चंपूजी एक बार हफ्ते भर दिखाई न दिये, एक दिन बाजार जाते हुए रास्ते में टकरा गये। चेहरा कुछ उतरा हुआ था, हमने जानना चाहा तो बोले- "अरे भाई क्या बताऊं एक हफ्ते से हर रोज मोहब्बतें फिल्म का शो देख रहा हूं। बड़ी अच्छी फिल्म है, मुझे तो मुहब्बत हो गयी है।" हमने जानना चाहा कौन है वह खुशनसीब लड़की तो वे बोले- "लड़की-वड़की का कोई चक्कर नहीं है हमें तो बस मुहब्बत हो गयी है।" उनकी ऐसी गूढ बातें सुनकर हमारे माथे पर पसीना आ गया तो हमने सोचा कि इस मुहब्बत का राज फिल्म को देखकर ही पता किया जाय। हमने चंपूजी से हमें भी अगले दिन शो में ले चलने की गुजारिश की तो वे बोले- "अरे भाई तुम इन पचड़ों से दूर ही रहो नहीं तो तुमको भी मुहब्बत हो जायेगी।" अब चूँकि हमने सुन रखा था कि मुहब्बत के लिए एक महबूबा भी होनी चाहिये सो हम चंपूजी की इस मुहब्बत के बारे में जानने के लिये बेताब हो उठे। बमुश्किल चंपूजी हमें शो में ले जाने के लिये तैयार हो गये पर साथ ही चेतावनी भी दी कि अगर मुहब्बत हो जाये तो हमसे शिकायत ना करना। हम मान गये। अगले दिन चंपूजी हमें जिस थियेटर में ले गये वहां का नजारा आम थियेटरों से जरा अलग था। एक मंजिला मकान को थियेटर का रूप दिया गया था। अब चूंकि मकान एक मंजिला था तो थियेटर में बालकनी होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मकान के एक कमरे को थियेटर हॉल का रूप दिया गया था, हॉल में एक छोटा सा पर्दा था और नयी फिल्मों की पायरेटेड सीडी लाकर फिल्म दिखाई जाती थी। दर्शकों के बैठने के लिए हॉल में टूटी-फूटी कुर्सियां थीं साथ ही एक पंखा भी लगा था जो शायद दमे का शिकार होने के कारण हांफ रहा था। फिल्म नयी थी टिकट भी पाँच रूपये था इसलिए शो हाउसफुल था। हॉल का दरवाजा खुलते ही दर्शक इस तरह टूटे जैसे कभी फिल्म न देखी हो। बहरहाल जैसे-तैसे थियेटर वाले ने फिल्म शुरू की। गर्मी के मारे हम बेहाल थे, ऊपर से हॉल में बीडी-सिगरेट पीने वालों की संख्या कुछ ज्यादा ही थी। हम धुंए व गर्मी से बमुश्किल सांस ले पा रहे थे, वहीं चंपूजी फिल्म के हर दृश्य पर वाह-वाह कर रहे थे। सो हमने भी इधर-उधर से ध्यान हटाकर फिल्म पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की। हमें फिल्म में शाहरूख खान स्वयं अध्यापक होते हुए अपने कॉलेज के छात्रों को अनुशासन तोड़ने की शिक्षा देते नजर आये। हमने फिल्म का सार समझने की कोशिश की तो हमारी अल्पबुद्धि ने निष्कर्ष निकाला कि फिल्म में लड़की पटाना छात्रों का पुनीत कर्तव्य दिखाया गया है और अनुशासन में रहना पाप है। खैर जैसे-तैसे शो खत्म हुआ तो हमने बाहर आकर राहत की सांस ली, जो कि हम पिछले तीन घंटे से नहीं ले पा रहे थे। शो खत्म होने पर चंपूजी के चेहरे पर ऐसे भाव थे मानो स्वयं एश्वर्या राय ने पर्दे से बाहर निकलकर इन्हे चुंबन दिया हो। हमने चंपूजी से पूछा कि फिल्म में शाहरूख खान द्वारा जो संदेश दिया गया है क्या आप उसे सही मानते हैं तो वे उबल पड़े- "अरे तभी तो मैं आप जैसे लोगों को अपने साथ शो में नहीं लाता। खामख्वाह प्रश्न पूछने लग जाते हैं छोड़िये आप जैसे लोगों को तो कभी मुहब्बत हो ही नहीं सकती।"परंतु इतनी जद्दोजहद के बाद भी हम चंपूजी की मोहब्बत का अर्थ नहीं समझ पाये अलबत्ता हमें उस थियेटर और फिल्म से जरूर नफरत हो गयी।
1 comment:
क्या बोर कर रहे हो भाई..........
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