Sunday, October 15, 2006

हम भारतीयों का राष्ट्रप्रेम

ये बात तो सभी जानते हैं कि अँग्रेजों के भारत पर शासन करने से पहले हमारे यहाँ एक अखिल भारतीय संघ जैसी कोई अवधारणा नहीं थी। एक राष्ट्र के रूप में भारत की परिकल्पना अँग्रेजों की ही देन है। पर क्या भारतीय जनमानस के मन में भी यही अवधारणा है और यदि है तो कितनी पुख्ता? इस प्रश्न का उत्तर तो हम आगे के विवेचन में ढूँढने की कोशिश करेंगे परंतु एक सवाल मेरे मन में रह-रहकर उठता है कि हमारे आजादी के नायकों ने जिस भारतभूमि को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में हमें सौंपा क्या उसके लिए हमारे मन में कभी प्रेम और सम्मान की भावना विकसित हो पाई?

अँग्रेज जब भारत में आए तब भारत में कई रियासतें थीं। धीरे-धीरे अँग्रेजों ने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर कब्जा किया और भारतीय राजाओं पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। जिससे एक भारतीय संघ की अवधारणा विकसित हुई और अँग्रेजी आधिपत्य के फलस्वरूप भारतीय जनमानस में, जो अलग-अलग रियासतों में बँटी हुई थी, एक सामूहिक रूप से अँग्रेजविरोधी भावना बलवती हुई। जिसकी परिणति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुई जिसकी कमान हमारे आजादी के नायकों ने सँभाली और उन्होने एक स्वतंत्र भारत के सपने को हकीकत में बदलने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। भारत आजाद हुआ परंतु जिन्ना जैसे नेताओं की हठधर्मिता के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का भी निर्माण हुआ। बहरहाल हम उस दौर में लौटते हैं जब भारत को आजादी मिली और हमारा संविधान अस्तित्व में आया। संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है कि-

"हम भारत के लोग ,भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों कोः
सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार,अभिव्यक्ति,विश्वास,धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सबमें
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली
बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवंबर १९४९ ई॰ को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

परंतु आज आजादी के ५९ वर्षों बाद भी क्या हम संविधान के उद्देश्यानुसार एक महान राष्ट्र की संकल्पना को साकार कर सके हैं। क्या हम अपने संविधान का सम्मान करते हैं जवाब स्पष्ट है-नहीं। आज जिस तरह से वोट बैंक की राजनीति के लिए हमने संविधान को संशोधनों का मोहताज बना दिया है। कुछ लोग कहेंगे कि ये सब तो हमारे कुटिल राजनेताओं की करतूतें हैं। जीहाँ वे सौ फीसदी सच कह रहे हैं।

