पिछले कुछ दिनों से भारत के पड़ोसी दक्षिण एशियाई मुल्कों से बहुत सी खबरें आ रही हैं। पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ अपनी हुकूमत बचाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार दिख रहे हैं। वैसे पहले से ही उनकी नीचता पर किसी को शक नहीं है। पर न्यायपालिका और लोकतांत्रिक शक्तियों के पीछे जिस तरह उनका फौजी, तानाशाही तंत्र डंडा लेकर पड़ा हुआ है, उससे इस देश में लोकतंत्र की पुन:स्थापना अभी दूर की कौड़ी ही नजर आ रही है। ऊपर से फौजी प्रशासन ने लाल मस्जिद और मदरसा हफ्सा की आड़ लेकर लोकतंत्र के हिमायतियों के समक्ष दूसरी ओर से भी मोर्चा खोले हुए है। देश पर अराजकता और कट्टरपंथ की जकड़न और तेजी से बढ़ रही है।
उधर बांग्लादेश में तो फौजी सरकार ने बेशर्मी की सारी हदें ही पार कर दी हैं और दूसरा म्यांनमार बनने की राह पर कदम बढ़ा दिये हैं। दक्षिण में श्रीलंका में भी हालात बेहतर नहीं हैं। वहां की लोकतांत्रिक सरकार तमिल विद्रोहियों के हमले लगातार झेल रही है। नेपाल में अभी देखना बाकी है कि लोकतंत्र वहां कितना सफल हो पाता है। वैसे सरकार में माओ के मानसपुत्रों के शामिल होने के बावजूद देश को साम्यवादी तानाशाही की राह पर धकेले जाने का खतरा अभी बना हुआ है और चीन भी यही चाहता है। चीन हालांकि सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है पर लोकतंत्र जैसे शब्द उसके लिए अभी भी अछूते ही हैं।
फिर हमारे पास ऐसा क्या है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं। निस्संदेह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने के नाते आज हमारे पास गर्व करने लायक बात है और फिर ऐसे क्षेत्र में जहां लोकतंत्र अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है। परंतु गर्व करने की यह स्थिति केवल तब तक है, जब हम केवल अपने पड़ोसियों से तुलना कर रहे हों। वस्तुत: हम यदि ऐसी तुलना कर भी लें तो यह स्वत: ही हास्यास्पद हो जाती है। जब हम तेजी से बढ़ती एक आर्थिक महाशक्ति की तुलना ऐसे विश्व के करने लगें जहां के लोगों के जीवन में एक सुरक्षित जीवन की प्रत्याशा, आभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक बेहतर राष्ट्र का सपना जैसी कोई चीज ही न रह गई हो।
फिर भी हमारे देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं का अस्तित्व उसी तरह कायम है जिस तरह की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की होगी। पर जिस प्रकार एक लोकतंत्र के रूप में आगे बढ़ते हुए भी हमारे लोकतंत्र का ह्रास हो रहा है वह तो हमें अपने लोकतंत्र पर शर्म करने को ही मजबूर करता है। ज्यादा गहराई में न जाकर बस कुछेक उदाहरणों पर ही दृष्टिपात करने से तस्वीर साफ दिखाई देती है। सांसदों का जघन्य अपराधों में लिप्त पाया जाना, देश को बांटने के लिए राजनेताओं की आरक्षण के नाम पर खींचतान, जेल में बैठकर चुनाव जीतना, वोट बैंक के लिए नीचता की सभी हदें पार करना।
ऐसी स्थिति में आप ही कोई निर्णय कीजिए कि हम गर्व करें या शर्म!
3 comments:
गर्व और शर्म बाद में दादा.. पहले नारद से एक पोस्ट हटाओ. हम डिसाइड नहीं कर पा रहे हैं कि गर्व करें या शर्म. उस पोस्ट पर करें या इस पोस्ट पर.
आपने दो बार पोस्ट की है एक ही रचना.. लिहाज़ा अपन एक बार गर्व कर लेते हैं और दूसरी बार शर्म.
यह आपके नजरीये पर निर्भर करता है की आप गर्व करें या शर्म.
गर्व करने लायक बातें दिनों दिन कम्होती जा रही है फिर भी यही कहेंगे कि गर्व पहले और शर्म बाद में।
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