कुछ लोगों की सेहत के लिए आत्मप्रशंसा का टॉनिक बेहद जरूरी होता है। ये जब तक किसी से अपनी प्रशंसा में दो-चार शब्द ना कह लें इन्हें भोजन हजम नहीं होता, कई बार तो हालत इतनी बिगड़ जाती है कि रात को नींद तक नहीं आती और यदि भूल से आ भी जाये तो बुरे-बुरे सपने आते हैं। इसलिए इन्हें सुबह जल्द उठकर फ़िर से किसी शिकार की तलाश में निकलना होता है।
ऐसे ही एक सज्जन से मेरी पहचान है। ये मेरी सज्जनता है कि मुझे हर भले-बुरे आदमी के लिए यही संबोधन ठीक लगता है, वैसे भी किसी का दिल रखने में कुछ जेब से थोड़े ही जाता है। इन सज्जन की भी ये खासियत है कि इन्हें मुझ जैसे कुछ लोग सज्जन नजर आते हैं बाकी सब दुर्जन क्योंकि अक्सर अन्य जगहों से इन्हें आत्मप्रशंसा के बदले दुत्कार ही मिलती है। इसलिए ये मुझे अपना सच्चा दोस्त और हमदर्द मानते हैं।
एक बार इन्हें आवारगी के क्षेत्र में झंडे गाढ़ने के बाद सूझा कि चलो पढ़ाई के क्षेत्र में भी कुछ नाम कमाया जाए। इन्होंने इधर-उधर चर्चा की तो पाया कि आजकल एम.बी.ए. लोगों की पूछ-परख ज्यादा है उसके बाद ये भी पहुँच गये कैट की तैयारी करने।
इन्होंने पास ही के महानगर में अपना डेरा जमाया और कोचिंग जॉइन कर डाली। दूसरे शहर में रहने के कारण इनकी हमसे मुलाकात नहीं हो पाई। कुछ महीनों बाद ये जब मिले तो अदा बदली-बदली सी थी।
मुझे देखते ही इनकी बाँछें खिल गयीं।
बोले- "यार क्या करूँ यहाँ आ ही नहीं पाया कई महीनों से, आजकल बहुत बिजी रहता हूँ, अब शायद आगे यहाँ आने का टाइम ही न मिले।"
मैने कहा "ऐसा क्या कर रहे हो भाई और लड़के तो वीकएंड पे आते हैं?"
"अरे यार वो तो सब यों ही हैं उनका कुछ होना थोड़े ही है"
"हूँ....."
"तुमको पता नहीं कोचिंग पे सब मेरी कितनी तारीफ़ करते हैं"
"अच्छा.....फ़िर तो बढ़िया है"
"क्या बढ़िया है तुमको पता है? मैं अपनी कोचिंग का डिबेट चैंपियन हूं"
"अरे.....वहाँ डिबेट भी होती है?"
"क्या यार तुमको कुछ पता ही नहीं है, भैया मैं एम.बी.ए. की तैयारी कर रहा हूँ"
"कोई एल.एल.बी. थोड़े ही है, किताब पढ़े और पास हो गये....नॉलेज गेन करनी पड़ती है तब होता है सेलेक्शन"
"हाँ ये तो है"
"पता है तुमको मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया पढ़ता हूँ"
"अच्छा....पर वो तो बहुत से लड़के पढ़ते हैं"
"मुझे सब पता है वो क्या पढ़ते हैं, दूसरे पेज को खोल के हीरोइन्स के फ़ोटू देखते हैं, कुछ डिस्कशन-विश्कसन कर लो तो साले सब चुप, तुमको यार कुछ पता नहीं है छोटे शहर में रहते हो ना"
"और सुनाओ यार कोचिंग के अलावा क्या कर रहे हो......कोई फ़िल्म वगैरह देखी?"
"काहेकी फ़िल्म यार टाइम मिले तब तो देखें....वो साला जी टीवी का टैलेंट हंट आया था उसमें तो जा नहीं पाये"
"अच्छा.....तुम जाने वाले थे उसमें? जाना चहिए था क्यों नहीं गये?"