पंडित नेहरू ने सच कहा था कि- "संविधान की सफलता इस पर आधारित नहीं कि उसे बनाने वालों ने कैसा बनाया है अपितु इस बात पर निर्भर करेगी कि उसे लागू किस प्रकार किया जाता है।" और इसमें दोराय नहीं कि आज संविधान संसद में बैठे नेताओं की कठपुतली बन चुका है जिसे वे मनचाहे रूप से नचाते हैं।
परंतु केवल राजनेताओं का नाम ले देने से हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? एक बार किसी विद्वान का ये कथन पढ़ा था कि- "प्रजा को राजा भी वैसा ही मिलता है जैसी वह स्वयं है।"
कम से कम भारतीय संदर्भ में तो ये बात सच है। क्या बात-बात पर नेताओं पर उंगली उठाने वाले हम कभी अपने गिरेबां में भी झांक कर देखते हैं।
हर भारतीय के मुंह से प्रतिदिन ही सुनने को मिल जाता है- "इस देश का कुछ नहीं हो सकता", "नेताओं ने तो देश ही बर्बाद कर दिया", "राजनीति कितनी गंदी हो गई है", "बाप रे बाप मैं तो राजनीति से दूर ही रहता हूँ" इत्यादि।
जब चुनाव का वक्त आता है तब क्यों हम ही लोग जाति, धर्म,क्षेत्रवाद जैसी बातों को तरजीह देते हैं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी( या निराशावादी) तो आजकल वोट देने ही नहीं जाते। कुछ लोगों के लिए शराब की बोतल और गाँधीछाप कागज के चंद टुकड़े ही वोट देने का मापदंड बन जाते हैं। फिर किस मुंह से हम नेताओं को कोसते हैं। हम ही उन्हे चुनकर संसद में भेजते हैं और हम ही उनके अशोभनीय बर्ताव पर थू-थू भी करते हैं। ये कैसा विरोधाभास है। कुछ बुद्धिजीवी अपने ड्राइंगरूम्स में बैठकर चर्चा करते मिलते हैं कि हमारे देश की कैसी विडंबना है कि आज राजनीति का तेजी से अपराधीकरण हो रहा है। पर जब इनसे पूछा जाता है कि क्या आप राजनीति में जाने के इच्छुक हैं तो वे ही लोग हाथ खड़े कर देते हैं। कोई भी इस गंदगी में उतरके इसमें में जमी कीचड़ को साफ नहीं करना चाहता। कुछ लोग सवाल उठायेंगे कि आज राजनीति में भले आदमियों के लिए जगह कहाँ कोई क्यों चुनाव में उतरकर इन नेता लोगों से पंगा ले। वही लोग ये भूल जाते हैं कि ये वही लोकतंत्र है जहाँ जनता ने इंदिरा गाँधी जैसी नेत्री को इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में कहीं का नहीं छोड़ा था। ये वही देश है जहाँ के लोगों ने ब्रिटेन के कभी ना डूबने वाले सूरज को अस्त कर दिया था। फिर क्या कारण है उसी महान देश की जनता आज इतनी नपुंसक हो गई कि उसने ऐसी परिस्थितियों को अपनी नियति मान लिया है।

वास्तविकता तो ये है कि हम भारतीय कभी अपने राष्ट्र से प्रेम करना या उसका सम्मान करना नहीं सीख पाये। राष्ट्रभक्ति जैसी बातों के हमारे लिए कोई मायने ही नहीं हैं। इसीलिए हम ना अपने कानून, ना अपनी न्यायपालिका का सम्मान करते हैं। इतिहास गवाह है उन्हीं राष्ट्रों ने सफलता के शिखर को छुआ जहाँ की जनता के लिए राष्ट्रप्रेम सर्वोच्च था। जबकि हम भारतीय राष्ट्रप्रेम की परिभाषा पर कभी खरे नही उतरे। परंतु जब जाति की या धर्म की बात आती है तो हम खून-खराबे पर उतर आते हैं। १५ अगस्त या २६ जनवरी जैसे आयोजन सिर्फ औपचारिकता तक सीमित हो गए हैं। लोग बड़े मजे से कहते हुए मिल जाते है- "सौ में से नब्बे बेईमान और मेरा भारत महान।"

महाविद्यालयीन युवाओं के लिए 'रंग दे बसंती' और 'लगे रहो मुन्नाभाई' ही राष्ट्रभक्ति का पैमाना हैं।
'लगे रहो मुन्नाभाई' का नायक कहता है कि हमने गांधी को तस्वीरों, मूर्तियों आदि में कैद कर दिया है तो क्या अब मैं ये कहूं कि आज की पीढ़ी ने उससे भी एक कदम आगे बढ़कर इन महानायकों के विचारों को फिल्मों में कैद कर दिया है।
कोई दूसरा गलत काम करे तो गलत हमारे भाई-बंधु, जाति-बंधु करें तो सब चलता है। कोई रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है तो लोग मजाक करते हैं- "भ्रष्टाचार तो शिष्टाचार बन गया है भई।"

