आजकल महानगरों से लेकर छोटे-छोटे गाँवों तक गिद्ध-भोज संस्कृति की हवा बह रही है। इधर काफी समय से सुना जा रहा है कि गिद्ध लुप्त होते जा रहे हैं और यहाँ मानव-समाज में उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए उनकी संस्कृति को आत्मसात किया जा रहा है। वैसे ये बहस का विषय हो सकता है कि इस संस्कृति के प्रवर्तक होने का श्रेय गिद्धों को दें या पश्चिम को। जहाँ तक मेरा मानना है इसका श्रेय पश्चिम को देना गिद्धों के साथ नाइंसाफ़ी होगी। गिद्ध-भोज जिसे अंग्रेजीभाषी buffet system भी कहते हैं आजकल फैशन का पर्याय बन चुका है। वो जमाने हवा हुए (या कहें बस हवा होने ही वाले हैं) जब किसी समारोह या उत्सव में लोग साथ बैठकर पंगत में भोजन किया करते थे। पर आजकल लोगों को ये तरीका आउटडेटेड लगने लगा है, हालांकि आज भी कुछेक आउटडेटेड टाइप लोग अपने यहाँ शादी-विवाह में इसी तरीके से मेहमानों को भोजन कराते हैं।
बहरहाल मैं बात कर रहा था गिद्ध-भोज संस्कृति की जिसमें आजकल एक नया चलन भी जुङ गया है। लोग पहले तो दावत में जाकर छककर गिद्ध-भोज करते हैं उसके बाद बारी आती है डीजे सिस्टम पर नृत्य की जो कि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में कुछ चाँद और लगा देता है। भोजन का भोजन हो गया और साथ ही में इसे पचाने के लिए वर्कआउट भी। वैसे इस चलन को देखकर एक कहानी भी याद आ जाती है जो बचपन में पढ़ी थी, जिसमें गीदङ को भोजन करने के बाद गाना सूझता है। पर हम यहाँ उससे आगे बढ़ गये हैं गायन और उसके साथ-साथ नृत्य भी। गाने की जब बात चली है तो हमारे एक नामचीन गायक याद आ गये जो नाक से गाते हैं और जिनके बिना आजकल दावतों में नृत्य और गायन अधूरा है। वैसे ये भी अध्ययन का विषय है कि ये महाशय अपनी गायन शैली में किस प्राणी की नकल करते हैं। खैर अब मैं यहाँ और अधिक प्राणियों की संस्कृति और मानव-समाज पर उसके प्रभाव का विश्लेषण ना करते हुए गिद्ध-भोज पर ही ध्यान केंद्रित करूंगा।
मेरे मोहल्ले में एक महाशय का लंबा चौङा परिवार है सो सामाजिक संबंध भी बहुत दूर-दूर तक फैले हुए हैं। हर वर्ष इनके यहाँ किसी ना किसी की शादी होती ही रहती है। अब चूँकि शादी हो और उसमें गिद्ध-भोज ना हो तो भाई नाक ही कट जायेगी सो इनके यहाँ भी हर शादी पर गिद्ध-भोज का आयोजन होता है जिसमें अपार भीङ जुटती है। सङक को रोककर उसपे टेंट लगाया जाता है और उसमें घुसने का साहस वीर-योद्धा ही कर सकते हैं। वैसे भोजन के लिए तो यहाँ मुझे छोङकर सभी वीर योद्धा ही नज़र आते हैं। मैं अक्सर भीङ के छंटने का देर तक इंतजार करता हूं पर जब भीङ कम होने के बजाय बढ़ती ही जाती है तो मुझे भी मन पक्का करके उस रणभूमि में कूदने का साहस दिखाना ही पङता है और मैं अंदर प्रवेश कर जाता हूँ। अंदर चल रहे घमासान में सभी वीर-योद्धा अपनी-अपनी प्लेट में खाना डालने के लिए एङी-चोटी का जोर लगाते नजर आते हैं। धक्का-मुक्की में कभी किसी की शर्ट पर पनीर गिरता है किसी के पैन्ट पर गुलाब-जामुन। एक भाईसाहब तो बेचारे छोले की सब्जी से पूरा नहाकर लौटे थे। वैसे मैं अक्सर बिना खाये लौटता हूँ।
मेरे गाँव में एक सज्जन के लङके की शादी थी। लोगों ने सलाह दी कि खाना पंगत में ही रखो तो बेहतर है क्योंकि गाँव के लोगों को ये बफ़े-बुफ़े सुहाता नहीं। अब चूँकि सवाल नाक का था और शादी में शहर से भी कुछ मेहमान आने थे सो उन्होने गिद्ध-भोज का ही आयोजन रखा। गाँव के लोगों की खाने की क्षमता शहर के लोगों से अधिक ही होती है साथ ही हमारे यहाँ ग्रामीण इलाके में प्रचलन है कि जितना खायेंगे उससे ज्यादा घर ले जायेंगे। सो सभी लोग बफर(हमारे यहाँ ग्रामीण लोग इसे इसी नाम से पुकारते हैं) की बात सुनकर पूरी तैयारी से आये थे। यहाँ एक तरफ गाँव के लङकों में