श्रीमान् चंपू से हमारी दोस्ती उस वक्त हुई जब हम ग्यारहवीं कक्षा में थे। श्रीमान चंपू उस समय कक्षा में नये थे। कुछ मुलाकातों के पश्चात हमने जाना कि चंपूजी एक 'दूरद्रष्टा' व वैचारिक रूप से समृद्ध मष्तिष्क के स्वामी हैं सो 'हमारे जैसे अल्पबुद्धि वाले' प्राणियों का उनकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक ही था। चंपूजी जब भी मिलते दीन-दुनिया की नई-नई बातें व विचारों का हमला इस तरह करते कि हमारी अल्पबुद्धि उनकी विद्वत्ता का लोहा मान जाती। चूँकि महाशय मैट्रिक के समय हॉस्टल में थे सो उनकी बहस करने की क्षमता एक अनुभवी वकील को भी मात करती थी। हम जब भी घर से स्कूल के लिए निकलते वे हमें रास्ते में मिल जाते और कहते- "अरे ये कक्षाओं में जाकर पढना तो मूर्खों के चोचले हैं, असल बुद्धिमान तो वे हैं जो दिन में विद्यालय से बंक मारें और रात में जाग-जागकर पढें", सो वे हमें स्कूल टाइम में शहर भर में घुमाते और हमें एक शिष्य की तरह दुनियादारी की बातें समझाते। अब चूँकि हम जैसे 'अल्पबुद्धि वाले' प्राणियों की क्या मजाल कि ऐसे महात्मा की बातों को अस्वीकार दें सो हम भी उन्हे गुरू मानकर उनके बताये मार्ग पर चल पड़ते। कभी हम दिन में अध्ययन करते तो वे आकर हमें समझाते कि- "अरे भाई कैसा अनर्थ करते हो, क्या सिनेमा नहीं देखते? फिल्म में हीरो किस तरह पढाई-लिखाई जैसी चीजों के साथ हीरोइन के साथ रोमांस और विलेन की पिटाई इत्यादि सभी को एक साथ मेंटेन कर लेता है, परंतु एक आप हो कि पढाई के अलावा दूसरा काम नहीं कर पाते"। वे हमें तरह-तरह के उदाहरण देकर समझाते कि किस तरह होनहार लड़के दिन में घूमने फिरने, लड़की पटाने के साथ रात में पढाई भी कर लेते हैं। आखिर कौन इतना मूर्ख होगा कि इतने ज्ञान की बातें सुनकर भी उसका माथा न ठनके सो धीरे-धीरे ही सही उनकी बात हमारी समझ में आने लगीं। चंपूजी का जीवन के हर क्षेत्र में ज्ञान हम पर उनका प्रभाव डालने के लिए काफी था।
कभी-कभी चंपूजी ट्रेन से किसी दूसरे शहर जाते तो लौटकर बताते कि किस चतुराई से उन्होने टी॰सी॰ को चकमा देकर टिकट के पैसे बचाये। वे हमें टिकट ना लेने के फायदों के बारे में विस्तार से समझाते कि टिकट के पैसों को बचाकर कैसे हम उनसे सिनेमा का एक शो देख सकते हैं और साथ ही वे देश की भलाई भी करते नजर आते- कि जब सरकार जनता की भलाई चाहती है और इसीलिए वह हमारे लिए ट्रेन बस आदि चलवाती है तो क्यों ना हम टिकट के पैसे बचाकर खुद ही अपनी भलाई कर लें और सरकार का लक्ष्य भी पूरा हो जाए। उनके ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण तर्कों को सुनकर हम भी नतमस्तक हो जाते।
चंपूजी अखबार पढने के बड़े शौकीन थे। एक दिन अखबार में भ्रष्टाचार विरोधी लेख पढकर बोले कि वे भ्रष्टाचार के विरोधियों से बिलकुल भी सहमत नहीं हैं। उन्होने समझाया कि भ्रष्टाचार तो उल्टा देश की तरक्की में योगदान दे रहा है- एक तो रिश्वत देने वालों के बडे बडे काम चुटकियों में हो जाते हैं दूसरा रिश्वत लेने व भ्रष्टाचार करने वालों के घरों में समृद्धि आती है और जो लोग भ्रष्टाचार नहीं करते वे भी यदि इसमें बढ चढकर हिस्सा लें तो सभी लोग समृद्ध हो जायेंगे और आखिर में देश भी समृद्ध हो जायेगा। हम बगलें झाकने लगे, अरे भई जब चंपूजी ने देश की समृद्धि का इतना सस्ता व सरल फार्मूला बता दिया तो हमने चुप रहना ही बेहतर समझा।
