Saturday, February 13, 2010

कुछ दिन तो जी लूं और

कुछ दिन तो जी लूं और
अब तक रही जिलाती मुझको
मां का अंक, पिता की उंगली
गुरू की शिक्षा, मित्र की बगली
नभ के तारे, नभ की बदली
यौवन की वह स्‍वयं कल्‍पना
आशा नव जीवन निर्माण की
भुजबल का व्‍यर्थ डींगना
रचने डग, नव निर्माण की
आशायें काफूर हुईं
अड़ी निराशा मध्‍य कंठ में
उसे निगल बाद करने जुगाली
दुनिया को सब स्‍वाद बताने
और मूर्खता पर पछताने
कुछ दिन तो जी लूं और

- बाबू विद्याराम गुप्‍ता द्वारा 26-11-1977 को रचित

3 comments:

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर भाव! गुप्त जी के शतायु होने की कामना करता हूं!

Udan Tashtari said...

गुप्ता जी की भावपूर्ण रचना पढ़वाने का आभार!

Randhir Singh Suman said...

nice