Saturday, October 28, 2006

ये बेचारे क्रिकेट के मारे

वे क्रिकेट के बचपन से ही शौकीन थे या यूँ कहें दीवाने थे। वे जब भी दुकान आते-जाते समय गली में बच्चों को क्रिकेट खेलते देखते तो वहीं शुरू हो जाते। अंपायर नाम के जीव से इन्हें बहुत चिढ़ होती थी जो इन्हें अक्सर आउट ही करार देता था और ये उस पर भुनभुनाते हुए दुकान को रुख्सत होते। सुना तो उनके बारे में ये भी जाता है कि जब इनकी बरात गयी तो इन्होने जनवासे में भी क्रिकेट खेलना शुरू कर दिया। बेचारे साले लोग क्या करते उन्हें अपने नये जीजा की ख्वाहिश तो पूरी करनी ही थी। खैर जैसे-तैसे इनकी शादी भी हो ही गयी।

लोग-बाग अव्वल तो इनके घर जाते ही नहीं थे पर वक्त-जरूरत जब भी जाते ये अपना सारा क्रिकेट ज्ञान उस पर उँडे़ल देते। आने वाला बेचारा अपनी जान बचाकर भागता। सचिन ने कब, कहाँ, कितने शतक मारे इन्हें मुँह जबानी याद हैं। भारत ने विदेशी धरती पर कब और कितने मैच जीते ये भी वे आपको तुरंत बता देते।

सचिन को ये साक्षात ईश्वर का रूप मानते थे और जब भी सचिन का नाम लेते अंत में भगवान लगाना नहीं भूलते थे- 'सचिन भगवान' । सचिन के खिलाफ़ इन्हें एक शब्द भी सुनना गवारा नहीं। सचिन बेचारा जब अपनी बुरी फ़ॉर्म से गुजर रहा था, उस दौरान ये एक बार नाई की दुकान पर हजामत बनवाने गये। इन्होने अपनी आदतस्वरूप क्रिकेट-चर्चा छेड़ दी। नाई बेचारा इनके क्रिकेट प्रेम और सचिन प्रेम से परिचित नहीं था। उसने सचिन की खराब फ़ॉर्म के बारे में दो-चार बातें मुँह से निकाल दीं। उसका इतना कहना था कि ये अपनी कुर्सी से खडे़ हो गये और उस पर प्रसाद स्वरूप गलियों की बौछार कर दी, बेचारे के घर की महिलाओं को भी नहीं बख्शा। पूरे घटनाक्रम को देखकर दुकान पर थोडी़ भीड़ जमा हो गयी और इन्हें समझाने का प्रयास किया। इस पर ये और भड़क गये और पूरी भीड़ को कोसते हुए वहाँ से पतली गली पकडी़।

फ़िल्मों के ये शौकीन नहीं थे पर एक बार किसी ने इनसे कह दिया कि लगान फ़िल्म में क्रिकेट मैच भी होता है। उसके बाद तो इनकी दुकान पर अक्सर ताला ही मिलता और ये थियेटर में।

अखबार इनके यहाँ नियमित रूप से आता था। वे सबसे पहले खेल-पृष्ठ को खोलते और मिनटों में क्रिकेट की पूरी खबरों को चाट डालते। उसके बाद यदि कभी इनका मूड बन जाता तो इधर-उधर की खबरों पर भी नजरें इनायत करते वर्ना पूरा अखबार यूँ ही पडा़ रहता। जो आदमी क्रिकेट पर चर्चा नहीं कर सकता और जिसे इसमें दिलचस्पी नहीं उसे ये पूरा निरक्षर मानते। इनके अनुसार आदमी के ज्ञान की कसौटी ये थी कि वह क्रिकेट के बारे में कितनी जानकारी रखता है और उस पर कितनी बहस कर सकता है। राजनैतिक और सामाजिक विषयों पर चर्चा करना ये मूर्खों का शगल मानते थे। ये खबरिया चैनलों के बडे़ रसिया थे क्योंकि उन पर अक्सर दिनभर ही क्रिकेट की कोई ना कोई खबर आती रहती है जिसे देखकर ये अपना सामान्य ज्ञान बढा़ते रहते थे।

एक बार इनका किसी शादी समारोह में जाना हुआ। शादी किसी प्रोफ़ेसर की लड़की की थी। वहाँ इनके बगल से बैठे हुए लोगों में राजनीति पर चर्चा छिड़ गयी। लोग राजनीति में नैतिकता और इसमें अच्छे लोगों को आना चाहिए जैसी कुछ बातें कर रहे थे। इतने में एक महाशय को राष्ट्रपति कलाम साहब का खयाल आया और उसने उनके सादा जीवन, उच्च विचारों और देश के लिए उनके योगदान की तारीफ़ कर दी। अन्य लोगों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी। जब ऐसी बातें सुन-सुन कर इनके कान का दर्द बहुत बढ़ गया तो ये उबल पड़े- " किसने कहा आपसे कि कलाम ने देश का सबसे ज्यादा भला किया है, सचिन को तो लोग ऐसे भुला देते हैं जैसे उसने कुछ किया ही ना हो। जितना योगदान सचिन ने इतनी छोटी सी उम्र में देश के लिए दिया है उतना कोई माई का लाल सात जन्मों में भी नहीं दे सकता!"
किसी ने उनसे पूछ लिया कि- "बताईये सचिन का देश के विकास में क्या योगदान है उसने तो सिर्फ़ अपना ही भला किया है पैसे कमाकर।"
ये भड़क गये बोले- " अच्छा आपको उसका योगदान ही नजर नहीं आ रहा उसने कितने मैच जिताये सब भूल गये, आजकल के पढ़े लिखे लोग भी ये बात नहीं समझते। लानत है। "
ऐसा कहकर वे वहाँ से फ़ूट लिये पर पीछे वे लोग सर ही धुनते रहे कि आखिर सचिन का देश के विकास में योगदान कलाम से ज्यादा कैसे है।