कम्पटीशन चल रहा था कि कौन कितने ज्यादा गुलाब-जामुन और बर्फ़ी खाता है दूसरी तरफ़ कुछ लोगों ने छककर खाने के बाद बाकी का अगले दिन के लिए घर ले चलने का प्रबंध कर लिया। शहरी गिद्ध बेचारे लेट-नाइट पहुंचते हैं उनके आने से पहले ही अधिकांश माल ग्रामीण गिद्धों ने सफ़ाचट कर दिया सो वे लगे वर के पिता को कोसने अधिकांश तो बिना कुछ खाये वर के पिता को पेटभर गालियाँ खिलाने के बाद लौटे। जो भी हो गाँव वालों ने(जिन्होने माल स्टॉक कर रखा था) अगले कुछ दिन भी गुलाब-जामुनों और बर्फ़ीयों की दावत उङायी।
मेरे एक रिश्तेदार हैं जो काफ़ी धनी भी हैं, पिछले वर्ष उनके पिता का स्वर्गवास (हर आदमी मरने के बाद स्वर्ग ही जाता है) हो गया। सो उन्होने तेरहवीं में हज़ारों लोगों को दावत दे डाली। दावत की खास बात ये थी कि इसमें आगंतुकों के लिए गिद्ध-भोज की बहुत ही अच्छी व्यवस्था की गयी थी। कई प्रकार के व्यंजन बने थे। अब संख्या गिनने बैठें तो फ़ाइव-स्टार होटल का मेनू छोटा पङ जाये। मेहमानों ने भोजन के बाद मेजबान की तारीफ़ों के जो पुल बाँधना शुरू किये तो वे फ़ूल के कुप्पा हो गये और उन्होने हर मेहमान को एक-एक मिठाई का डिब्बा भेंट किया (बतौर इनाम)। उनके पिताजी ऊपर बैठे ये सब देखकर मन-मसोसकर रह गये होंगे या हो सकता है वहाँ उनके आने की खुशी में इससे भी बङा गिद्ध-भोज हो।
वैसे गिद्ध-भोज के भी अपने फ़ायदे हैं। बेचारे जवान लङकों को वॉलन्टियर्स की तरह बार-बार भोजन परोसने जैसा पकाऊ काम नहीं करना पङता और वे हर आने वाली लङकी को आराम से प्रत्येक एंगल से निहार सकते हैं। कई युवा जोङे तो एक-दूसरे को अपने हाथ से खाना खिलाकर अपने भावी जीवन की रिहर्सल कर रहे होते हैं( वैसे शादी के बाद ऐसा कुछ नहीं होता)। कुछ अंकल टाइप लोग जिनका टाइम निकल चुका होता है, अपनी पत्नी की मित्र मंडली में घुसकर कुछ देर के लिये ही सही अपना टाइम-पास कर लेते हैं। कुछ बुद्धिजीवी प्लेट से खाना साफ़ करते-करते देश से भ्रष्टाचार भी साफ़ कर देते हैं और डीजे सिस्टम पर युवा प्रतिभाओं को भी अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन करने का मौका भी मिल जाता है।
तो बोलो गिद्ध-देवता की जय।
7 comments:
यह चलन हम लोगों ने आधा-अधूरा ले लिया. पश्चिम में जहां लोग अपना सारा काम खुद करने के आदी हैं,'सेल्फ़ सर्विस' का प्रचलन है, से यह लिया गया. हम लोग प्लेट झपटना सीख गये लेकिन साफ-सफ़ाई, अनुशासित तरीके से खाना लेना, गंदगी एक जगह रखना आदि और जरूरी चीजें उन्ही के लिये छोड़ दिया. आजके बदलते समय में यह मजबूरी भी हो गया है. बहरहाल लेख अच्छा लगा.
छकास लेख लिखा है आपने बुफैलो सिस्टम के बारे में।
यह चलन हम लिए ही क्यों हैं ,भोजन के समय भ
भी मारामारी, होहल्ला । इससे करोड़ो गुना अच्छी है अपनी परम्परागत पंगत में जीमने का चलन ।
दूसरे के द्वारा परोसा हुआ भोजन और बार-बार यह पूछना कि क्या चाहिए, थोड़ा और ले लें,थोड़ा सा ही दे रहा हूँ का मजा ही कुछ और है ।
माँ शेवरी की कुटिया में राम,विदुर की पर्णशाला में कृष्ण और पंगत में बैठकर जीमना । इसकी बराबरी बुफैलो सिस्टम से कैसे हो सकती है ?
धन्यवाद भुवनेश भाई, आपने एक खास बात पर त्वज्जह दिलाई।
भुवनेश जी बहुत अच्छा लिखते हैं आप।
आधुनिकता और परंपरा जब मिलते हैं तो ऎसा ही कुछ परिणाम आता है।
अच्छा मुद्दा और लेख है.बधाई
बढिया लिखा है। इसमें बस इतना और जोड़ना चाहूँगा कि खाना खाते वक़्त बगल में चल रहे फ़ुल वॉल्यूम डीजे से पेट में खाना भी नृत्य करने लगता है, जो कभी-कभी काफ़ी तक़लीफ़देह साबित होता है। :-)
भोजन कैसा भी, बंद नहीं होना चाहिए। फोकट का खाना बहूत स्वादिष्ट लगता है :)
लेख बहूत ही अच्छा लिखा है, बधाई!!!
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