पंजाब में पिछले दिनों चुनाव हुए और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर प्रकाशसिंह बादल सत्तासीन हुए। हफ्ता भर भी नहीं बीता कि रोपड़ की एक अदालत ने मुख्यमंत्री और उनके परिवारजनों पर आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में अभियोग-पत्र दाखिल करने के आदेश दे दिए। प्रकाशसिंह बादल उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल और उनकी पत्नी पर आय से अधिक संपत्ति के मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 120(बी) और भ्रष्टाचार नियंत्रण अधिनियम की धारा 13 के तहत अभियोग-पत्र दाखिल भी किया जा चुका है। उधर बेचारे मुलायम सिंह अदालत के चक्कर काट रहे हैं कि किसी तरह चुनाव होने तक तो ये बला टले, हालांकि वे कितने बेचारे हैं ये सभी को पता है। पर माननीय उच्चतम न्यायालय से उन्हें आय से अधिक संपत्ति रखने के मामले में कोई राहत नहीं मिली है।
पिछली बार जब मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई और उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं तब कुछ ही समय बाद हुबली की एक अदालत में वर्षों से लंबित मामला फिर खुल गया और उनके खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी होने के कारण उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उसके बाद वे फिर मुख्यमंत्री तो नहीं बन पाईं, उल्टा भा.ज.पा. से जरूर निकाली जा चुकी हैं।
गौर करने वाली बात यह है कि तीनों ही घटनाओं में फजीहत कांग्रेस की विरोधी पार्टी के नेताओं की हुई या हो रही है। पंजाब में अमरिंदर सिंह पांच साल मुख्यमंत्री रहे पर बादल के खिलाफ चार्जशीट ऐन उस समय दाखिल हुई जब वे सत्ता में आए। मध्य प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई और उमा भारती पहली बार अपने प्रदेश की गद्दी पर विराजमान हुईं। कुछ ही समय बाद उनके खिलाफ वर्षों से लंबित एक मामले में गैर जमानती वारंट जारी हो गया। और उधर उत्तर प्रदेश में तो एक कांग्रेसी सज्जन ने मुलायम के खिलाफ जनहित याचिका लगाकर अपना पार्टी-धर्म निभाया ही।
इन नेताओं के खिलाफ उपरोक्त मामलों को न भी देखें तो भी उनका राजनीतिक चरित्र जगजाहिर ही है और जो मामले दायर हुए उनका भी कोई आधार है। पर इन सबमें यह विचारणीय है कि इनकी उसी समय फजीहत हुई जब कांग्रेस और उनमें सत्ता के लिए दो-दो हाथ हुए। और कांग्रेस पार्टी सत्ता की कितनी भूखी है यह देश की जनता ने गुजरे समय में गोवा, बिहार और झारखंड के उदाहरणों से बखूबी जाना।
इस प्रकार की घटनाएं कांग्रेस के जगजाहिर चरित्र पर तो सवालिया निशान लगाती ही हैं उससे भी ज्यादा न्यायपालिका पर भी सवाल खड़े करती हैं। हालांकि ऐसी घटनाओं के लिए उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालयों पर सवाल उठाना तो ठीक नहीं होगा क्योंकि इन्हीं के कारण आज भी एक आम भारतवासी न्यायपालिका पर विश्वास करता है। परंतु जो मामले निचली अदालतों से संबंधित हैं, उनमें एक समय विशेष पर ही अदालत द्वारा कार्रवाई करना संदेह पैदा करता है। जिस देश में एक निचली अदालत द्वारा राष्ट्रपति और उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ वारंट जारी कर दिया गया हो और मुख्य न्यायाधिपति द्वारा स्वयं निचली अदालतों में भ्रष्टाचार होने की बात स्वीकार की गयी हो, वहां इस प्रकार की घटनाएं भी मन में कहीं न कहीं संदेह को ही पुख्ता करती हैं।
4 comments:
इसी के लिये कवि रामेंन्द्र त्रिपाठी ने कहा-
राजनीति की मंडी बड़ी नशीली है,
इस मंडी ने सारी मदिरा पी ली है।
इस स्थिती में संदेह होना तो स्वभाविक है.
राजनीति के खेल है, खुन न जलाओ राजनेता अपने आप निपटते रहेंगे. :)
आप काफी समय बाद लिखा है, अच्छा लगा.
सम्यक् विश्लेषण है। कांग्रेस का यह पुराना पैंतरा है, जिसका इस्तेमाल हुकुम के इक्के की तरह आख़िर में किया जाता है। लेकिन अंत मैं आपके द्वारा उठाया गया यह प्रश्न भी विचारणीय है कि इन धूर्त राजनैतिक पार्टियों के हाथों निचली अदालतों को खेलने से कैसे रोका जाए?
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