Saturday, December 02, 2006

स्वर्ग का टिकट

हाल ही में मेरे एक परिचित स्वर्गीय हो गये। ऐसा उनके शुभचिंतकों और रिश्तेदारों का कहना है। मैं थोड़ा असमंजस में हूँ। मेरे पास अभी तक उनका कोई ई-मेल नहीं पहुँचा है कि मैं सकुशल स्वर्ग पहुँच गया हूँ। ये भी हो सकता है कि स्वर्ग में उन्हें कोई सायबर कैफ़े न मिला हो जिससे वे मुझे गूगल चैट द्वारा बता सकें कि भैये मैं यहाँ स्वर्ग के सायबर कैफ़े में मजे से पॉर्न साइट्स देख रहा हूँ। इसलिए अभी मैं उन्हें केवल मरा हुआ ही मानने को विवश हूँ। नर्क जाने का सवाल इसलिए नहीं पैदा होता क्योंकि यहाँ उनके परिजन उन्हें स्वर्ग में पहुँचाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं।
बहुत बढ़िया खुशबू आ रही है। तरह-तरह के पकवान बने हैं। लोग चटखारे ले-लेकर खा रहे हैं।
उनके बीच बातचीत कुछ यों हो रही है -

"वाह देखिए फ़लां स्वर्गीय के लड़के कितने सपूत हैं।"
"क्या बढ़िया तेरहवीं कराई है।"
"सब कुछ देशी घी में।"
"पिछली बार उस हरकिशन की तेरहवीं में गये थे। वनस्पति खाकर पेट खराब हो गया। जाने किस क्वालिटी का था।"
"जिसके लड़के ऐसे कपूत हों उसको ऊपर जाकर भी क्या शांति मिलेगी। यार खाना तो कम से कम देशी घी में करवा देते।"
"यहाँ देखो क्या बढ़िया निपनिया दूध में खीर बनवाई है और मालपुए कितने नरम।"
"दही-बड़ेवाला कहाँ गया?"
"कैसे सपूत लड़के पैदा किये। महान आत्मा थे। भगवान स्वर्ग में उनकी आत्मा को शांति दे।"

जो लोग मर जाते हैं उनका मरण दिन पुण्यतिथि कहलाने लगता है। पर सभी का मरण दिन पुण्यतिथि हो ऐसा भी नहीं। पुण्यतिथि केवल उन्हीं लोगों की होती है जिनके लड़के हर साल अखबार में बढ़िया विज्ञापन छपवाते हैं। साथ में जलती हुई अगरबत्तियाँ भी छपी रहती हैं पर पता नहीं क्यों उनकी खुशबू मेरी नाक तक नहीं पहुँचती। शायद ऊँची नाक वाले लोगों की नाक में पहुँचती हो, पर मेरी नाक जरा छोटी है। कुछ विशेष स्वर्गीय लोगों की पुण्यतिथि तो अखबार के मुखपृष्ठ पर रंगीन फ़ोटो और अगरबत्तियाँ लगाकर मनाई जाती है। विज्ञापन की रंगीनियत को देखकर समझ में आ जाता है कि मरने वाला स्वर्ग में कितने रंगीन दिन गुजार रहा होगा।
मुझे लगता है स्वर्ग एक अय्याशी का अड्डा है। सुना है वहाँ अप्सराएँ होती है जो कैबरे डांस करती हैं। सोमरस का भी इंतजाम रहता ही होगा। कुछ लोग उमर अधिक हो जाने पर भी अपनी आदतें नहीं छोड़ते। रात को बार में जाते हैं। लड़कियों का नाच देखते हैं, मौका मिल जाए तो छेड़ भी देते हैं। उनके लड़के कहते हैं कि अब तो स्वर्गीय हो जाईये। अब हमारा टाइम है हमको भी कर लेने दीजिए। आपके सामने ये सब करने में थोड़ी शर्म आती है। आपके लिए वहाँ भी सब इंतजाम है। बाकी रहा टिकट का बंदोबस्त तो वो हम कर ही देंगे।