पाठ्यपुस्तकों में जब भगत सिंह को आतंकवादी बताया जाता है तब ये लोग कहां चले जाते हैं। आजादी के नायक भी हर किसी के अलग-अलग हैं। कोई कहता है गांधी महान, कोई सुभाष और कोई भगत सिंह तभी कोई पीछे से चिल्लाता है- नहीं सावरकर। वास्तविकता ये है कि इन सभी लोगों ने अपने अपने तरीके से आजादी की लड़ाई में योगदान दिया। हमें किसी के योगदान को नकारना नहीं चाहिए। क्या हम सभी के योगदान को सामूहिक रूप से स्वीकार करते हैं? हम तो बस किसी को विलेन और किसी को हीरो बनाने का खेल खेलते रहते हैं।
हम लोग जानबूझकर कानून का मखौल उड़ाते हैं। पर क्या इस बात को समझते हैं कि ये कानून भी हमारे लिए ही बनाये गए हैं।
हम अपने रोजमर्रा के जीवन में अक्सर भ्रष्टाचार, गंदी राजनीति, नेताओं के चारित्रिक पतन पर चर्चा करते हैं पर क्या हमने कभी इसे सुधारने की कोशिश की है? अरे भई हम ऐसा क्यों करेंगे क्योंकि इससे तो देश का ही भला होगा इसमें हमारा भला क्या है जनाब?
एक बार कहीं पढ़ा था कि- "ईमानदार तभी तक ईमानदार है जब तक उसे बेईमान होने का मौका नहीं मिलता।"
क्या ये बात सोलह आने सच नहीं है?जब हम स्वयं या हमारा कोई चहेता रिश्वत लेता है तो हम चुप बैठ जाते हैं और जब कोई दूसरा ऐसा करता है तो हम कहते हैं- "इस देश का क्या होगा?"
हम सभी हमेशा दूसरों के आचरण पर उंगली उठाते हैं पर ये भूल जाते हैं कि उंगली के दूसरी ओर हम स्वयं खड़े हैं।
हम अपने नेता का सम्मान नहीं करना चाहते। कोई कहता है- "प्रधानमंत्री नहीं रबर स्टांप है।" कोई कहता है- "अरे वो तो उस विदेशी महिला का पालतू है।"
बात बिल्कुल सही है पर क्या उस विदेशी महिला के हाथ में कोई जादू की छड़ी है जिससे उसने अपने पिछलग्गू को कुर्सी पर बैठा दिया।
नहीं ये हम ही थे जिन्होने सत्ता की चाबी उस महिला के हाथ में दी। अटलजी के कार्यकाल में शुरू हुई विकास परियोजनाएं ठप्प पड़ी हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है। कांग्रेस तो नहीं। देश में गठबंधन सरकार की नौबत क्यों आई। ये हम ही थे जिन्होने जातीयता, क्षेत्रीयता, भाषा, धर्म और स्वार्थ के नाम पर इन छुटभैयों और अपराधियों को संसद और विधानसभाओं में पहुंचाया।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ५१(क) में नागरिकों के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। परंतु हमें संविधान प्रदत्त अधिकार ही क्यों दिखाई देते हैं? क्या इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाए कि हम अपने कर्तव्यों से दूर भागते हैं जो हमें राष्ट्र के प्रति कुछ करने की प्रेरणा देते हैं।
'स्वदेश' फिल्म का नायक जब भारत आता है तो यहाँ की भुखमरी, गरीबी और समस्याओं को देखकर उसका मन द्रवित हो जाता है और अपने गाँव, अपने देश के प्रति उसे अपने कर्तव्य का भान होता है। पर इन सब परिस्थितियों से हमारा तो रोज ही सामना होता है। फिर भी हमने इसे एक नियति की भाँति स्वीकार कर लिया है। बात ठीक भी है जब हम अपने देश से प्रेम नहीं करते तो देशवासियों से कैसा प्रेम?