"क्या करूँ यार सोच तो रखा है कि मैं भी एक्टिंग में कुछ भाग्य आजमा लूँ, पर अब एम.बी.ए. के चक्कर में फ़ँस गया अब कैट में सेलेक्शन हर किसी का तो होता नहीं है, लोग बस वीकेंड पे घर आ जाते हैं हो गयी चार दिन की कोचिंग की छुट्टी.....यहाँ के सब लड़के नाकारा हैं, कुछ बनना ही नहीं है सालों को"
इस मुलाकात के बाद वे फ़िर कई महीनों के लिए अंतर्ध्यान हो गये। बाद में पता चला कि उनकी फ़र्स्ट डे फ़र्स्ट शो वाली कोचिंग और कन्याओं के ऊपर डिस्कशन के बावजूद उनका कैट में सिलेक्शन बस कुछ ही अंकों के कारण होते-होते रह गया।
महाशय आजकल डोनेशन के दम पे किसी गुमनाम से कॉलेज से अपनी दिली इच्छा एम.बी.ए. को पूरा करने में जुटे हैं। वेकेशन पे घर आये तो मुलाकात हुई। बताने लगे कि इनके कॉलेज में किसी आई.आई.एम से भी ज्यादा पढ़ाई होती है। तभी इन्होंने आई.आई.एम. में एडमिशन लेना ठीक नहीं समझा।
"यार क्या करें बड़ी पढ़ाई रहती है कॉलेज में.......रत्ती भर टाइम नहीं मिल पाता"
"बढ़िया है आगे चल के तो एश ही एश हैं"
"हां पर तुमको पता है कितने एसाइनमेंट रहते हैं, बड़ी मेहनत करते हैं यार हम लोग तब सब पूरा हो पाता है"
"हां मेहनत तो करनी ही पड़ती है"
"पर इतनी मेहनत कोई और करे तो प्राण निकल जायें..........वीकएंड पे भी टाइम नहीं मिलता"
"हूँ........सही है कुछ लोग तो फ़ाइव पाइंट समवन की तरह एश ही करते रहते हैं"
"ये फ़ाइव पाइंट समवन क्या है?"
मैने कहा "अरे यार तुमने फ़ाइव पाइंट समवन नहीं पढ़ी, आई.आई.एम के बंदे ने लिखी है, एम.बी.ए. वाले तो इसे जरूर पढ़ते हैं"
"अच्छा"
इसके बाद थोड़ी इधर-उधर की बातें हुईं और उन्होंने अपनी आत्मप्रशंसा में कुछ कसीदे और गढ़े।
जाते-जाते मेरे मुँह से निकल गया कि "भैया टाइम मिले तो फ़ाइव पाइंट समवन जरूर पढ़ना बड़ी मस्त किताब है"ये छूटते ही बोले "हाँ पढ़ी है और तुमसे पहले पढ़ी है मैं एम.बी.ए. कर रहा हूँ, मुझे क्या बता रहे हो?"
इसके बाद मैं यही आकलन करता रहा कि एक बार को मान भी लिया जाये कि इन्होंने पुस्तक पढ़ी है, पर मुझसे पहले पढ़ी ये इन्हें कैसे पता चला।
7 comments:
लेख अच्छा लगा. कुछ इसी तर्ज पर मेरा एक लेख था देखें http://fursatiya.blogspot.com/2004/11/blog-post_24.html#comments
अच्छा लेख है भुवनेश. इसी तरह लिखते रहो, अच्छा लगता है आपको पढ़कर. बधाई.
एकदम सटीक लेख है जी, मैं भी इस तरह के कई लोगों को जानता हूँ जिन पर यह मुहावरा फिट बैठता है: अंगूर खट्टे हैं।
यथार्थ लेख । बहुत अच्छा लिखा है आपने ।
ऐसे लोग तो सर्वत्र मौजूद हैं । इनसे कोई बच नहीं सकता।
बहुत सही। आपका लेख पढकर एक किस्सा(एक साथी ब्लॉगर के ब्लॉग से कापी करके लिख रहा हूँ।)
एक बन्दे ने अपनी भावी प्रेमिका के यह लव लैटर लिखा:
मेरी श्रीदेवी
तूझे प्यार ही प्यार ,
जब से तूम्हें देेखा है ,मेरा दिल वेचैन है । न तो मैं अपने कलर टीवी पर सिनेमा देख पाता हूँ और न ही सीडी प्लेयर पर केई अंग्रेजी मुवी ही देख पाता हूँ । इस गर्मी के मौसम में रेफिर्जरेटर का पानी भी अच्छा नहीं लगता हैं । एयरकंडीशन भी मेरे मन की बेचैनी दूर नही कर पाता हैं। मेरा चार कमरे का फ्लैट मुझे काटने दौड़ता है । जब भी मै अपने मर्सडीज में घूमने निकलता हूं तो बगल की सीट पर तुम बैठी नजर आती हो । पिछले सप्ताह मुझे अपने चार सौ एकड के फार्म हाउस पर जाने का मौका मिला , वहाँ भी ख्यालों मे सिर्फ तुम ही तुम थी । कभी तो दिल करता है कि मै हिन्दुस्तान छोड कर अपने भाईसाहब के पास अमेरिका चला जाऊ । तुमने अगर मेरा प्यार कवूल नहीं किया तो मैं फिनिट पीकर मर जाऊँगा
तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा
कखग
है ना आपके दोस्त जैसा?
ashish sharma urf tinkoo, kee acchi dhoi hai
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