लोकतंत्र में ही जब चुनी हुई सरकारें लोकतंत्र के ही एक मजबूत स्तंभ न्यायपालिका का सम्मान तो दूर उसके विरोध में उतर आयें तो इस देश में लोकतंत्र पर गर्व करने वाले लोग हास्यास्पद लगने लगते हैं।
तमिलनाडु सरकार द्वारा 31 मार्च को बंद के आह्वान के क्या निहितार्थ लगायें जायें? क्या सरकारें नहीं चाहतीं कि संसद या सरकार से जुड़े मामले में न्यायपालिका कोई हस्तक्षेप करे? हालांकि यह उच्चतम न्यायालय का इस मामले का अंतरिम निर्णय है उसके बावजूद इस प्रकार का विरोध कतई उचित नहीं है। यदि एक बार को मान लें कि करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री की बजाय प्रधानमंत्री की गद्दी पर काबिज होते तो क्या वे इस निर्णय के खिलाफ देशव्यापी बंद का फरमान जारी करते? सरकारें जनता के हित में नीतियां बनाती हैं और जब जनता उपरोक्त प्रकार की किसी परिस्थिति में विरोध का रास्ता अख्तियार करे तो बात समझ में आती है। पर जब सरकारें इस मसले को अहम का प्रश्न बनाकर खुद ऐसे विरोध प्रदर्शनों पर उतारू हो जाएं तो क्या यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए शर्म का विषय नहीं है।
उधर स्वतंत्र भारत में अपने कठमुल्लापन जैसी नीतियों के लिए मशहूर पार्टी के नेता सीतराम येचुरी का कहना है कि संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित कानून पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थगनादेश देना बहुत गंभीर मामला है। जब संविधान में न्यायपालिका को सर्वोच्च स्थान दिया गया है और कहा गया है कि यह संसद द्वारा पारित किसी भी कानून की समीक्षा कर सकती है तब ऐसे मामले में न्यायपालिका द्वारा एक जनहित याचिका पर कोई निर्णय(निर्णय भी नहीं अंतरिम निर्णय) देना कैसे गंभीर हो जाता है ये समझ से परे है। जाति आधरित आरक्षण को एक बार को उचित भी ठहरा दें तो भी राजनीतिक दल जिस प्रकार क्रीमीलेयर को आरक्षण का लाभ देने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, उसी के उनकी नीयत से पर्दा उठ जाता है।
यहां एक बात जो उठ रही है वह ये है कि राजनेताओं के अनुसार जब 1992 में उच्चतम न्यायालय अन्य पिछड़ा वर्ग को नौकरियों में आरक्षण पर मुहर लगा चुका है तो उसे अब इसके विरोध में जाने का क्या हक है? पर शायद उन्होंने संविधान तक नहीं पढ़ा कि उच्चतम न्यायालय के लिए यह बाध्यकारी नहीं है कि पहले ऐसे किसी मामले में उसने जो निर्णय दिया, अब वह उसके खिलाफ नहीं जा सकता। कई बार अपने निर्णयों में माननीय उच्चतम न्यायालय ने पूर्ववर्ती मामलों में दिये गए अपने निर्णय को पलटा भी है। तो इस बार क्या संसद उसे बताएगी कि उसे किस आधार पर निर्णय देना है। पिछले कुछ समय से न्यायपालिका और विधायिका के बीच तनातनी होती रही है। पर सरकार जो खुद किसी मामले में न्यायालय में पक्षकार है, उसके सदस्य खुद उस मामले में अपनी राय सार्वजनिक रूप से जाहिर करें और उसे नसीहत दें ये कितना उचित है? वैसे ऐसी सरकारों से भी क्या उम्मीद की जा सकती है जिनके एक मंत्री को न्यायालय के निर्णय के कारण उम्रकैद की सजा भुगतनी पड़ रही हो।
ऊपर से कोई अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग फेडरेशन ने प्रधानमंत्री से मांग की है कि उन्हें न्यायपालिका के हस्तक्षेप को मानने से इंकार कर देना चाहिए। जब किसी संगठन या वर्ग से ऐसी मांग उठने लगे तो बहुत हो चुका अब तो न्यायपालिका पर ताला ही लगा देना चाहिए।
5 comments:
आपकी बात में दम हैं मित्र..
ताला वाला न लगाऒ भाई! चलने दो कामकाज!
मेरे भाई,
इसी निर्देश में सरकार की १९३१ की जनगणना को आधार मानने के कारण खिंचाई है और कहा गया है कि नया सर्वेक्षण कराये। नया सर्वेक्षण , अध्ययन यथास्थितिवादियों के खिलाफ़ गया तब कौन बन्द आयोजित करेगा?आप ताला लगाओगे या फिर कहोगे कि एकता पैदा करने वाला अन्तरिम आदेश था,अन्तिम निर्णय देश में फूट डाल रहा है ?
ताले लगवाओ तो बस एक दो बातों का ध्यान रहे -
१. ताला अईसा लगवाओ जो आसानी से किसी से भी टूट जाये
२. अगर मजबूत ताला लगवाते हो तो उसकी चाबी संभाल के रखवायी जाये
मैं हमेशा से कहता आया हूँ कि नेताओं को दोष देना गलत है, ये तो वही करेंगे जिसके लिये ये नेता बने थे। पर हमारी अकल कहाँ मारी गई थी जब हमने इन्हे चुनकर संसद में भेजा थ?
न्यायपालिका को ताला लगा देने से तो इन्हें खुलेआम अपराध करने की आजादी मिल जायेगी।
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