मध्यप्रदेश में हाल ही में लोक सेवा आयोग और न्यायिक सेवा परीक्षाओं के नतीजे आने के बाद कमोडिटी मार्केट खूब उछालें मार रहा है। ऊंची जातियों में जहां तैयारी से पहले कमोडिटीज के औने-पौने दाम मिल रहे थे वहीं अब इनके रेट 25 से 50 लाख तक पहुंच रहे हैं। हालांकि बोली लगाने वालों की तो कोई कमी नहीं पर कम ही हैं पर उछलते मार्केट में हैसियत वाले ही भाव-ताव कर पा रहे हैं।
जी हां कमोडिटी मार्केट का मतलब आप समझ रहे होंगे। इस समय नौकरीशुदा और वह भी राज्यसेवा में चयनित लड़कों की रेट्स का आप अनुमान नहीं लगा सकते। फिर भी बोली लगाने वालों की यहां कोई कमी नहीं है। अपने विवाह के लिए लाखों की रिश्वत लेने वाले इन नए अफसरों से ईमानदारी की उम्मीद कतई मत करिएगा और बोली लगाने वाले जो लाखों की रकम लगा रहे हैं वो कहां से आ रही है? नहीं, वो सफेद कमाई तो बिलकुल नहीं है। हमारे समाज की यही विडंबना है कि यहां महिला सशक्तिकरण के बड़े-बड़े भाषण दिये जाते हैं, कानून बन जाते हैं, आरक्षण मिल जाता है पर महिलाओं की स्थिति वही है। वैसे भी सामंतवादी समाज में महिलाओं को क्या स्थान प्राप्त है ये सभी जानते हैं और जिस सामंतवाद के खात्मे की बात आजादी से अब तक होती रही है वो अपनी पूरी ताकत से साथ मौजूद है और फल-फूल रहा है।
कन्या भ्रूण हत्या के पीछे हमारे एनजीओ चिल्ल-पों मचाते हैं, सरकार रोज नयी-नयी योजनाएं बनाकर इसे खत्म करने की प्रतिबद्धता दोहराती रहती है पर इस समस्या की भयावहता में कोई कमी नहीं आती। क्या कारण है कि इतने प्रयासों के बावजूद हम इसे खतम तो क्या कम भी नहीं कर पाए है। इधर-उधर से लेकर गिनाने के लिए बहुत कारण हैं पर एक कारण है जिसकी बात हम कभी नहीं करते और करते भी हैं तो दूसरों के लिए। हमारे खुद के लिए ये बात हमें कतई नहीं सुहाती। दहेज ! जी हां यही वह कारण है जो आज कन्या-भ्रूण हत्या की एकमात्र और असली वजह है और दिनों-दिन झूठी शानो-शौकत के पीछे पागल हमारे समाज में इस महामारी को खत्म करने की बजाय प्रोत्साहन दिया जा रहा है। महानगरो में रहने वाले कुछ लोग इससे भले सहमत न हों पर छोटे शहरों और ग्रामीण भारत की यही हकीकत है।
ऊपर से हमारे मुख्यमंत्री सरीखे नेता ऐसे विवाह समारोहों में सम्मिलित होते हैं जहां लाखों-करोड़ों का दहेज खुलेआम दिया जाता है। अफसरी पाने वाले नौजवान या उनके परिवारजन कभी नहीं चाहते कि लड़की वालों से एकमुश्त मोटी रकम न वसूली जाए। सभ्य समाज लड़कियों को कितना ही पढ़ा-लिखा रहा है। पर उनके लिए ऊंची रकम पर दूल्हा खरीदना ही पड़ता है। और दूल्हों की खरीद-फरोख्त वाले इस सिस्टम से हम आशा नहीं कर सकते कि वहां लड़कियों को बराबरी का दर्जा अभी क्या पचास साल बाद भी मिल सकेगा। यह वही देश है जहां कभी लोकनायक ने संपूर्ण क्रांति की बात की थी। उन्होंने अपने जीते-जी इस प्रकार की खरीद-फरोख्त की सख्त मुखालफत की पर उनके बाद जितनी तेजी से उनकी क्रांति का पहिया उल्टी दिशा में घूमा उसको देखकर तो बस बस सिर ही फोड़ा जा सकता है।
हमारे माननीय मुख्यमंत्री ने भी भ्रूण-हत्या जैसे मसले पर बड़ी संवेदनशीलता का परिचय दिया। उन्होंने ‘लाड़ली बेटी योजना’ या शायद ‘लाड़ली लक्ष्मी योजना’ शुरू की है जिसमें लड़कियों के जन्म के समय उनके नाम बैंक में सरकार कुछ रकम जमा करेगी और ये रकम उसके विवाह के समय काम आयेगी। उनकी शिक्षा के लिए लिए भी कुछ योजनाएं शुरू की गई हैं। पर बात यहीं पर आकर अटक जाती है कि जब शादी पर खर्च करना ही है तो बच्चियों की जरूरत ही क्या है। लड़कियों को पालना, उन्हें शिक्षा देना ऐसा शेयर हो गया है जिसमें निवेश करते रहने के बावजूद वापस कुछ नहीं मिलता। तो फिर हमारे सभ्य समाज के समझदार लोग उन्हें दुनियां में आने ही क्यों देंगे ?
अगली पोस्ट में ऐसे भयावह आंकड़े जिन्हें देखकर भारत की महान संस्कृति का डंका पीटने वालों को जूते मारने का मन करता है ............
3 comments:
कमोडिटी मार्केट के गिरने की कोई उम्मीद? केवल परीक्षा में बैठने पर ये हाल है. (या फिर बेहाल है.)
यहाँ तो लगता है जैसे "मेरी कमोडिटी की अभी धुलाई-पोछाई हो रही है. आगे चलकर जब इसे सुखायेंगे तो ये और चमकेगी" टाइप बात बोलकर कीमतें बढ़ाई जा रहीं हैं... धन्य हैं वे दूकानदार (या फिर खेतिहर) जिन्होंने इन्हें पैदा किया.
हाय! हम कमॉडिटी न बन पाये!
वाजिब चिंताएं
http://shabdashilp.blogspot.com/2008/03/indian-grooms-in-commodity-market.html
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