हमारे चंपूजी जरा आलसी किस्म के इंसान थे। तरक्की, उन्नति व मेहनत जैसे शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं थे सो उनके अनुसार किसी को भी तरक्की के लिये प्रयास करने की जरूरत नहीं है, यह तो एक स्वतः प्रक्रिया है जो बिना किसी प्रयास के स्वयं ही चलती रहती है इंसान बेकार में ही अपने हाथ पैर चलाता है। चंपूजी के दर्शन के अनुसार देश में जो कुछ हो रहा है वो अपने आप हो रहा है, जबकि कुछ लोग हल्ला मचाते हैं कि आर्थिक सुधारों और सरकारी प्रयासों के कारण देश में तरक्की हो रही है। उन दिनों हमारे वाजपेयीजी देश में सड़कें बनवा रहे थे परंतु चंपूजी इस बात से सख्त नाराज थे कि कुछ लोग उनकी इस काम के लिए बेवजह तारीफ किये जा रहे हैं। उनका कहना था कि भई इसमें सरकार का क्या रोल है ये सड़कें तो समय के साथ बननी ही थीं और बन भी रही हैं। सुनकर हमें भी लगा कि जब सड़कें अपने आप बन रही हैं तो हमारे वाजपेयीजी व राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण क्यों व्यर्थ अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं।
चंपूजी जातिवादी राजनीति के पक्के समर्थक थे। उन दिनों हमारे प्रदेश में विधानसभा चुनाव थे और जिले की दो सीटों से उनकी जाति से संबंधित उम्मीदवार भी मैदान में थे तो चंपूजी भी अपनी जाति के उम्मीदवारों के समर्थन की खातिर मोहल्ले के लोगों को समझाते हुए दिखे कि किस तरह उनके दोनों उम्मीदवारों का जीतना तय है और प्रदेश में उनकी जातिविशेष से संबंधित पार्टी की सरकार बनने वाली है परंतु नतीजे वाले दिन जब हम उनसे मिले तो वे बड़े आहत दिखे। उनके एक उम्मीदवार तो जमानत ही गंवा चुके थे दूसरे बमुश्किल बचा पाए। चंपूजी बोले कि हमारे भारत देश की जो पहचान है (जातिव्यवस्था) उसे ही हमारे वोटरों द्वारा भुलाया जा रहा है, चंद वोटर जागरूक होने के नाम पर इस देश का कबाड़ा करने में जुटे हैं। उन्होने आगे जोड़ा कि सदियों से हमारे पूर्वजों द्वारा जातिव्यवस्था को सहेज कर रखा गया और वर्तमान में यह पुनीत कार्य हमारे राजनेता कर रहे हैं तो चंद पढे-लिखे लोग इस पर हल्ला क्यों मचा रहे हैं। उनकी इन बुद्धिमत्तापूर्ण बातों को सुनकर हमारा मन वाह वाह कर उठा।
कभी-कभी चंपूजी ट्रेन से किसी दूसरे शहर जाते तो लौटकर बताते कि किस चतुराई से उन्होने टी॰सी॰ को चकमा देकर टिकट के पैसे बचाये। वे हमें टिकट ना लेने के फायदों के बारे में विस्तार से समझाते कि टिकट के पैसों को बचाकर कैसे हम उनसे सिनेमा का एक शो देख सकते हैं और साथ ही वे देश की भलाई भी करते नजर आते- कि जब सरकार जनता की भलाई चाहती है और इसीलिए वह हमारे लिए ट्रेन बस आदि चलवाती है तो क्यों ना हम टिकट के पैसे बचाकर खुद ही अपनी भलाई कर लें और सरकार का लक्ष्य भी पूरा हो जाए। उनके ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण तर्कों को सुनकर हम भी नतमस्तक हो जाते।