जिस दिन टी.वी. पर मैच आता उस दिन इनका टोटल हॉलीडे होता। हालाँकि इनकी दुकान पर भी टी.वी. लगा था पर उसका उपयोग ये क्रिकेट की खबरें सुनने के लिए ही करते थे। मैच के दौरान ग्राहक डिस्टर्ब ना करें इसलिए ये मैच घर पर ही बैठकर देखते थे। मैच में यदि टीम-इंडिया जीतती तो ये खाना सपरिवार रेस्टोरेंट में ही खाने जाते थे। वैसे ज्यादातर इन्हें (मतलब टीम-इंडिया को) हार का ही मुँह देखना पड़ता। उस दिन खाना इनके गले से बमुश्किल नीचे उतरता और रात भर करवटें बदलते।

वर्ल्ड-कप शुरू हो चुका था और इन्होंने दुकान पर जाना लगभग बंद सा कर दिया था। उसी समय इनके शहर की नगरपालिका को अतिक्रमण हटाने की सूझी। नगर-पालिका ने घोषणा करवाई कि जो भी दुकानें सरकारी जमीन पर बनी हैं उन्हें तोडा़ जायेगा। इनकी दुकान पर भी नोटिस चस्पा हो गया। अब चूँकि इनके कान में क्रिकेट-कमेंट्री को छोड़ कुछ भी प्रवेश नहीं कर पाता था इसलिए ये बेचारे उस खबर से अनजान ही रहे। इनके पड़ौसी दुकानदारों ने तो अपनी दुकानों का सामान खाली कर लिया था और दूसरी जगह धंधा जमाने की व्यवस्था कर ली। एक दिन इंडिया पाकिस्तान का मैच था और उसी दिन नगरपालिका का बुल्डोजर इनकी दुकान की तरफ़ आ रहा था। ये यहाँ चौवे-छक्के में व्यस्त थे और वहाँ भी धूम-धड़ाम हो रही थी। हालाँकि इनके एक साथी दुकानदार ने मैच के दौरान इन्हें फ़ोन भी किया कि बुल्डोजर आ गया है पर इन्होंने समझा कि दुकान के बगल वाले नाले की सफ़ाई हो रही है तो इन्होने फ़ोन काट दिया वैसे भी उस समय इनका प्रिय सचिन सॉरी 'सचिन भगवान' खेल रहे थे। पर बेचारी टीम-इंडिया हार गई। इन्होने सिर धुन लिया। दो दिन बाद ये टहलते-टहालते दुकान पर पहुँचे तो पैर के नीचे से जमीन गायब। वहाँ बस मलबा ही बिखरा पड़ा था और सामान राहगीर बीनकर ले गये थे। अब क्या करें इन्हें समझ ना आया। कुछ दिन शक्ल पर बारह बजाये घर बैठे रहे इतने में टीम-इंडिया वर्ल्ड-कप से बाहर हो गयी। मानो इन पर आसमान गिरा। अगले दिन केबल वाला जब पैसे माँगने आया तो इन्हें नानी की भी नानी याद आ गयी। जैसे-तैसे पडौ़सी से उधार लेकर उसे टरकाया। अब तो आर्थिक संकट आ खड़ा हुआ पर दुनियाँ में भले लोग अभी खतम नहीं हुए। इनके एक रिश्तेदार ने, जो ठेकेदारी करते थे, अपने बनवाये हुए मार्केट में इन्हें एक दुकान बाद में पैसे चुकाने की बात कहकर दे दी और थोडी़ आर्थिक मदद भी कर दी।

अब वे रोज नियम से दुकान पर जाते हैं और टीम-इंडिया के हारने पर रात-भर करवटें नहीं बदलते। अखबार पूरा पढ़ते हैं और कभी-कभार सामाजिक और राजनैतिक विषयों पर होने वाली चर्चा में भी भाग लेते हैं। पर जब इनसे कोई क्रिकेट मैच देखने की बात करता है तो ये उस पर ऐसे भड़कते हैं मानो बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया हो।

Thursday, October 26, 2006

गई भैंस गड्ढे में

ये थी ब्रेकिंग न्य़ूज एक समाचार चैनल पर पिछले दिनों। एक भैंस को १५ फ़ुट गहरे गड्ढे में गिरने का ये इनाम मिला। आज जब रिमोट से यूँ ही खेल रहा था तो देखा एक समाचार चैनल पर किसी गाँव में एक आदमी दलदल में फ़ँसा हुआ है। ये है भारत में इक्कीसवीं सदी के खबरिया चैनलों की तस्वीर। वैसे इन चैनलों पर खबरों के स्तर को लेकर काफ़ी लंबे समय से बवाल मचा हुआ है। लगभग रोज ही लोग बहस करते हुए मिल जाते हैं कि "भला ये भी कोई खबर है" या "खबरिया चैनलों का स्तर तो गिरता ही जा रहा है" वगैरह-वगैरह। पर मैं ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों से पूछना चाहता हूँ कि जब मीडिया फ़ालतू की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खबरों के बजाय आम आदमी से जुङने की कोशिश कर रहा है तो इन्हें कोफ़्त क्यों होती है।

बहरहाल पेश है आगे आने वाले समय में खबरिया चैनलों पर प्रसारित की जाने वाली खबरों की बानगी -

शर्माजी का कुत्ता दो दिनों से बीमार है, हालत ज्यादा बिगङ्ने पर कल रात उसे मुंबई के ब्रीच कैन्डी अस्पताल ले जाया गया। काफ़ी समय वेंटीलेटर पर रखे जाने के बावजूद आज सुबह उसने दम तोङ दिया। कुत्ते की पार्थिव देह को वापस शर्माजी के पास लाया जा रहा है, जहाँ पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसकी अन्त्येष्टि की जायेगी।

गोरेलालजी की गाय ने कल से दूध नहीं दिया है। क्षेत्रीय ग्राहकों में इस बात को लेकर असंतोष व्याप्त है। उन्होनें तुरंत जिला प्रशाषन से हस्तक्षेप कर स्थिति को बहाल करने के लिए ज्ञापन दिया है। क्षेत्रीय विधायक ने मामले को विधानसभा में उठाने का भी आश्वासन दिया है।

बैंक अधिकारी उपाध्यायजी गाङी पंचर होने के कारण ऑफ़िस नहीं जा सके। उनके ऑफ़िस ना पहुँचने के कारण बैंक आये लोगों को असुविधा का सामना करना पङा। आज बैंक में हुई मीटिंग में निर्णय लिया गया कि बैंक अधिकारी और कर्मचारी टायर-ट्यूब निर्माता कंपनी पर घटिया क्वालिटी का टायर बेचने के लिए मुकद्दमा दायर करेंगे। बैंक की मुख्य शाखा ने भी इस प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है।

