अब तो रोजमर्रा की बात हो चली है कि हमारे माननीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी चीन को आश्वासन देते रहते हैं कि हमारी धरती से आपके खिलाफ हम कोई गतिविधि नहीं होने देंगे। उधर चीन कभी आंखें दिखाता है तो कभी पीठ थपथपाता है।
फिर से प्रणब मुखर्जी ने चीन के आगे घुटने टेकने वाले रुख के साथ वही बात दोहराई कि भारत तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता है और भारत में ओलंपिक मशाल को पूरी सुरक्षा प्रदान की जाएगी। साथ ही दलाईलामा को फिर से समझाया गया है कि वे भारत में बस मेहमान बनकर रहें और चीन के खिलाफ कोई हरकत न करें। हालांकि वैसे भी वे कुछ करने के मूड में नहीं लगते।
विदेश नीति के हिसाब से देखा जाए तो भारत और चीन के रिश्तों में लंबे समय की कटुता के बाद अब संबंध सामान्य हो चले हैं। हालांकि जानकारों का कहना है कि द्विपक्षीय संबंधों के इस मधुर दौर में भारत को चीन के खिलाफ कुछ भी कहने से बचना चाहिए। पर मेरा मानना है कि भारत भले ऐसा सोचता हो चीन कभी भारत के साथ संबंध मधुर रखने का पक्षधर नहीं रहा है। वह केवल दबाव की विदेश नीति भारत जैसे देशों पर लागू करता रहा है और संभवत: आगे भी करता रहेगा। दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंध भी इस कारण सामान्य हैं कि भारत के साथ उसका कारोबार 60 अरब डॉलर के आंकड़े पर दस्तक दे रहा है और आर्थिक संबंधों को बनाये रखने तथा भारत में अपना माल खपाने के लिए वह अच्छे संबंधों की बात कर रहा है। यदि भारत-चीन कारोबार ऐसी ऊंचाईयां नहीं छू रहा होता तब भी क्या वह भारत के साथ ऐसे ही संबंधों का पक्षधर होता इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है। संबंधों की इस कथित मधुरता के दौर में भी वह भारत के प्रधानमंत्री के अपने ही एक सीमांत प्रदेश में दौरे पर आपत्ति उठाता है और प्रणब मुखर्जी जैसे लोगों को उसका बचाव करना पड़ता है।
कूटनीतिक नजरिए से देखा जाए तो भारत ने तिब्बत मसले पर प्रारंभ में समझदारी का परिचय दिया और तिब्बत को चीन का घरेलू मामला मानकर उससे दूरी बनाये रखी। यहां तक कि पूरा विश्व समुदाय इस बात पर चीन को गरियाता रहा पर भारत यही दोहराता रहा कि तिब्बत चीन का अभिन्न अंग है और वह अपनी जमीन से चीन विरोधी कोई गतिविधि नहीं होने देगा। वैसे भी भारत को चीन से सुधरते संबंधों की कीमत पर तिब्बत मसले में कोई टांग नहीं अड़ानी चाहिए। खासकर तब जब तिब्बती धर्मगुरू और उनकी निर्वासित सरकार भारतीय क्षेत्र में रहती है। क्योंकि इससे सीधा-सीधा संदेश जाता कि भारत अपनी जमीन से चीन विरोधी त्त्वों को समर्थन दे रहा है।
6 comments:
भुवनेश जी, बार-बार तिब्बत मसले का लोग उल्लेख करते हैं। मगर इस पर खुल कर कोई बात नहीं कर रहा है। आखिर कोई समझाएगा यह तिब्बत मसला है क्या? इस पर संपूर्ण दृष्टि से कोई प्रकाश डालेगा?
भुवनेशजी आपके लेख से मैं सहमत हूँ पर जो 'होना चाहिए' और जो होता है उसमें हमेशा ही फर्क होता रहा है... यथार्थ में सोचे तो हर जगह बाहुबली की ही चलती है. और यहाँ भी यही हो रहा है.
चीन से दबने का एक और पुख्ता कारण है, 1962 के युद्ध की गुलाम मानसिकता और बगैर जिम्मेदारी के सत्ता का सुख भोग रहे वामपंथी।
@ द्विवेदी जी…
तिब्बत मसला यदि आसान भाषा में समझायें तो "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाला मामला है, चीन कहता है तिब्बत उसका है, जिसे जो उखाड़ना हो उखाड़ ले… तकलीफ़ का असली कारण विभाजन के समय अंग्रेजों द्वारा स्पष्ट सीमा न बनने देना है… रही विश्व जनमत की बात… तो न अमेरिका न चीन कोई उसे नहीं मानता, सिर्फ़ "गाँधीवादी"(?) भारत ही सबसे डरता है…
अच्छा लगा आपका लिखना और प्रतिक्रियायें।
वामदल वाले आस्तीन के साप है। ये तो इस्लामी आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक हैं।
jin logo main apani jati ka gorav nahi hota bahi kayar or gandhi (mithyabad)hote hai......or humare logo ko angrejo, islam, comyunisto or gandhibad ki bhista (tatti)khane ki aadat hai.......
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