चंपूजी अखबार पढने के बड़े शौकीन थे। एक दिन अखबार में भ्रष्टाचार विरोधी लेख पढकर बोले कि वे भ्रष्टाचार के विरोधियों से बिलकुल भी सहमत नहीं हैं। उन्होने समझाया कि भ्रष्टाचार तो उल्टा देश की तरक्की में योगदान दे रहा है- एक तो रिश्वत देने वालों के बडे बडे काम चुटकियों में हो जाते हैं दूसरा रिश्वत लेने व भ्रष्टाचार करने वालों के घरों में समृद्धि आती है और जो लोग भ्रष्टाचार नहीं करते वे भी यदि इसमें बढ चढकर हिस्सा लें तो सभी लोग समृद्ध हो जायेंगे और आखिर में देश भी समृद्ध हो जायेगा। हम बगलें झाकने लगे, अरे भई जब चंपूजी ने देश की समृद्धि का इतना सस्ता व सरल फार्मूला बता दिया तो हमने चुप रहना ही बेहतर समझा।
हमारे चंपूजी जरा आलसी किस्म के इंसान थे। तरक्की, उन्नति व मेहनत जैसे शब्द उनकी डिक्शनरी में नहीं थे सो उनके अनुसार किसी को भी तरक्की के लिये प्रयास करने की जरूरत नहीं है, यह तो एक स्वतः प्रक्रिया है जो बिना किसी प्रयास के स्वयं ही चलती रहती है इंसान बेकार में ही अपने हाथ पैर चलाता है। चंपूजी के दर्शन के अनुसार देश में जो कुछ हो रहा है वो अपने आप हो रहा है, जबकि कुछ लोग हल्ला मचाते हैं कि आर्थिक सुधारों और सरकारी प्रयासों के कारण देश में तरक्की हो रही है। उन दिनों हमारे वाजपेयीजी देश में सड़कें बनवा रहे थे परंतु चंपूजी इस बात से सख्त नाराज थे कि कुछ लोग उनकी इस काम के लिए बेवजह तारीफ किये जा रहे हैं। उनका कहना था कि भई इसमें सरकार का क्या रोल है ये सड़कें तो समय के साथ बननी ही थीं और बन भी रही हैं। सुनकर हमें भी लगा कि जब सड़कें अपने आप बन रही हैं तो हमारे वाजपेयीजी व राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण क्यों व्यर्थ अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं।
चंपूजी जातिवादी राजनीति के पक्के समर्थक थे। उन दिनों हमारे प्रदेश में विधानसभा चुनाव थे और जिले की दो सीटों से उनकी जाति से संबंधित उम्मीदवार भी मैदान में थे तो चंपूजी भी अपनी जाति के उम्मीदवारों के समर्थन की खातिर मोहल्ले के लोगों को समझाते हुए दिखे कि किस तरह उनके दोनों उम्मीदवारों का जीतना तय है और प्रदेश में उनकी जातिविशेष से संबंधित पार्टी की सरकार बनने वाली है परंतु नतीजे वाले दिन जब हम उनसे मिले तो वे बड़े आहत दिखे। उनके एक उम्मीदवार तो जमानत ही गंवा चुके थे दूसरे बमुश्किल बचा पाए। चंपूजी बोले कि हमारे भारत देश की जो पहचान है (जातिव्यवस्था) उसे ही हमारे वोटरों द्वारा भुलाया जा रहा है, चंद वोटर जागरूक होने के नाम पर इस देश का कबाड़ा करने में जुटे हैं। उन्होने आगे जोड़ा कि सदियों से हमारे पूर्वजों द्वारा जातिव्यवस्था को सहेज कर रखा गया और वर्तमान में यह पुनीत कार्य हमारे राजनेता कर रहे हैं तो चंद पढे-लिखे लोग इस पर हल्ला क्यों मचा रहे हैं। उनकी इन बुद्धिमत्तापूर्ण बातों को सुनकर हमारा मन वाह वाह कर उठा।
परंतु मित्रों हमें खेद के साथ ये बताना पड़ रहा है कि श्रीमान चंपूजी के परिवार के किसी दूसरे शहर में शिफ्ट हो जाने के कारण वे हमसे दूर जा चुके हैं परंतु उनका दर्शन आज भी हमें नयी राह दिखाता है।
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