आज दोपहर दो सांडों की लङाई के कारण सङक पर यातायात बीस मिनट तक बाधित रहा। जब इसकी शिकायत सिटी मजिस्ट्रेट से की गई तो उन्होंने सांडों के लङने के लिए शहर में अलग से अखाङा खोलने का आश्वासन सङक पर चलने वालों को दिया। जिला प्रशासन अब सांडों से अनुरोध करेगा कि वे सङक को अखाङा बनाने की बजाय अखाङे में ही जाकर जोर-आजमाइश करें। सांड-समाज के मुखिया ने इसे अपने विशेषाधिकारों का हनन बताते हुए आंदोलन करने की चेतावनी दी है।

देश में पर्यावरण की स्थिति पर चिंता जताते हुए पर्यावरण मंत्री ने लोगों से अपील की है कि अधिक से अधिक संख्या में गमले खरीदकर उनमें पौधे रोपकर पर्यावरण को बचाने में मदद करें। साथ ही उन्होने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक गमला खरीदकर उसमें पौधा लगाये। मंत्रीजी की इस अपील से देश भर के पर्यावरण प्रेमियों में हर्ष की लहर दौङ गयी है और उन्होने भी लोगों से इस कार्य में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने और पर्यावरण को बचाने की अपील की है।

शहर में बिजली की किल्लत के कारण अचानक मोमबत्तियों की बिक्री बढ़ गयी है। मोमबत्तियों का पर्याप्त स्टॉक ना होने के कारण आज लोगों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर चक्काजाम कर दिया। अधिकारियों के इस आश्वासन के बाद कि मोमबत्तियों की कमी मिट्टी के दियों से पूरी की जायेगी, चक्काजाम खुला।


आज रामनगर में क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन होने से शहर की सभी शिक्षण संस्थायें और कार्यालय बंद हैं और लोग टकटकी लगाये टी.वी. के सामने बैठे हुए हैं। अभी मैच में दस ओवर और फ़ेंके जाने बाकी हैं, हमारे संवाददाता खबरीलाल वहाँ मौज़ूद हैं। आईये आपको सीधे ले चलते हैं रामनगर जहाँ मौजूद हैं हमारे संवाददाता खबरीलाल-

"हाँ खबरीलाल यदि आप मुझे सुन पा रहे हैं तो बताईये इस समय मैच की क्या स्थिति है"
"जी पेंदीलाल सबसे पहले आप को बता दूँ कि यहाँ तांडवपुरा की टीम के बॉलरों ने अपनी धुँआधार बॉलिंग से विरोधी टीम के दो खिलाङियों के सर फ़ोङ दिये हैं जिससे मैच अभी रुका हुआ है"
"खबरीलाल ये बताईये कि जिन खिलाङियों के सिर फ़ोङे गये हैं क्या उनके मरहमपट्टी की जा रही है"
"जी पेंदीलाल यहाँ मरहमपट्टी जारी है और आशा है कि मैच जल्द ही शुरू होगा"
"खबरीलाल ये बतईये कि जिन खिलाङियों की पट्टी की जा रही है क्या वे कराह रहे हैं"
"जी हाँ पेंदीलाल वे कराह जरूर रहे हैं पर साथ ही वे लगान फ़िल्म के खिलाङियों की तरह दोहरा रहे हैं- 'बार-बार हाँ बोल यार हाँ अपनी जीत हाँ उनकी हार हाँ' "
"तो वहाँ लगान फ़िल्म का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता है?"
"जी पेंदीलाल, साथ ही आपको बता दूँ कि आज सुबह से ही यहाँ बङी-बङी कंपनीज के सीईओ जमा हो रहे हैं कुछ ने तो लंच-टाइम में खिलाङियों से बात भी की"
"अच्छा खबरीलालजी आप वहाँ बने रहिए थोङी देर में हम फ़िर आपके पास पहुँचेंगे"
"जी पेंदीलाल शुक्रिया"

तो आप देख रहे थे कि आज हमारे देश में क्रिकेट किस स्तर तक पहुँच चुका है यहाँ अभी से कर्पोरेट-हाउसेस में खिलाङियों को अनुबंधित करने के लिए घमासान मचा हुआ है। हम आशा करते हैं कि ये खिलाङी भी एक दिन विज्ञापन जगत में आकर सचिन और धोनी की तरह करोङों कमायें और हमारे देश का नाम रोशन करें। अब बढ़ते हैं अगली खबर की तरफ़.......................!


तो आप बैठे-बैठे क्या सोच रहे हैं जल्दी से अपना पी.सी शट-डाउन कीजिए और अपने मोहल्ले और शहर की खबरों को भी टी.वी. पर देखने का जुगाङ बैठाईये और बिना कुछ किये मुफ़्त में सेलेब्रिटी बन जाईये।

Tuesday, October 24, 2006

गिद्ध-भोज संस्कृति

आजकल महानगरों से लेकर छोटे-छोटे गाँवों तक गिद्ध-भोज संस्कृति की हवा बह रही है। इधर काफी समय से सुना जा रहा है कि गिद्ध लुप्त होते जा रहे हैं और यहाँ मानव-समाज में उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनकी संस्कृति को आत्मसात किया जा रहा है। वैसे ये बहस का विषय हो सकता है कि इस संस्कृति के प्रवर्तक होने का श्रेय गिद्धों को दें या पश्चिम को। जहाँ तक मेरा मानना है इसका श्रेय पश्चिम को देना गिद्धों के साथ नाइंसाफ़ी होगी। गिद्ध-भोज जिसे अंग्रेजीभाषी buffet system भी कहते हैं आजकल फैशन का पर्याय बन चुका है। वो जमाने हवा हुए (या कहें बस हवा होने ही वाले हैं) जब किसी समारोह या उत्सव में लोग साथ बैठकर पंगत में भोजन किया करते थे। पर आजकल लोगों को ये तरीका आउटडेटेड लगने लगा है, हालांकि आज भी कुछेक आउटडेटेड टाइप लोग अपने यहाँ शादी-विवाह में इसी तरीके से मेहमानों को भोजन कराते हैं।