मुझे ये स्वीकार करने में कतई हिचक नहीं कि मैं भी इस रीढ़हीन समाज का हिस्सा हूं और मैने भी अपने जीवन में कोई बड़े अच्छे काम नहीं किये है। फिर मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं। शायद मेरे हृदय ने अभी इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया है।

अंत में एक प्रश्न जिसका जवाब मैं ढ़ूँढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ कि क्या हम अब भी सदियों पुरानी उस मानसिकता से उबर पाये हैं जब एक राष्ट्र के रूप में भारत जैसी कोई अवधारणा अस्तित्व में नहीं थी? हम वर्ण, जाति, धर्म और रियासतों में बँटे हुए थे। सच तो ये है कि हम खुद को पहले एक ब्राह्मण, एक ठाकुर के रूप में देखते हैं उसके बाद एक हिंदू, सिक्ख या मुसलमान के रूप और फिर भी आत्मसंतुष्टि ना हो तो एक बिहारी और महाराष्ट्रियन के रूप में और बाद में यदि ख्याल आता है तो एक भारतीय के रूप में। क्या हम उस मध्यकालीन मानसिकता से उबर चुके हैं और खुद को केवल एक भारतीय के रूप में स्वीकार कर सके हैं? अँग्रेजों के जाने के पश्चात आज हम भौगोलिक रूप से तो एक हो चुके हैं पर क्या हम वाकई एक हो सके हैं? क्या हम अपने देश से वाकई में प्रेम करना सीख पाये हैं?

8 comments:

गिरिराज जोशी said...

"मुझे ये स्वीकार करने में कतई हिचक नहीं कि मैं भी इस रीढ़हीन समाज का हिस्सा हूं और मैने भी अपने जीवन में कोई बड़े अच्छे काम नहीं किये है। फिर मैं ये सब क्यों लिख रहा हूं। शायद मेरे हृदय ने अभी इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया है।"

सत्य स्वीकारना अच्छी बात है, मगर आपका राष्ट्र-प्रेम जगाने के लिए किया गया यह प्रयास भी कम नहीं है।

आप इसी तरह प्रयास करते रहे तो बहुत जल्द आपकी खुद से यह शिकायत भी दूर हो जाएगी कि आपने अपने जीवन में कोई बड़े अच्छे काम नहीं किये है।

प्रयास करते रहें।

शुभकामनाएँ!!!

Pratik Pandey said...

आपकी भावनाओं का मैं सम्मान करता हूँ, लेकिन तथ्यात्मक रूप से आप ग़लत हैं। यह सही ज़रूर है कि अंग्रेज़ों से पहले भारत में राजनीतिक संघ की अवधारणा नहीं थी, लेकिन क्षुद्र राजनीति से अधिक व्यापक भारत की अवधारणा तब भी थी और अब भी है। हाँ, इतना ज़रूर है कि पहले इसमें अफ़ग़ानिस्तान, श्रीलंका, बर्मा वगैरह भी शामिल थे।

bhuvnesh sharma said...

प्रतीकजी आपसे सहमत हूँ चूँकि एक ही उपमहाद्वीप में होने के कारण एक व्यापक भारत की अवधारणा तो कहीं ना कहीं हमेशा से अस्तित्व में थी पर मैंने अपनी पोस्ट में यह विवेचना करने की कोशिश की है कि हम सबके मन में वह धारणा कितने गहरे पैठ पाई है?

Anonymous said...

अच्छा विश्लेषण किया है।

अनूप शुक्ल said...

बढि़या लिखा लेकिन इतने दिन से कुछ और क्यों नहीं लिखा! लिखते रहें बहुत अच्छा है!

Anonymous said...

बहुत् अच्छा लिखा है भुवनेश जी। अब जरा यहं भी देखिये http://aaina2.wordpress.com/2006/10/22/meraabharatmahan/

Anonymous said...

भुवनेश जी, भारत की वर्तमान परिस्थितियों पर आपके विचार काफी हद तक सही है। परतुं पुर्णतः सही नही है। जगदीश जी का लेख पढने के बाद शायद आप भी इस बात से सहमत हों । क्योकि अभी भी कहीं न कहीं रोशनी की एक लौ जल रही है जो कि भ्रष्टाचार, बेईमानी, जात-पात रूपि सूरज के आगे हमें स्पष्ट दिखाई नही दे रही है।

Anonymous said...

aadarneeya bhuvnesh ji, aapne bada hi vicharoottak likh ker is soye hue samaj ko jagrat kerne ka bada hi anukerneey prayas kis hai.ummeed hi ese hi or rachnaey aapki lekhni se prasfutit hongi