढ़कने लगेगा।
मैं कंधे अड़ा दूंगा।
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को डूबने नहीं दूंगा।
मैंने सुना है
उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनियों का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।
रथ के घोड़े, आग उगलते रहें
अब पहिए टस से मस नहीं होंगे।
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिए हैं।
कौन रोकेगा तुम्हें?
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊंगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतों में मैं तुम्हें गाऊंगा,
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है,
हर आंखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊंगा।
सूरज जायेगा भी तो कहां?
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारे रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को डूबने नहीं दूंगा।
लेखक- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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