बहरहाल मैं बात कर रहा था गिद्ध-भोज संस्कृति की जिसमें आजकल एक नया चलन भी जुङ गया है। लोग पहले तो दावत में जाकर छककर गिद्ध-भोज करते हैं उसके बाद बारी आती है डीजे सिस्टम पर नृत्य की जो कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में कुछ चाँद और लगा देता है। भोजन का भोजन हो गया और साथ ही में इसे पचाने के लिए वर्कआउट भी। वैसे इस चलन को देखकर एक कहानी भी याद आ जाती है जो बचपन में पढ़ी थी, जिसमें गीदङ को भोजन करने के बाद गाना सूझता है। पर हम यहाँ उससे आगे बढ़ गये हैं गायन और उसके साथ-साथ नृत्य भी। गाने की जब बात चली है तो हमारे एक नामचीन गायक याद आ गये जो नाक से गाते हैं और जिनके बिना आजकल दावतों में नृत्य और गायन अधूरा है। वैसे ये भी अध्ययन का विषय है कि ये महाशय अपनी गायन शैली में किस प्राणी की नकल करते हैं। खैर अब मैं यहाँ और अधिक प्राणियों की संस्कृति और मानव-समाज पर उसके प्रभाव का विश्लेषण ना करते हुए गिद्ध-भोज पर ही ध्यान केंद्रित करूंगा।

मेरे मोहल्ले में एक महाशय का लंबा चौङा परिवार है सो सामाजिक संबंध भी बहुत दूर-दूर तक फैले हुए हैं। हर वर्ष इनके यहाँ किसी ना किसी की शादी होती ही रहती है। अब चूँकि शादी हो और उसमें गिद्ध-भोज ना हो तो भाई नाक ही कट जायेगी सो इनके यहाँ भी हर शादी पर गिद्ध-भोज का आयोजन होता है जिसमें अपार भीङ जुटती है। सङक को रोककर उसपे टेंट लगाया जाता है और उसमें घुसने का साहस वीर-योद्धा ही कर सकते हैं। वैसे भोजन के लिए तो यहाँ मुझे छोङकर सभी वीर योद्धा ही नज़र आते हैं। मैं अक्सर भीङ के छंटने का देर तक इंतजार करता हूं पर जब भीङ कम होने के बजाय बढ़ती ही जाती है तो मुझे भी मन पक्का करके उस रणभूमि में कूदने का साहस दिखाना ही पङता है और मैं अंदर प्रवेश कर जाता हूँ। अंदर चल रहे घमासान में सभी वीर-योद्धा अपनी-अपनी प्लेट में खाना डालने के लिए एङी-चोटी का जोर लगाते नजर आते हैं। धक्का-मुक्की में कभी किसी की शर्ट पर पनीर गिरता है किसी के पैन्ट पर गुलाब-जामुन। एक भाईसाहब तो बेचारे छोले की सब्जी से पूरा नहाकर लौटे थे। वैसे मैं अक्सर बिना खाये लौटता हूँ।

मेरे गाँव में एक सज्जन के लङके की शादी थी। लोगों ने सलाह दी कि खाना पंगत में ही रखो तो बेहतर है क्योंकि गाँव के लोगों को ये बफ़े-बुफ़े सुहाता नहीं। अब चूँकि सवाल नाक का था और शादी में शहर से भी कुछ मेहमान आने थे सो उन्होने गिद्ध-भोज का ही आयोजन रखा। गाँव के लोगों की खाने की क्षमता शहर के लोगों से अधिक ही होती है साथ ही हमारे यहाँ ग्रामीण इलाके में प्रचलन है कि जितना खायेंगे उससे ज्यादा घर ले जायेंगे। सो सभी लोग बफर(हमारे यहाँ ग्रामीण लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं) की बात सुनकर पूरी तैयारी से आये थे। यहाँ एक तरफ गाँव के लङकों में कम्पटीशन चल रहा था कि कौन कितने ज्यादा गुलाब-जामुन और बर्फ़ी खाता है दूसरी तरफ़ कुछ लोगों ने छककर खाने के बाद बाकी का अगले दिन के लिए घर ले चलने का प्रबंध कर लिया। शहरी गिद्ध बेचारे लेट-नाइट पहुंचते हैं उनके आने से पहले ही अधिकांश माल ग्रामीण गिद्धों ने सफ़ाचट कर दिया सो वे लगे वर के पिता को कोसने अधिकांश तो बिना कुछ खाये वर के पिता को पेटभर गालियाँ खिलाने के बाद लौटे। जो भी हो गाँव वालों ने(जिन्होने माल स्टॉक कर रखा था) अगले कुछ दिन भी गुलाब-जामुनों और बर्फ़ीयों की दावत उङायी।

मेरे एक रिश्तेदार हैं जो काफ़ी धनी भी हैं, पिछले वर्ष उनके पिता का स्वर्गवास (हर आदमी मरने के बाद स्वर्ग ही जाता है) हो गया। सो उन्होने तेरहवीं में हज़ारों लोगों को दावत दे डाली। दावत की खास बात ये थी कि इसमें आगंतुकों के लिए गिद्ध-भोज की बहुत ही अच्छी व्यवस्था की गयी थी। कई प्रकार के व्यंजन बने थे। अब संख्या गिनने बैठें तो फ़ाइव-स्टार होटल का मेनू छोटा पङ जाये। मेहमानों ने भोजन के बाद मेजबान की तारीफ़ों के जो पुल बाँधना शुरू किये तो वे फ़ूल के कुप्पा हो गये और उन्होने हर मेहमान को एक-एक मिठाई का डिब्बा भेंट किया (बतौर इनाम)। उनके पिताजी ऊपर बैठे ये सब देखकर मन-मसोसकर रह गये होंगे या हो सकता है वहाँ उनके आने की खुशी में इससे भी बङा गिद्ध-भोज हो।

