Saturday, November 25, 2006

क्या लिखूँ?

आज दोपहर से यही सोच रहा हूँ कि कुछ लिखा जाए? कई विषय भी दिमाग में थे, पर फ़िर भी कुछ लिखने का मूड ही नहीं कर रहा। अभी अनूप शुक्लाजी से बात हुई। उन्होंने कहा कुछ लिखो। मैंने बताया लिख तो दूँ पर क्या लिखूँ कुछ सूझ ही नहीं रहा। उन्होंने सलाह दी कि यही लिखो 'क्या लिखूँ?'।

लिखने के लिए यूँ तो बहुत कुछ है। पर लगता है क्यों लिखूँ। क्या लिखने भर से मन की सारी भड़ास निकल जायेगी। या फ़िर कुछ हल्का-फ़ुल्का लिखूँ। आज का अखबार पढ़ने के बाद कुछ हल्का-फ़ुल्का लिखने का भी मन नहीं कर रहा। शाम को पुस्तकालय से लौटा। अखबार रोज नये पर खबरें वही। द इकोनॉमिस्ट के सर्वे में बतलाया गया कि दुनियाँ के सबसे बड़े लोकतंत्र में ढेरों खामियाँ। हमारे लोकतंत्र की झोली में एक और तमगा आ गिरा। वैसे ये तमगा जनता द्वारा रोज ही मिला करता है। पर इस बार तमगा इंपोर्टेड होने से बुद्धिजीवियों को बहस के लिए एक मुद्दा मिल गया। एक-दो दिन चर्चा होगी कि फ़लां-फ़लां परिस्थिति और नेता इसके दोषी हैं। फ़िर वह भी खतम। सब कुछ उसी ढर्रे पर चलता रहेगा हमेशा की तरह।

चीनी राष्ट्रपति के दौरे के बारे में संपादकीय पेज भरे पड़े हैं। आर्थिक मुद्दों पर सहयोग की बात करके और भारत-पाक शांति वार्ता की तारीफ़ कर वे पाक रवाना हो रहे हैं। जहाँ चीन-पाक मैत्री के नये आयाम गढ़े जायेंगे। बदला कुछ भी नहीं है। इधर जाते-जाते वे वामपंथियों को सलाह दे गये कि थोड़े तो उदार बनो और आर्थिक विकास की प्रक्रिया में बेवजह टांग अड़ाने से बाज आओ। पर कल दिल्ली में सरकार की आर्थिक नीतियों के विरोध में उन्होंने हर बार की तरह वही बेसुरा राग अलापा। अब वे इस बात से भी पल्ला झाड़ रहे हैं कि हू ने उन्हें ऐसी कोई सलाह दी।

जैसा कि परंपरा है संसद के शीतकालीन-सत्र की शुरूआत बड़ी हंगामेदार रही। भाजपा-शिवसेना ने संसद नहीं चलने दी और सपा सांसद अबू आजमी की गिरफ़्तारी पर भी खूब बवाल मचा और स्पीकर ने भी वही पुराना घिसा-पिटा डायलॉग दुहराया कि ये सब दुर्भाग्यपूर्ण है। मुझे लग रहा है कि यही लिखूँ कि भारत में संसद का होना ही दुर्भाग्यपूर्ण है। हमारे क्रिकेटिया शेरों की दहाड़ भी संसद में भी सुनाई दी। इस पर भी खूब चर्चा हुई संसद में अपने आचरण का जब-तब खुलेआम प्रदर्शन करने वालों को मैदान पर भारतीय शेरों के प्रदर्शन पर शर्म आ गई।

आजकल राजनीति की कला में मुँह के साथ-साथ हाथ-पैरों का भी भरपूर प्रयोग करने की परंपरा चल निकली है। सो कल उत्तर-प्रदेश में दो पार्टियों के कार्यकर्ताओं ने इस कला का भरपूर प्रदर्शन किया। परंतु केवल हाथ-पैरों से इस कला में वह निखार नहीं आ पाता। इसलिए लगता है जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आते जायेंगे, कलाकार कुछ और उपकरणों का भी प्रयोग करते नजर आयेंगे।
वैसे कला के प्रदर्शन में तो टीम-इंडिया के शेर भी कम नहीं हैं। क्रिकेट की पिच पर भी वे रैंप की तरह कैटवाक करते हुए आते हैं और थोड़ी अदायें दिखाकर झट से दूसरे मॉडल को भेज देते हैं। वैसे गलती उनकी भी नहीं है। जब रात के एक बजे सारी भारत की जनता जम्हाईयाँ लेते हुए अपनी आँखों को जबर्दस्ती टीवी स्क्रीन पर टिकाये हुए है तो उनका भी फ़र्ज बनता है कि जल्दी से पैवेलियन लौटकर जनता को चैन की नींद सोने दें। पर उनके इतना करने के बावजूद वही जनता सुबह उठकर सबसे पहले उन्हीं को गरियाने का काम करती है।
पर इन सब बातों को भी लिखने से क्या फ़ायदा? इस बार भी कुछ नया तो नहीं हो रहा!