एक बार मैं एक शवयात्रा में गया। वहाँ क्या रीति-रिवाज होते हैं मुझे पता नहीं था। जब चिता बन गई और लाश को उस पर लिटा दिया गया तो मृत व्यक्ति के पुत्र ने उनके सर में एक डंडा मारा। मैंने चौंककर बगल में खड़े सज्जन से इसका कारण पूछा। पता लगा कि मरने वाला अगले जन्म में अपनी पिछले जन्म की बातें याद रखता है। उसी को भुलाने के लिए डंडा मारा जाता है। मैं समझ गया। अगले जन्म में किसी और के यहाँ जन्मने पर मरने वाला अपने घरवालों की कलई न खोल दे कि मेरा लड़का अपनी तनख्वाह से दस गुना ज्यादा घर में लाता है। मेरी लड़की के फ़लां लड़के से संबंध थे, बड़ी मुश्किल से गर्भपात की बात दबाई। या फ़िर ऐसा भी हो सकता है कि मरने वाला किसी भिखारी के यहाँ जन्म ले और सब बात उगल दे कि मैं पिछले जन्म में पंडित बकवासानन्द शास्त्री था और भागवत कहता था। खूब पैसा बनाया। और बाद में लड़कों की थू-थू हो कि छि: ऐसे महान पंडितजी ने अगले जन्म में भिखारी के यहाँ जन्म लिया। जरूर तेरहवीं में शुद्ध घी की बजाय वनस्पति खिलाया होगा। पिंडदान नहीं किया होगा या गंगाघाट पे पंडे को अच्छी दक्षिणा नहीं दी होगी। डंडा मारने का रहस्य पूरी तरह मेरी समझ में आ गया। पर एक रहस्य यह पैदा हो गया कि जब उनके परिजनों ने उन्हें सीधा स्वर्ग के लिए रवाना किया है तो वे अगला जन्म क्यों लेंगे? हो सकता है यमदूत को उन्होंने स्वर्ग तक ले जाने के टिकट के कम पैसे दिये हों। नर्क तो हर कोई फ़्री में पहुँच ही जाता है। पर उन्होंने स्वर्ग के टिकट के आधे पैसे दे दिये होंगे इसलिए यमदूत उन्हें स्वर्ग या नर्क ले जाने की बजाय आधे रास्ते में ही उतार गया होगा।

ये जो ब्राह्मण लोग होते हैं वे स्वर्ग के रियल एस्टेट डीलर के कमीशन एजेंट होते हैं। जितनी तगड़ी दक्षिणा स्वर्ग में उतना ही बढ़िया स्थान। कमीशन लेने के बाद ब्राह्मण सीधे रियल एस्टेट डीलर को फ़ोन कर देते हैं कि साहब पेमेंट हो गया आप आकर इंस्पेक्शन कर लो कि फ़लां की किस प्रकार के मकान में रहने की हैसियत है। साहब आकर देखेते हैं कि कहीं भतौर में से वनस्पति घी की खुशबू तो नहीं आ रही, सब्जी पनीर वाली है या बिना पनीर की, खीर में काजू-किशमिश बराबर पड़े हैं न, मिठाई में केवड़े की खुशबू है या नहीं, दान दी गई बछिया देशी है या जरसी। सब देख-दाखकर डीलर साहब स्वर्ग में मकान एलॉट करते हैं।
कुछ लोग अपने स्वर्गीय परिजन की तेरहवीं में धुंआबंद भोज (जिसमें संबंधित गांव या इलाके के किसी घर में चूल्हा नहीं जलता है।) का आयोजन करते हैं जिससे मृतव्यक्ति के लिए स्वर्ग में एयरकंडीशंड कोठी एलॉट हो जाती है। हालांकि अब के जमाने में ऐसा चलन नहीं रहा तो लोग कमीशन एजेंटों को ही मोटी रकम थमा देते हैं और वो फ़ोन पर कहते हैं- "साहब इंस्पेक्शन के लिए आने की जरूरत नहीं है। हमने देख लिया है आदमी ऊँची हैसियत का है। आप बस एक बढ़िया कोठी एलॉट कीजिए हम पैसे भिजवाते हैं।"

शवयात्राओं और तेरहवियों के अब तक के अनुभव के बाद मेरा विचार है कि एक डाँसबार खोला जाए। जिसमें रॉयल स्टैग और किंगफ़िशर का आनंद लेते हुए सुंदरियों के नृत्य का आनंद लिया जाए। चूंकि मैं अभी इस माहौल का अभ्यस्त नहीं हूँ और मुझे पता है कि मेरे मरने पर मुझे जबर्दस्ती स्वर्ग ही भेजा जायेगा (चाहता तो मैं भी यही हूँ।) इसलिए क्यों न अभी से इस माहौल में रहने की आदत डाल ली जाए। और लगे हाथ डांसबार की कमाई से कमीशन एजेंटों को भी पहले से ही बढ़िया सा पेमेंट कर दिया जाए।
वैसे थोड़ा सा परमार्थ करने का भी इच्छुक हूँ। मेरी योजना है कि अपने डांसबार में समय-समय पर ट्रेनिंग कैंप लगाऊँ। जिससे जो लोग पूरे दिन भगवान को मस्का लगाकर स्वर्ग जाने का सपना देखते हैं, पर इस माहौल में रहने के अभ्यस्त नहीं हैं उनका भी कुछ भला हो जाए। आजकल सुना है सरकारें डांसबारों में नाचने वाली सुंदरियों को भगाने पर तुली हैं। मैं सोच रहा हूँ कि क्यों न बेचारी बेरोजगार बारबालाओं को स्वर्ग पहुँचाने वाला ट्रेवल एजेंट बन जाऊँ आखिर स्वर्ग के मेरे भावी बंधुओं के प्रति भी तो मेरा कुछ कर्तव्य बनता है। जो बेचारे युगों से उन्हीं पुरानी अप्सराओं का नाच देख-देखकर बोर हो रहे हैं। उन्हें भी बढ़िया आइटम नंबर देखने को मिलेगा। ये भी संभव है कि जब मैं वहाँ जाऊँ तो इंद्र मेरी भेजी सुंदरियों के साथ 'कजरारे-कजरारे' करने में व्यस्त हो और मैं झट से उसकी कुर्सी पर जा बैठूँ।