वैसे गिद्ध-भोज के भी अपने फ़ायदे हैं। बेचारे जवान लङकों को वॉलन्टियर्स की तरह बार-बार भोजन परोसने जैसा पकाऊ काम नहीं करना पङता और वे हर आने वाली लङकी को आराम से प्रत्येक एंगल से निहार सकते हैं। कई युवा जोङे तो एक-दूसरे को अपने हाथ से खाना खिलाकर अपने भावी जीवन की रिहर्सल कर रहे होते हैं( वैसे शादी के बाद ऐसा कुछ नहीं होता)। कुछ अंकल टाइप लोग जिनका टाइम निकल चुका होता है, अपनी पत्‍नी की मित्र मंडली में घुसकर कुछ देर के लिये ही सही अपना टाइम-पास कर लेते हैं। कुछ बुद्धिजीवी प्लेट से खाना साफ़ करते-करते देश से भ्रष्टाचार भी साफ़ कर देते हैं और डीजे सिस्टम पर युवा प्रतिभाओं को भी अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करने का मौका भी मिल जाता है।

तो बोलो गिद्ध-देवता की जय।

Sunday, October 15, 2006

हम भारतीयों का राष्ट्रप्रेम

ये बात तो सभी जानते हैं कि अँग्रेजों के भारत पर शासन करने से पहले हमारे यहाँ एक अखिल भारतीय संघ जैसी कोई अवधारणा नहीं थी। एक राष्ट्र के रूप में भारत की परिकल्पना अँग्रेजों की ही देन है। पर क्या भारतीय जनमानस के मन में भी यही अवधारणा है और यदि है तो कितनी पुख्ता? इस प्रश्न का उत्तर तो हम आगे के विवेचन में ढूँढने की कोशिश करेंगे परंतु एक सवाल मेरे मन में रह-रहकर उठता है कि हमारे आजादी के नायकों ने जिस भारतभूमि को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में हमें सौंपा क्या उसके लिए हमारे मन में कभी प्रेम और सम्मान की भावना विकसित हो पाई?

अँग्रेज जब भारत में आए तब भारत में कई रियासतें थीं। धीरे-धीरे अँग्रेजों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर कब्जा किया और भारतीय राजाओं पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। जिससे एक भारतीय संघ की अवधारणा विकसित हुई और अँग्रेजी आधिपत्य के फलस्वरूप भारतीय जनमानस में, जो अलग-अलग रियासतों में बँटी हुई थी, एक सामूहिक रूप से अँग्रेजविरोधी भावना बलवती हुई। जिसकी परिणति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुई जिसकी कमान हमारे आजादी के नायकों ने सँभाली और उन्होने एक स्वतंत्र भारत के सपने को हकीकत में बदलने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। भारत आजाद हुआ परंतु जिन्ना जैसे नेताओं की हठधर्मिता के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का भी निर्माण हुआ। बहरहाल हम उस दौर में लौटते हैं जब भारत को आजादी मिली और हमारा संविधान अस्तित्व में आया। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि-

"हम भारत के लोग ,भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों कोः
सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली
बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवंबर १९४९ ई॰ को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

परंतु आज आजादी के ५९ वर्षों बाद भी क्या हम संविधान के उद्देश्यानुसार एक महान राष्ट्र की संकल्पना को साकार कर सके हैं। क्या हम अपने संविधान का सम्मान करते हैं जवाब स्पष्ट है-नहीं। आज जिस तरह से वोट बैंक की राजनीति के लिए हमने संविधान को संशोधनों का मोहताज बना दिया है। कुछ लोग कहेंगे कि ये सब तो हमारे कुटिल राजनेताओं की करतूतें हैं। जीहाँ वे सौ फीसदी सच कह रहे हैं।

पंडित नेहरू ने सच कहा था कि- "संविधान की सफलता इस पर आधारित नहीं कि उसे बनाने वालों ने कैसा बनाया है अपितु इस बात पर निर्भर करेगी कि उसे लागू किस प्रकार किया जाता है।" और इसमें दोराय नहीं कि आज संविधान संसद में बैठे नेताओं की कठपुतली बन चुका है जिसे वे मनचाहे रूप से नचाते हैं।
परंतु केवल राजनेताओं का नाम ले देने से हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? एक बार किसी विद्वान का ये कथन पढ़ा था कि- "प्रजा को राजा भी वैसा ही मिलता है जैसी वह स्वयं है।"
कम से कम भारतीय संदर्भ में तो ये बात सच है। क्या बात-बात पर नेताओं पर उंगली उठाने वाले हम कभी अपने गिरेबां में भी झांक कर देखते हैं।
हर भारतीय के मुंह से प्रतिदिन ही सुनने को मिल जाता है- "इस देश का कुछ नहीं हो सकता", "नेताओं ने तो देश ही बर्बाद कर दिया", "राजनीति कितनी गंदी हो गई है", "बाप रे बाप मैं तो राजनीति से दूर ही रहता हूँ" इत्यादि।
जब चुनाव का वक्त आता है तब क्यों हम ही लोग जाति, धर्म,क्षेत्रवाद जैसी बातों को तरजीह देते हैं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी( या निराशावादी) तो आजकल वोट देने ही नहीं जाते। कुछ लोगों के लिए शराब की बोतल और गाँधीछाप कागज के चंद टुकड़े ही वोट देने का मापदंड बन जाते हैं। फिर किस मुंह से हम नेताओं को कोसते हैं। हम ही उन्हे चुनकर संसद में भेजते हैं और हम ही उनके अशोभनीय बर्ताव पर थू-थू भी करते हैं। ये कैसा विरोधाभास है। कुछ बुद्धिजीवी अपने ड्राइंगरूम्स में बैठकर चर्चा करते मिलते हैं कि हमारे देश की कैसी विडंबना है कि आज राजनीति का तेजी से अपराधीकरण हो रहा है। पर जब इनसे पूछा जाता है कि क्या आप राजनीति में जाने के इच्छुक हैं तो वे ही लोग हाथ खड़े कर देते हैं। कोई भी इस गंदगी में उतरके इसमें में जमी कीचड़ को साफ नहीं करना चाहता। कुछ लोग सवाल उठायेंगे कि आज राजनीति में भले आदमियों के लिए जगह कहाँ कोई क्यों चुनाव में उतरकर इन नेता लोगों से पंगा ले। वही लोग ये भूल जाते हैं कि ये वही लोकतंत्र है जहाँ जनता ने इंदिरा गाँधी जैसी नेत्री को इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में कहीं का नहीं छोड़ा था। ये वही देश है जहाँ के लोगों ने ब्रिटेन के कभी ना डूबने वाले सूरज को अस्त कर दिया था। फिर क्या कारण है उसी महान देश की जनता आज इतनी नपुंसक हो गई कि उसने ऐसी परिस्थितियों को अपनी नियति मान लिया है।