कलकत्ता में ग्रीनपीस के कार्यकर्ता लोगों से कह रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण गंगा मैया संकट में है। पर ऐसा करके भी वे क्या कर लेंगे। जनता और सरकार उसी गैल चलती रहेगी जिस पर पहले से चल रही है। बनारस के गंगा घाट पर शाम की आरती को देखने भी वैसे ही पर्यटक जुटते रहेंगे। इलाहबाद में गंगा की गंदगी के बावजूद उसका धार्मिक अवसरों पर वैसा ही महत्व बना रहेगा। लोगों के लिए ये सब चीजें बेमानी हैं यह लिखकर भी मैं क्या उखाड़ लूँगा

आज शाम को प्रतीक पांडेजी बतला रहे थे कि उनका चिट्ठा 'टाइमपास: समय नष्ट करने का श्रेष्ठ साधन' हिंदी चिट्ठों में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चिट्ठा है। पढ़ा जाने वाला इसलिए नहीं कहा कि उस पर सब देखने के लिए ही होता है पढ़ने के लिए नहीं। प्रतीकजी ने चिंता जताई कि लोग ऐसे चिट्ठे ही ज्यादा देखते हैं पर साथ ही यह संतोष भी कि इस बहाने लोग उनके संजाल हिंदी ब्लॉग्स पर तो आते हैं। पर ये कोई नया ट्रेंड भी नहीं है, समाचार चैनल वाले यह बात वर्षों से कह रहे हैं।

लगता है आज कुछ भी लिखने के लिए नहीं है। जो हो रहा है उसे खिलाफ़ बुद्धिजीवियों के कोरस में सुर मिलाने से कोई हल निकलने वाला नहीं है। और ऐसा कुछ परिवर्तन भी दिखाई नहीं देता जिसके बारे में ही कुछ लिख दिया जाये। पर हर दिन मूड भी एक-सा नहीं रहता। कल शायद मैं भी फ़िर से वही राग अलापूँ। नेताओं को कोसूँ, लोगों के आचरण पर फ़िकरे कसूँ, फ़िल्मी हस्तियों की जीवन-शैली पर कोई व्यंग्य करूँ या किसी के अंधविश्वास को गालियाँ दूँ। हो सकता है कल सुबह के अखबार में कुछ नया हो, कुछ लिखने का मूड भी बने। पर पता नहीं क्यूँ आज कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा।

6 comments:

Pratik Pandey said...

'क्या लिखूँ' कहते-कहते भी आपने निरा सारा लिख डाला। यह विषय तो ऐसा है कि आप रोज़ इसी विषय पर लिख सकते हैं। :)

अनूप शुक्ल said...

ऐसा अक्सर होता है जब बहुत कुछ लिखने की सोचते-सोचते कुछ नहीं लिखा जाता. इसका उलटा भी सच है.जो यह लिखा वह एक तरह से आत्ममंथन है और कुछ न लिखते-लिखते काफ़ी कुछ अपने से गुफ्तगू कर गये आप.

Udan Tashtari said...

बिना कुछ लिखने का हुए ये हाल है तो मसला मिल जाये, तब तो उपन्यास लिख मारो. सही है, भुवनेश बाबू!

Pramendra Pratap Singh said...

जब बिना विषय के इतना कुछ लिख डाला विषय होता तो, क्‍या होता बहुत सुन्‍दर वर्णन है। मैने भी एक बिना वघिय की कविता लि‍खी थी http://merekavimitra.blogspot.com/2006/10/blog-post_09.html

Anonymous said...

कमाल है मियां, मन की भडास निकालने का यह तरीका भी खुब है. एक काम करो चिट्ठे का नाम रख लो "मैं कुछ नहीं लिखता", फिर उसमे जम कर लिखो.

Jitendra Chaudhary said...

अरे इत्ता सारा मटैरियल दिए थे, इस्तेमाल करो ना| चिट्ठाकारी गाइड भी देख सकते हो।