कल तकरीबन छ: महीने बाद कोई फिल्म सिनेमा में जाकर देखी वो भी इसलिए कि फिल्म के बारे में इतना सुन रखा था कि बिना देखे रह नहीं सका.....पर लौटते समय यही बात जेहन में थी कि हम भारतीय कब बाज आयेंगे गुलामी की आदत से। स्लमडॉग के रिलीज से पहले और रिलीज के वक्त हमारे यहां विवाद हो चुके हैं पर अब जब इसे आठ ऑस्कर मिल चुके हैं तो सभी खुश हैं। मीडिया जश्न मना रहा है, कहीं इसे भारत की सफलता बताया जा रहा है, कहीं भारत का सम्मान।
पर मुझे अफसोस है कि क्यों मैंने इस घटिया फिल्म को देखने के लिए पैसे खर्च किये। यदि मनोरंजन की बात है तो साउथ की एक्शन फिल्में देखकर कहीं अधिक मनोरंजन हो सकता है और यदि वास्तविकता या सामाजिक मुद्दे पर फिल्म बनाने की बात है तो इसमें मुझे ऐसी कोई बात भी नजर ही नहीं आई। नजर आया तो केवल यह कि फिल्म का एक और केवल एक ही उद्देश्य था भारत की गंदगी, सड़ी हुई व्यवस्था और लोगों की दयनीय व्यवस्था को दिखाना और फिर वाहवाही लूटना। कुछ समय पहले अमिताभ बच्चन ने भी इसे लेकर नाराजगी जताई थी पर लोगों ने उनकी ही आलोचना करना शुरू कर दिया और फिर जब सब अच्छा ही अच्छा हो रहा हो- रहमान अवार्ड पर अवार्ड जीते जा रहा हो, भारतीय कलाकार उस फिल्म का हिस्सा हों और हमारी प्यारी आमची मुंबई पर फिल्म बनी हो तो बस हमें लग रहा है कि हमने दुनिया फतह कर ली।
पश्चिम में ऐसा प्रचार किया गया कि स्लमडॉग पहली फिल्म है जिसने भारत की वास्तविकता को सिनेमा के पर्दे पर दिखाया है। मतलब अब तक हम केवल मिथुन और शाहरुख टाइप मसाला और फूहड़ फिल्में ही बनाना जानते हैं और हमें एक गोरे से सीखने की जरूरत है कि फिल्म क्या होती है और कैसे व क्यों बनाई जाती है।
यदि हम मुंबई की ही बात करें तो विगत समय में हमारे यहां इतनी बेहतरीन फिल्में फिल्मकारों ने बनाई हैं कि स्लमडॉग वाला डैनी बॉयल उनके आगे पानी भरे। इस समय मुझे कुछ बेहतरीन फिल्में याद आ रही हैं- चांदनी बार, पेज3, ब्लैक फ्रायडे, अ वेडनेसडे और मुंबई मेरी जान। इन फिल्मों ने वाकई वास्तविकता के धरातल को छुआ है अपने सही अर्थों में। सच्चाई ये है और सच्चाई वो भी है जो स्लमडॉग में दिखाई देती है पर उसके पीछे छिपा नजरिया ही नहीं नजर आता।
यदि वास्तविकता की भी बात करें तो उस स्तर पर भी ये एक बचकानी फिल्म है। केवल मुंबई के स्लम्स, कूड़े के ढेर, गंदगी से पटे नाले, भीख मांगते बच्चे यही सब दिखाकर रियैलिटी का हल्ला मचाया जा रहा है। फिल्म का हीरो कैसे कौन बनेगा करोड़पति के हर सवाल का जवाब जानता है इसकी कहानी भी बहुत बचकानी सी और नाटकीय है। फिक्शन भी तर्कयुक्त होना चाहिए ना कि शाहरुख खान की 'रब ने बना दी जोड़ी टाइप'।
मेरे ख्याल में यदि स्लमडॉग जैसी घटिया फिल्म को ऑस्कर मिलता है तो कम से कम अब तो हमें जरूर खुश होना चाहिए। स्लमडॉग की सफलता पर नहीं बल्कि इस पर कि हम स्लमडॉग से बेहतर फिल्में बना चुके हैं और बना रहे हैं।
और हां वह गाना जिसके लिए रहमान को दो ऑस्कर मिले वाकई मुझे तो कुछ खास नहीं लगा पर ऑस्कर वालों को खास इसलिए लगा कि वह एक गोरे की फिल्म में है, जो कि केवल अपना सम्मान करना जानते हैं। रहमान इससे कई गुना बेहतर संगीत पहले रच चुके हैं। लगान या रंग दे बसंती के गीत ही सुन लें। पर गोरे लोगों को वही चीज पसंद आती है जिसमें हम भारतीयों की भद्द पिटे उनकी नहीं वरना लगान को ऑस्कर ना देने के पीछे का कारण मेरी समझ में तो नहीं आता।
