Thursday, February 19, 2009

पूंजीवाद से चिढ़ इसलिए है

वैसे वैश्विक मंदी के दौर में जहां एक ओर सुना जा रहा है कि साम्‍यवादी विचारधारा की ओर फिर से लोग आकर्षित हुए हैं और कार्ल मार्क्‍स की किताबों की बिक्री बढ़ गई है तब पूंजीवाद जैसी व्‍यवस्‍था को गरियाना बुद्धिजीवी टाइप लोगों के लिए एक शगल हो सकता है खासकर उनके लिए जिनकी रोजी-रोटी ही पूंजीवाद के विरोध पर टिकी है ये बात अलग है कि उनकी खुद की जीवनशैली से पूंजीवाद को निकाल दिया जाए तो वे घिघियाने लगेंगे।
पर हर किसी के लिए पूंजीवाद के विरोध के अपने कारण हैं। ज्‍यादातर लोग किसी वाद या व्‍यवस्‍था के विरोधी इसीलिए होते हैं क्‍योंकि वे उसकी विरोधी व्‍यवस्‍था के पोषक होते हैं, ऐसे में उन्‍हें तो आंख मूंदकर उसका विरोध करना होता है। होता ये भी है कि यदि आप किसी एक विचारधारा या व्‍यवस्‍था का विरोध करते हैं तो आपको खुद-ब-खुद विरोधी खेमे का समझ लिया जाता है। जैसे यदि आप कांग्रेस का विरोध करते हैं तो यकीनन आपको लोग खाकी पैंट वाला ही समझेंगे चाहे आप उनसे भी कांग्रेस जितनी ही नफरत करते हों।

बहरहाल बिना बेकार की भूमिका बांधे सीधे मुद्दे पर आ जाते हैं। मैं कभी किसी वाद या विचारधारा का समर्थक नहीं रहा। किसी भी विचारधारा को अपना लेने के कारण मेरे ख्‍याल से हर सिस्‍टम या विचारधारा की अच्‍छी-बुरी बातों को जानने-समझने से हम महरुम रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में हम जब कुछ देखते हैं तो उसी विचारधारा के चश्‍मे से देखते हैं जैसे मनमोहन सिंह समाजवाद के नाम से और वामपंथी पूंजीवाद के नाम से बिदकते हैं।

पूंजीवाद के समर्थक मानते हैं क‍ि ये एक संपूर्ण व्‍यवस्‍था है और जनता के हितों के लिए जितने प्रयास इस व्‍यवस्‍था के माध्‍यम से किये जा सकते हैं उतने किसी और से नहीं। पर वास्‍तव में जनता-जनार्दन क्‍या है पूंजीवाद में ? अपना मुनाफा बढ़ाने का एक जरिया मात्र !
आज दोपहर में मैं एक नये बने शॉपिंग मॉल में घूम रहा था। वहां दो-चार शोरूम में मैंने लकड़ी का बना हुआ फर्श देखा। फालतू और बेवजह के लग्‍जरी सामान से बेहद चिढ़ होने के कारण मुझे बहुत बुरा लगा कि कैसे अनगिनत बेहतरीन पेड़ों को जूतों के तले रौंदे जाने के लिए फर्श में इस्‍तेमाल कर लिया जाता है। पिछले साल बीबीसी के राजेश जोशी दक्षिण अमेरिका में अमेजन के जंगलों से रिपोर्टिंग करते हुए कह रहे थे कि बड़ी तेजी से ये जंगल काटे जा रहे हैं और इसकी लकड़ी यूरोप और अन्‍य देशों में लकड़ी का सामान बनाने के लिए हो रही है। लकड़ी के सामान की जरूरत हर घर में होती है पर फर्श तक लकड़ी का बनवाने को लोग शान समझने लगे हैं। इसके पीछे की कीमत को कोई नहीं जानना चाहता। मेरा तो मानना है कि ये तो एक अपराधिक स्‍तर का उपभोक्‍तावाद है जिसमें प्रकृति के अपराधी हम खुद हैं और जैसा कि सर्वविदित है हमें एक ना एक दिन इसकी सजा मिलनी है।
पर आज के समय में जहां हर चीज मुनाफे को ध्‍यान में रखकर की जाती है और मुनाफा ही भगवान है वहां पर्यावरण जैसी चीजों के तो कोई मायने रह ही नहीं जाते।
टीवी पर विज्ञापन आ रहा है कि फलां परफ्यूम या डियो लगाये लौंडे के पीछे लड़कियां भाग रही हैं। जिसके पास बढि़या गैजेट्स हैं वही हीरो है। जो जितना ज्‍यादा फिजूलखर्च है उसका उतना ही जलवा है। हर कंपनी चाहती है लोग ज्‍यादा से ज्‍यादा खरीदें और ज्‍यादा से ज्‍यादा मुनाफा दें। यहां तक कि एक पूंजीपति तो ये सोचता है कि लोग पुराने का मोह से जितनी जल्‍दी मुक्‍त हों उतना अच्‍छा और जितनी जल्‍दी पुराने माल को फेंककर नया माल खरीदने आयें उतनी ही चांदी। पर इस तरह की सोच हमें ले कहां जा रही है। क्‍या हमने कभी सोचा है कि हम जो अनाप-शनाप कॉस्‍मेटिक्‍स उपयोग करते हैं उनको बनाने और उनके उपयोग करने और उपयोग के बाद जो वेस्‍ट बचता है उसको मिलाकर पर्यावरण की कितनी वाट लगाये दे रहे हैं। हमें सिखाया जाता है कि हमें क्‍यों फलां चीज खरीदनी चाहिए और क्‍यों पुराना गैजेट बेकार है और तुरंत नया खरीद लेना चाहिए और एक उपभोक्‍ता के तौर पर हम वही सब किये जा रहे हैं जो पूंजीपति हमसे कराना चाहता है।