वास्तविकता तो ये है कि हम भारतीय कभी अपने राष्ट्र से प्रेम करना या उसका सम्मान करना नहीं सीख पाये। राष्ट्रभक्ति जैसी बातों के हमारे लिए कोई मायने ही नहीं हैं। इसीलिए हम ना अपने कानून, ना अपनी न्यायपालिका का सम्मान करते हैं। इतिहास गवाह है उन्हीं राष्ट्रों ने सफलता के शिखर को छुआ जहाँ की जनता के लिए राष्ट्रप्रेम सर्वोच्च था। जबकि हम भारतीय राष्ट्रप्रेम की परिभाषा पर कभी खरे नही उतरे। परंतु जब जाति की या धर्म की बात आती है तो हम खून-खराबे पर उतर आते हैं। १५ अगस्त या २६ जनवरी जैसे आयोजन सिर्फ औपचारिकता तक सीमित हो गए हैं। लोग बड़े मजे से कहते हुए मिल जाते है- "सौ में से नब्बे बेईमान और मेरा भारत महान।"

महाविद्यालयीन युवाओं के लिए 'रंग दे बसंती' और 'लगे रहो मुन्नाभाई' ही राष्ट्रभक्ति का पैमाना हैं।
'लगे रहो मुन्नाभाई' का नायक कहता है कि हमने गांधी को तस्वीरों, मूर्तियों आदि में कैद कर दिया है तो क्या अब मैं ये कहूं कि आज की पीढ़ी ने उससे भी एक कदम आगे बढ़कर इन महानायकों के विचारों को फिल्मों में कैद कर दिया है।
कोई दूसरा गलत काम करे तो गलत हमारे भाई-बंधु, जाति-बंधु करें तो सब चलता है। कोई रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है तो लोग मजाक करते हैं- "भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार बन गया है भई।"

पाठ्यपुस्तकों में जब भगत सिंह को आतंकवादी बताया जाता है तब ये लोग कहां चले जाते हैं। आजादी के नायक भी हर किसी के अलग-अलग हैं। कोई कहता है गांधी महान, कोई सुभाष और कोई भगत सिंह तभी कोई पीछे से चिल्लाता है- नहीं सावरकर। वास्तविकता ये है कि इन सभी लोगों ने अपने अपने तरीके से आजादी की लड़ाई में योगदान दिया। हमें किसी के योगदान को नकारना नहीं चाहिए। क्या हम सभी के योगदान को सामूहिक रूप से स्वीकार करते हैं? हम तो बस किसी को विलेन और किसी को हीरो बनाने का खेल खेलते रहते हैं।
हम लोग जानबूझकर कानून का मखौल उड़ाते हैं। पर क्या इस बात को समझते हैं कि ये कानून भी हमारे लिए ही बनाये गए हैं।
हम अपने रोजमर्रा के जीवन में अक्सर भ्रष्टाचार, गंदी राजनीति, नेताओं के चारित्रिक पतन पर चर्चा करते हैं पर क्या हमने कभी इसे सुधारने की कोशिश की है? अरे भई हम ऐसा क्यों करेंगे क्योंकि इससे तो देश का ही भला होगा इसमें हमारा भला क्या है जनाब?
एक बार कहीं पढ़ा था कि- "ईमानदार तभी तक ईमानदार है जब तक उसे बेईमान होने का मौका नहीं मिलता।"
क्या ये बात सोलह आने सच नहीं है?जब हम स्वयं या हमारा कोई चहेता रिश्वत लेता है तो हम चुप बैठ जाते हैं और जब कोई दूसरा ऐसा करता है तो हम कहते हैं- "इस देश का क्या होगा?"
हम सभी हमेशा दूसरों के आचरण पर उंगली उठाते हैं पर ये भूल जाते हैं कि उंगली के दूसरी ओर हम स्वयं खड़े हैं।
हम अपने नेता का सम्मान नहीं करना चाहते। कोई कहता है- "प्रधानमंत्री नहीं रबर स्टांप है।" कोई कहता है- "अरे वो तो उस विदेशी महिला का पालतू है।"
बात बिल्कुल सही है पर क्या उस विदेशी महिला के हाथ में कोई जादू की छड़ी है जिससे उसने अपने पिछलग्गू को कुर्सी पर बैठा दिया।
नहीं ये हम ही थे जिन्होने सत्ता की चाबी उस महिला के हाथ में दी। अटलजी के कार्यकाल में शुरू हुई विकास परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है। कांग्रेस तो नहीं। देश में गठबंधन सरकार की नौबत क्यों आई। ये हम ही थे जिन्होने जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा, धर्म और स्वार्थ के नाम पर इन छुटभैयों और अपराधियों को संसद और विधानसभाओं में पहुंचाया।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१(क) में नागरिकों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। परंतु हमें संविधान प्रदत्त अधिकार ही क्यों दिखाई देते हैं? क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाए कि हम अपने कर्तव्यों से दूर भागते हैं जो हमें राष्ट्र के प्रति कुछ करने की प्रेरणा देते हैं।
'स्वदेश' फिल्म का नायक जब भारत आता है तो यहाँ की भुखमरी, गरीबी और समस्याओं को देखकर उसका मन द्रवित हो जाता है और अपने गाँव, अपने देश के प्रति उसे अपने कर्तव्य का भान होता है। पर इन सब परिस्थितियों से हमारा तो रोज ही सामना होता है। फिर भी हमने इसे एक नियति की भाँति स्वीकार कर लिया है। बात ठीक भी है जब हम अपने देश से प्रेम नहीं करते तो देशवासियों से कैसा प्रेम?