हाल फिलहाल में सुना है एक भारतीय लेखक अरविंद अडिगा को भी बुकर मिला है। पश्चिम के हाथ एक और मसाला लगा है जिसके माध्यम से भारत की नीचता का प्रचार किया जा सके। पश्चिमी पुरस्कारों की मंशा मेरे ख्याल से पुरस्कार देकर हर उस चीज का प्रचार करने की है जिससे पूरब का अपमान होता हो। वरना वास्तविकता ही यदि दिखाना है तो बहुत कुछ है दिखाने को।
पर हमेशा पश्चिमी ठप्पा लगवाने को आतुर हम भारतीय हमेशा ऑस्कर को ही परम सत्य मानते हैं। क्या कोई भारतीय कह सकता है कि स्लमडॉग लगान से एक बेहतर फिल्म थी ? क्यों हम उस समय लगान के ऑस्कर में नामांकित होने पर जश्न मना रहे थे और पुरस्कार ना जीत पाने पर मायूस थे।
कुछ भी हो स्लमडॉग के ऑस्कर मिलने के बाद एक बात अच्छी हुई है कि हमें इस बात पर विचार-मंथन करने का मौका मिला है कि क्या वाकई ऑस्कर जैसे टुच्चे पुरस्कारों का कोई मतलब है और जो पुरस्कार ऐसी दोयम दर्जे की फिल्म को मिला है क्यों ना हम सब मिलकर उसका बॉयकॉट करें और फैसला लें कि अब कोई भारतीय फिल्म ऐसे छोटे और ओछे पुरस्कार के लिए ना भेजी जाए :) ।
छायाचित्र: बीबीसी के सौजन्य से।
11 comments:
आप भी झांसे में आ गए। और फिल्म देख आए।
सभी पुरस्कारों की हकीकत हर किसी को भी मालूम है साहब, चाहे वो हिन्दुस्तानी हों या विदेशी, चाहे पहले रायबहादुरी के खिताब होते थे या आज के पदमश्री, चाहे गली मोहल्ले के सिनेमा रतन हों या देशी फिल्मफेयर या अमरीकी आस्कर, सभी तो जोड़ तोड़ जुगाड़ से मिलते हैं, क्यों भाव देते हो इन पर लिखकर.
सहमत, लेकिन अभी भी अंग्रेजी के मानसिक गुलामों को इसकी आलोचना सहन नहीं हो रही… हद है
aapki baat se 100 prtishat sahmat...badhai bebaak lekhan ke liye..
बिल्कुल सही कहा ...
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
आपकी बातों से सहमत हूं.....पर इतना बडा सम्मान मिला है...इसकी खुशी भी है..महा शिव रात्रि की बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं..
बहुत सही कहा आपने ,मैं तो सहमत हूँ
आस्कर‚ न भी मिले तो क्या फर्क पड़ता है आखिर अब हमारे यहां ही बहुत सारे पुरस्कार दिये जा रहे हैं और रही पैसा कमाने की बात तो पूरी दुनिया में भारतीय फिल्में रिलीज हो रही हैं और दर्शकों से अपना लोहा मनवा रही हैं।
अब यह तो पब्लिसिटी की मनोवृत्ति है। कहां रोक पायेंगे।
मिसाल के तौर पर देखें - किसी अखबार में ब्लॉग जिक्र को ब्लॉगर ऐसे प्रदर्शित करते हैं मानो बहुत बड़ी उपलब्धि हो। ब्लॉग को प्रिण्ट मॆं दख कर सनसनी होती है, जबकि ब्लॉग कहीं बेहतर अभिव्यक्ति माध्यम है।
ऑस्कर उत्कृष्टता का सोल पैमाना नहीं हो सकता - जैसे बुकर जीत कर अरुंधती राय सर्वोत्तम लेखिका नहीं मानी जा सकतीं!
AAPNE TZP NAHIN DEKHI? INDIA'S OFFICIAL ENTRY TO OSCARS THIS YEAR!
bahut hi sundar lekh hai mitra.......in filmi bhaando ka ant samay nikat hi hai..................
jai hindu
jai hindu sthan
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