पूंजीवाद के समर्थक कहेंगे कि ये उपभोक्‍ताओं के लिए बेहतर है क्‍योंकि इसमें उपभोक्‍ता के हाथ में चॉइस रहती है, एक स्‍वस्‍थ प्रतियोगिता होती है जिससे उपभोक्‍ता वाजिब दामों पर अपनी मनपसंद चीजें खरीदता है। पर उपभोक्‍ता की अपनी पसंद या नापंसद क्‍या हो ये तो पूंजीवाद ही तय करता है। उपभोक्‍ता के ब्रेनवॉश के लिए जो तरीके अपनाये जाने चाहिए वे सब उसे पता हैं। उसे पता है कि कैसे किसी महाफालतू चीज की जरूरत पैदा की जाए और कैसे उसे एक जरूरी चीज में तब्‍दील करके उपभोक्‍ताओं से तगड़ा मुनाफा कमाया जाए। और एक बेचारा उपभोक्‍ता है जो दिन-ब-दिन पूंजीवाद के बहकावे और अपनी सुविधा के लालच में भयंकर रूप से लालची होता जा रहा है और उपभोक्‍ता का लालच जितना ज्‍यादा बढ़ेगा उतना ही बाजार की ताकतें उसे अपने जाल में उलझाकर मुनाफा ऐंठेंगी। लाखों-करोडों टन वेस्‍ट, ई-कचरा, धुंआ पैदा होता रहे उन्‍हें इससे क्‍या। उनका मकसद तो मुनाफा है चाहे इसके लिए धरती लाइलाज बीमारियों से ग्रसित होती रहे।
आजकल बड़े पैमाने पर लग्‍जरी आयटम्‍स की खरीदी की जाती है। ऐसे सामान जो गैरजरूरी और फालतू हैं उनका बाजार खड़ा करके एक दिखावटी समाज तैयार किया जा रहा है जो केवल दिखावे को ही सब-कुछ मानता है चाहे उसकी कितनी भी कीमत चुकानी पड़े। पर पूंजीवाद और आम ग्राहक की सुविधा के नाम पर सब चल रहा है और चूंकि सभी खुश हैं इसलिए किसे फिक्र है-सादा जीवन उच्‍च विचार जैसी बातें सुनने की। फैक्ट्रियां दिन-रात फालतू का सामान, जिसकी वास्‍तव में कोई जरूरत नहीं है, बनाने के लिए दिन-रात धुंआ उगल रही हैं। सरकारें भी खुश हैं कि टैक्‍स ज्‍यादा इकट्ठा हो रहा है। फिर ये सब करके क्‍योटो प्रोटोकाल जैसे सिस्‍टम बनाये जाते हैं मानो सौ चूहे खाकर बिल्‍ली हज करने जाए। भई समझौता तो इस बात का होना चाहिए कि मनुष्‍य अपनी जरूरतें कम करे और फालतू सामान की खरीद से बचे पर ये नहीं होगा और क्‍योटो प्रोटोकाल जैसी नौटंकियां चलती रहेगी। आगे और भी योजनाएं बनेंगी पर मनुष्‍य का लालच कहां जाएगा। संसाधनों की कमी का हल्‍ला हर जगह मचता है पर उनके किफायत से उपयोग की बात कभी नहीं होती।