मुझे ये स्वीकार करने में कतई हिचक नहीं कि मैं भी इस रीढ़हीन समाज का हिस्सा हूं और मैने भी अपने जीवन में कोई बड़े अच्छे काम नहीं किये है। फिर मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं। शायद मेरे हृदय ने अभी इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया है।

अंत में एक प्रश्न जिसका जवाब मैं ढ़ूँढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ कि क्या हम अब भी सदियों पुरानी उस मानसिकता से उबर पाये हैं जब एक राष्ट्र के रूप में भारत जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी? हम वर्ण, जाति, धर्म और रियासतों में बँटे हुए थे। सच तो ये है कि हम खुद को पहले एक ब्राह्मण, एक ठाकुर के रूप में देखते हैं उसके बाद एक हिंदू, सिक्ख या मुसलमान के रूप और फिर भी आत्मसंतुष्टि ना हो तो एक बिहारी और महाराष्ट्रियन के रूप में और बाद में यदि ख्याल आता है तो एक भारतीय के रूप में। क्या हम उस मध्यकालीन मानसिकता से उबर चुके हैं और खुद को केवल एक भारतीय के रूप में स्वीकार कर सके हैं? अँग्रेजों के जाने के पश्चात आज हम भौगोलिक रूप से तो एक हो चुके हैं पर क्या हम वाकई एक हो सके हैं? क्या हम अपने देश से वाकई में प्रेम करना सीख पाये हैं?

Wednesday, October 11, 2006

भारत में बाबागिरी का उद्योग

पिछली सर्दियों की बात है मैं अपने शहर से गुजरने वाले हाइवे पर खड़ा अपनी खटारा मारूति ८०० की मरम्मत करा रहा था कि तभी कुछ लग्जरी गाड़ियां ग्वालियर की ओर जाती दिखीं। मैंने सोचा किसी वी॰आई॰पी॰ का काफिला है। परंतु जब काफी देर तक गाड़ियों का रेला खत्म नहीं हुआ तो मैंने मैकेनिक से पूछा- "क्यों भाई आज कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री आने वाले थे क्या?"

वो बोला- "क्या बात कर रहे हो भाईसाब बाबा जयगुरूदेव को नहीं जानते। आज ग्वालियर में उनका प्रवचन का प्रोग्राम है वहीं जा रहे हैं।"
मैने उत्सुकतावश पूछा- "पर इतनी सारी गाड़ियां?"
उसने कहा- "भाईसाब बाबा जब भी कहीं जाते हैं उनके साथ सौ-पचास गाड़ियां तो हमेशा चलती हैं।"
मैने मन ही मन खुद को अपना सामान्य ज्ञान कमजोर होने के लिए कोसा और कौतूहलवश बाबा के बारे में मैकेनिक से थोड़ी और बातें कीं, उसने बताया बाबा का यू॰पी॰ में कहीं आश्रम है। मैं घर की ओर रूख्सत हुआ।

मेरे कुछ मित्र अक्सर मथुरा जिले में स्थित गिर्राजजी की परिक्रमा के लिए जाते हैं। एक बार वे मुझे भी खींच ले गए। मथुरा से गिर्राजजी जाते समय एक जगह बड़ी सी महलनुमा इमारत नजर आई, जो ताजमहल की तरह शायद पूरी ही संगमरमर से बनी थी। ताजमहल के संगमरमर की चमक जहां फीकी पड़ चुकी है वहीं ये इमारत रात में ट्यूबलाइट्स और बल्बों की रोशनी में बड़ी सुंदर लग रही थी।मैने अपने मित्र से, जो अक्सर गिर्राजजी जाता रहता है, पूछा- "क्यों यार ये क्या है, कोई टूरिस्ट प्लेस?"

"अरे यार तुमको नईं पता ये बाबा जयगुरूदेव का आश्रम है, बड़ा पईसे वाला बाबा है, अनगिनत चेले हैं, करोड़पतियों-अरबपतियों का चढ़ावा आता है। क्या ठाठ हैं................." -उसने जवाब दिया।
थोड़ी देर बार फिर बोल पड़ा- "यार मैं भी ऐसा बाबा होता तो पाखाने भी मर्सिडीज से जाता। क्या लाइफ होती है ना इन बाबाओं की..............."

खैर ये तो था एक बाबा का किस्सा। हमारे भारतवर्ष में तो न जाने ऐसे कितने ऐसे बाबा भरे पड़े हैं और रोज पैदा भी हो रहे हैं। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ व उद्योगपति तो इनके चरणों में जूते-चप्पलों की तरह पड़े रहते हैं और अंधश्रद्धा की मारी भोली-भाली जनता के तो कहने ही क्या। आजकल के बाबाओं पर धनबल-बाहुबल की कोई कमी नहीं। वैसे ये बात सर्वविदित है फिर भी बता दूँ कि ये बाबाटाइप लोग राजनीतिज्ञ और उद्योगपतियों के बीच एक कड़ी (दलाली) का काम करते हैं।

हमारे इलाके में कुछ साल पहले एक बाबा का बड़ा प्रताप फैला। सुना बाबा बड़े चमत्कारी हैं और सीधे हनुमानजी से बातें करते हैं मानो हनुमानजी का मोबाइल नंबर केवल इन्हीं के पास हो। उन्होने लोगों को कुछ चमत्कार भी दिखाए, जैसे किसी नयी कंपनी का लांचिंग प्रोग्राम हो। कुछ लोग कहते हैं कि लोगों को बाबा एक साथ कई जगह दिखे। कुछ कहते हैं बाबा के यहां भंडारे में करोड़ों लोग आए फिर भी भोजन खत्म नहीं हुआ। खैर इस घटना के बाद तो क्या मंत्री क्या मुख्यमंत्री सब इनके चरणों में लोटपोट नजर आए और देखते ही देखते आश्रम की नयी बिल्डिंग तैयार। बाबाजी आबादी से दूर इलाके में रहते हैं। आश्रम के आसपास किसानों के खेत हैं जिन्हे बिजली के दर्शन तक मयस्सर नहीं, वहीं बाबाजी के आश्रम में २४ घंटे बिजली, ए॰सी॰, जनरेटर्स व तमाम तरह की सुविधायें उपल्बध हैं। २०-२५ लग्जरी गाड़ियां तो इनके आश्रम परिसर में हमेशा मौजूद रहती हैं। अभी २ साल पहले ही बाबाजी ने अपने नाम से निजी इंजीनियरिंग कॉलेज खोला है और सुना है जल्द ही दूसरा भी खुलने वाला है। बाबाजी की एक और विशेषता है कि इन्होने अपने नाम में उपनाम की जगह 'सरकार' जोड़ रखा है। ये 'बाबा' संबोधन को कतई पसंद नहीं करते। यदि आपको लग रहा है कि बाबाजी ने रामगोपाल वर्मा की 'सरकार' देखकर ऐसा किया है तो आपकी जानकारी के लिए बता दें कि सरकार रिलीज होने के कई सालों पहले ही इन्होने स्वयं को 'सरकार' की उपाधि से नवाज लिया था। वैसे सरकार उपनाम सही भी है क्योंकि सरकार किसी भी पार्टी की हो हर मुख्यमंत्री नियमित रूप से इनकी चरण-वंदना करने आता है इसलिए इन्हे सरकार कहलाये जाने का पूरा हक है।