12 comments:

गिरिराज जोशी said...

ये जो ब्राह्मण लोग होते हैं वे स्वर्ग के रियल एस्टेट डीलर के कमीशन एजेंट होते हैं। जितनी तगड़ी दक्षिणा स्वर्ग में उतना ही बढ़िया स्थान।

भुवनेशजी क्या गज़ब ढा रहे हो भाई,

यह राज की बातेँ उजागर करके क्या अपनो को पिटवाने का इरादा है ज़नाब? :)

Anonymous said...

बहुत अच्छा व्यंग्य किया है.
आदी से अंत तक मजेदार है.
जरूर स्वर्ग में जाने वाले हैं, प्रेक्टीस शुरू कर सकते हैं.

Pratik Pandey said...

बहुत खूब... ज़बरदस्त चुटीला व्यंग्य है। मेरे हिसाब से यह आपका सबसे बेहतरीन व्यंग्य है। लेकिन मुझसे विश्लेषण करने को मत कहिएगा। आजतक मैं अपने लिखे का विश्लेषण नहीं कर पाया, तो आपके लिखे का क्या करूंगा। :-)

Anonymous said...

हमेशा की भाँति बहुत बढ़िया लेख, पढ़ पर बड़ी हँसी आई।
( आगे की टिप्पणी कुछ घृणास्पद हो सकती है जिसमें साहस हो पढ़े)
एक अन्तिम क्रिया के जानकार के तौर पर मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूँ कि अन्तिम क्रिया के दौरान जो डण्डा सिर में मारा जाता है उसकी वजह जिस किसी सज्जन ने आपको बताई है वह गलत बताई है। सही वजह यह है कि अन्तिम क्रिया के अन्तिम चरण में खोपड़ी का भाग जलने से रह जाता है क्यों कि खोपड़ी का भाग अत्यन्त सख्त होता है और स्त्रियों का पेट से ले कर घुटने का भाग, यह बड़ी देर से जलते हैं।
खोपड़ी को जलाने के फ़ोड़ना जरूरी होता है और इसी वजह से डंडा मारा जाता है जिससे वह फ़ट जाती है और दिमाग सहित सारे अवयव बाहर निकल जाते हैं और वह पदार्थ आग में घी का काम करते हैं जिससे खोपड़ी का भाग आसानी से जल जाता है।
आप विश्वास करेंगे मैने यह क्रियाएं अपने हाथों से करवाई है। कई लोग अन्तिम क्रियाएं करवाने में डरते हैं कई घृणा करते हैं पर मुझे कभी भय नहीं लगा।

Udan Tashtari said...

ऐसे ही बेहतरीन लिखते रहे तो इन्द्र की कुर्सी तो आपके लिए तय ही जानो। :)

Manish Kumar said...

बढ़िया व्यंग्य लेखन !

अनूप शुक्ल said...

मुझे बड़ी खुशी हो रही है कि दिन पर दिन आपके लेखन बेहतरीन होता जा रहा है! बहुत अच्छा लिखा!बधाई!

Raag said...

अच्छा व्यंग्य। भुवनेश साहब आपने सामाजिक रीतिरिवाज़ो ं के ढोंग को अच्छे से प्रस्तुत किया है।
सागर साहब की कपाल क्रिया के बारे में जानकारी ज़रूरी और अच्छी लगी।

Anonymous said...

बहुत ही बढ़िया लिखा भुवनेश भाई :)
इसी तरह लिखते रहें...

Anonymous said...

बहुत अच्छा लेख लिखा है।

अनुराग श्रीवास्तव said...

पढ कर स्वर्ग तुल्य आनंद की प्राप्ति हुयी ॰॰॰॰
॰॰॰॰ ओय, यह मेरे सिर पर डंडा किसने मारा।
:)

Anonymous said...

अच्‍छे से भी अच्‍छा यानी सर्वश्रेष्‍ठ