महात्‍मा गांधी ने कहा था कि ये धरती मनुष्‍य की आवश्‍यकताओं की पूर्ति तो कर सकती है पर उसके लालच की नहीं पर पूंजीवाद तो लालच पर ही टिका है जिस दिन मनुष्‍य ने साधारण तरीके से जीना सीख लिया उस दिन ये बेमौत मर जाएगा। पूंजीवाद एक विचारशून्‍य और भेड़चाल वाले समाज के निर्माण में जुटा है और काफी हद तक वो इसमें सफल भी हो चुका है। एक आदमी जब कुछ खरीदता है तो शायद ही सोच पाता है कि वह चीज वास्‍तव में कितनी जरूरी है उसके लिए। उसे तो बस यही सिखाया जाता है कि स्‍टेटस मेंटेन करना है या शान मारनी है तो फलां चीज तो खरीदनी ही होगी।

कुल मिलाकर पूंजीवाद लालच पर टिका एक ऐसा दैत्‍य है जो सब कुछ खतम करके ही दम लेगा। मनुष्‍य के बढ़ते लालच, उपभोग की चरमसीमा उसे कहां तक ले जाएगी ये बताने की जरूरत नहीं है।

पुरानी भारतीय जीवनशैली मेरे ख्‍याल में पूंजीवाद और पूंजीवाद से धरती के लिए पैदा घनघोर संकट का विकल्‍प हो सकती है। इस पर फिर कभी चर्चा करते हैं..... फिलहाल के लिए बस।

7 comments:

Pratik Pandey said...

आपकी बात काफ़ी सही है। लेकिन जितने भी विकल्प इस वक़्त उपलब्ध हैं। मेरे ख़्याल से उनमें पूंजीवाद सबसे बेहतर है। पूंजीवाद की आलोचना तो बहुत हो चुकी है, बेहतर विकल्प पर ज़रा प्रकाश डालिए। :)

Anonymous said...

आपका लेख बहुत ही नापा तुला व सटीक है, दोनों पक्षों पर विचार किया है आपने। सच तो ये है की पूंजीवाद के फायदे हैं की ग्राहक की पूजा होती है, जितने पैसे हों उतने की इज्ज़त मिल जाती है, वरना सरकारी बैंक या दफ्तर वगैरह में ग्राहक देवो भव जैसी संस्कृति का आना थोड़ा मुश्किल है। लेकिन दूसरी तरफ़ बेतुके तरीकों से किसी चीज का क्रेज़ पैदा कर उसकी समाज के किसी ख़ास वर्ग जैसे बच्चे, एलीट क्लास, युवा वर्ग आदि के लोगों को फंसाना, यह भी उसमें शुमार है। असल में पूंजीवाद व समाजवाद इन दोनों का बैलेंस होना चाहिए ताकि कोई एक किसी पर हावी न पड़ जाए.

दिनेशराय द्विवेदी said...

चलिए आप लौट कर आए। एक अच्छा आलेख पढ़ने को मिला। आज इसी तरह के निष्पक्ष और यथार्थ मूल्यांकनों की आवश्यकता है।
दासयुग से अधिक बदतर क्या हो सकता था, सामंतवाद उस से बेहतर और प्रगतिशील था और पूंजीवाद उस से भी बेहतर और प्रगतिशील था। लेकिन आज उस की यह प्रगतिशीलता गुम हो गई है। उसे वापस लाना संभव नहीं है। इस का विकल्प भी कुछ तो होगा। जैसे दासव्यवस्था के गर्भ से सामंतवाद ने और सामंतवाद के गर्भ से पूंजीवाद ने जनमा है. उसी तरह नयी व्यवस्था भी इसी के गर्भ से जन्म लेगी।

Dr. Amar Jyoti said...

स्वस्थ और सन्तुलित आलेख।पूंजीवाद के उदय साथ इतिहास का सफ़र और समाज का विकास रुक थोड़े ही गया है। यथास्थितिवादी हर युग में ही तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था को शाश्वत बताते रहे हैं पर हर युग में ही अगली और बेहतर व्यवस्था के बीज निहित होते हैं।

सुशील छौक्कर said...

अरे वाह आप आ गए। बहुत अच्छा। आपने एक अच्छा आलेख लिखा है। ऐसे पढकर मुझे बचपन का वो सवाल याद आ गया जब अक्सर एक सवाल आता और मैं हमेशा मिश्रीत अर्थव्यस्था पर ही लिखता था।

Gyan Dutt Pandey said...

शायद एक संतुलित पूंजीवाद (balanced capitalism) की जरूरत है।

Sunil Sharma said...
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