कुछ साल पहले एक कम उम्र बाबा भागवत कथा हेतु हमारे शहर में पधारे। भागवत का कार्यक्रम शायद १२ या १५ दिनों का रहा होगा। बाबा एक बड़े उद्योगपति के घर ठहरे। बाबा ए॰सी॰ में सोते और स्वीमिंग पूल में नहाते और प्रवचन पर जाने से पहले यदि उन्हे मनपसंद छप्पन भोग ना मिलें तो नाराज हो जाते। बाबा चूँकि युवा थे इसलिए स्त्रियों में वे विशेष लोकप्रय हो गए। बाबाजी भी उन्हे सम्मोहित करने की जुगत भिड़ाते रहते। उनके भागवत कथा कार्यक्रम में कथा कम व स्त्रियों के नृत्य (भजन आदि पर) ज्यादा होते। सुना है जब बाबा गए तो वे दक्षिणा के रूप में दस-पंद्रह लाख नकद व कई ट्रक माल-असबाब ले गए। बाद में उनके बारे में सुना गया कि वे एक बड़े शहर के पाँचसितारा होटल के स्वीमिंग पूल में महिलाओं के साथ जलक्रीड़ा करते देखे गए।

गुजरात के एक बाबा जिनका काफी समय से पूरे देश में जलजला है, अपने ब्रांडनेम को भुनाने पर तुले हुए हैं। इनका स्टेशनरी,कैसेट-सीडीज, डीवीडीज, पूजा-पाठ की सामग्री, गौमूत्र इत्यादि का काफी बड़ा कारोबार है। अखबारों व पत्रिकाओं का भी काफी बड़ा मार्केट है। कंपनी का मुख्य कार्यालय अहमदाबाद में है।

मेरा विचार है कि सरकार को बाबागिरी को भी उद्योग का दर्जा दे देना चाहिए, क्योंकि ये काफी संभावनाओं वाला क्षेत्र है और बाबागिरी कंपनियों के बीच एक प्रतियोगी माहौल तैयार करने की कोशिश करनी चाहिए जिससे देश का G.D.P. बढ़ेगा और सरकार को भी राजस्व की प्रप्ति होगी। यदि ऐसा होता है तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय बाबागिरी कंपनियाँ इन्फोसिस, टाटा और रिलायन्स जैसी कंपनियों को पीछे छोड़कर विश्व बाजार में भारतीय अर्थव्यवस्था का परचम लहरायेंगी।

Sunday, October 08, 2006

"खेती"- परसाईजी की वयंग्य रचना

आज रविवार का दिन होने से पिछले दिनों खरीदी परसाईजी की पुस्तक 'सदाचार का तावीज' पढ़ने का मौका हाथ लगा। परसाईजी ने अपनी इस पुस्तक में हमेशा की तरह सामाजिक व राजनैतिक विसंगतियों पर अपने व्यंग्य बाण चलाये हैं। इसी पुस्तक में से चुनी हुई एक वयंग्य कथा है- 'खेती' जिसमें सरकारी उपेक्षा से त्रस्त कृषक वर्ग व देश को कागजों में ही पर्याप्त अन्न उगा कर देने वाली सरकारी नीतियों पर व्यंग्य किया गया है।

'खेती'
लेखक- हरिशंकर परसाई

सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।

दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया।
जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गयीं। प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गयी। खाद्य विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और अर्थ विभाग को भेज दिया।

अर्थ विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि विभाग भेज दिया गया।
कृषि विभाग में उसमें बीज और खाद डाल दिये गये और उसे बिजली विभाग को भेज दिया।
बिजली विभाग ने उसमें बिजली लगायी और उसे सिंचाई विभाग को भेज दिया गया।

अब यह फाइल गृह विभाग को भेज दी गयी। गृह विभाग विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी। हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता।

जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूड कार्पोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गयाऔर उस पर लिख दिया गया कि इसकी फसल काट ली जाए। इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पककर फूड कार्पोरेशन के पास पहुँच गयी।

एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा- "हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।"

सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया- "अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।"

कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया- "इस साल तो संभव नहीं हो सका, पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे।"
और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर और दे दिया गया।


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Sunday, October 01, 2006

मेरे की-बोर्ड से निकली पहली कविता

चिड़िया

अभी हाल ही तक
हाथों से आँखें मलते हुए
भोर के सूरज के साथ
देखा है उसे
अपने ही आँगन में
फुदकते हुए
चीं-चीं, चूं-चूं करते हुए
सुना है उसे
उसकी वो मीठी आवाज जो
शब्दों के मायाजाल से मुक्त
दिल तक पहुंचती थी
और भर देती थी उसे ताजगी से

पर ना जाने कुछ समय से
कहाँ चली गयी है वो
क्या लगता है उसे हमसे डर
या हमारी मृत संवेदनाओं से
या पाती है खुद को पिछड़ा
मोबाइल और कम्प्यूटरों की इस दुनिया में
शायद गुम हो गयी है उसकी आवाज
इन मोटरकारों और
मोबाइलों की रिंगटोनों के बीच

क्यूं नही लाती वो अब
एक-एक तिनका हमारे घर में
शायद खुद को पराया समझने लगी है
या हमने ही कर दिये हैं
सब दरवाजे बंद
क्यूं नही आती वो अब
हमारी वीरान दुनिया में
शायद हमारी तेजरफ्तार जिंदगी से
कदमताल मिलाने की कोशिश में
थक गये हैं उसके पंख