Tuesday, November 07, 2006

मोबाइल तो खरीदो यार

कलयुग में एक ऐसा समय आया जब हर इंसान के लिए मोबाइल फोन रखना अनिवार्य कर दिया गया। जो व्यक्ति मोबाइल फोन ना खरीदे उसको समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता। स्टेटस-सिंबल के प्रमाण-पत्र देने वाली नयी-नयी कंपनियां खुल गयीं। सार्वजनिक स्थानों, उत्सवों आदि में उन्हीं लोगों को प्रवेश दिया जाता जिनके पास ये प्रमाण-पत्र होता। ये प्रमाण-पत्र निःशुल्क मिलता था पर उसके साथ मोबाइल फ़ोन खरीदना जरूरी था।
सरकार ने भी कानून पास करके ऐसे प्रमाण-पत्र रखने वाले नागरिकों को उच्च श्रेणी के नागरिक की संज्ञा दे दी और प्रमाण-पत्र ना रखने वालों को निम्न दर्जे का नागरिक माना गया।

लोगों के मोबाइल संबंधी ज्ञान का विस्तार करने के लिए जगह-जगह विश्वविद्यालय खोले गये परंतु सरकार को बाद में वे विश्वविद्यालय बंद कर देने पड़े क्योंकि लोग बिना वहां जाए ही अखबारों, टेलिविजन और सामूहिक चर्चा (ग्रुप डिस्कसन) के द्वारा साक्षर होने लगे। देश का मानव संसाधन विनाश मंत्रालय अपने देश के नागरिकों की इस उपलब्धि से अभिभूत था और उसने भी साक्षरता का प्रतिशत बढ़ाने हेतु वित्त मंत्री से मोबाइल पर टैक्स कम करने की सिफ़ारिश कर दी।

जगह-जगह एस.एम.एस.-एस.एम.एस. खेल स्पर्धाएं आयोजित होतीं और विजेताओं को टेलिविजन के माध्यम से पुरस्कृत किया जाता।

सभी जगहों पर लोग मोबाइल चर्चा करते हुए अपने सामान्य ज्ञान को बढ़ाते हुए दिखते। धीरे-धीरे मोबाइल के क्षेत्र में भी राजनीति ने पैर पसारने शुरू किये और लोग किसी पार्टी विशेष के साथ जुड़ने लगे। सभी लोग मौका मिलने पर अपनी पार्टी का प्रचार करते और उसके प्रति निष्ठावान रहते। शुरू शुरू में एक-दो राष्ट्रीय स्तर की पार्टीयां हुआ करती थीं पर धीरे-धीरे क्षेत्रीय राजनीति ने पैर जमाने शुरू किये और प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई। इससे कार्यकर्ताओं की निष्ठा भी किसी एक पार्टी के साथ ना रही। वे अधिक सुविधा देने वाली किसी दूसरी पार्टी की घोषणा पर कान लगाये रहते और फ़ायदा दिखने पर झट से पाला बदल लेते। पार्टियों ने भी कार्यकर्ताओं को अपने पाले में लाने के लिए नयी नयी तरकीबें भिड़ानी शुरू कर दीं और उन्हें तरह-तरह के लालच देकर अपने पाले में लाने का खेल चलने लगा। पर्टियां अपने अपने कार्यकर्ताओं को आपस में मुफ़्त बातचीत की सुविधा देने लगीं जिससे वे एक दूसरे से जुड़े रहें और बिछड़ने के डर से दूसरी पार्टी जॉइन ना करें।

पार्टियों की इसी आपाधापी के बीच बंटी और बबली को इश्क हो गया। इस इश्क के चक्कर में उनके एक-एक अंगूठे और कानों को रात-रात भर ओवरटाइम करना पड़ता।
एक दिन बंटी बबली से बात करते हुए सड़क से गुजर रहे थे कि उन्हें एक साइकिल वाले ने टक्कर मार दी और इनका मोबाइल जा गिरा नाली में। बंटी तो झड़ाकर वापस उठ खड़े हुए पर मोबाइल शहीद हो गया क्योंकि नोकिया का नहीं था। उधर बबली रीडायल पे रीडायल मार रही थी पर फ़ोन नहीं लग रहा था। थककर उसने अपना फ़ोन पटक दिया और बाहर चली गयी। कड़की का मारा बंटी नया मोबाइल खरीदने की जुगत भिड़ा रहा था। दोनों के अंगूठे और कानों को कुछ दिन की छुट्‍टी मिली। एक दिन वे चारों फ़ुर्सत में घूमते हुए चाय की दुकान पे मिल गये। पहले तो जान-परिचय हुआ फ़िर अपना दुख-दर्द बांटा। फ़िर उन्होंने निर्णय किया कि वे और अधिक गुलामी नहीं सहेंगे और आंदोलन करेंगे। उन्होंने मानव संसाधन विनाश मंत्री के समक्ष अपनी मांगें रखीं और मानव संसाधन विनाश मंत्री ने उन्हें भरोसा दिलाया कि हर मोबाइल में ब्लूटूथ और टच-स्क्रीन अनिवार्य बनाया जायेगा। इस प्रकार अंगूठों और कानों को वर्षों की गुलामी से निजात मिल गयी।

मोबाइल फ़ोन आने के कारण देश में एकाएक फ़ोटोग्राफ़रों की बाढ़ आ गयी। सभी एक से एक उम्दा। ये फ़ोटोग्राफ़र अक्सर स्कूल-कॉलेजो के बाहर और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते पाये जाते। हालांकि कई बार इन्हें कुछ तथाकथित बौद्धिक लोगों के क्रोध का भी सामना करना पड़ता जो ऐसी कला के विकास में रोड़ा बनने को तत्पर खड़े मिलते पर इससे इनके उत्साह में कोई कमी ना आती। ये प्रतिदिन ही धूप में खड़े, पसीना पोंछते राह चलती मॉडल्स के नये-नये एंगल से पोज लेने को लालायित रहते।

इसी समय कुछ नयी जनरेशन के लोगों ने अपने दिल में दबे हुए डायरेक्टर को टटोला और धड़ाधड़ फ़िल्में बनाने लगे। हालांकि इनकी फ़िल्में रंगीन फ़ॉर्मेट की बजाय नीले फ़ॉर्मेट में थीं और मोबाइल उपयोग कर्ताओं में विशेष लोकप्रिय थीं। फ़िल्म में अभिनय करने वाले पात्रों की संख्या भी सीमित रखी जाती और डायरेक्टर भी उनमें से एक होता। इन फ़िल्मों की विशेषता थी कि ये तुरत-फ़ुरत तैयार होकर उसी समय रिलीज कर दी जाती थीं और इन्हें केवल मोबाइल-फ़ोन्स पर ही प्रदर्शित किया जाता था। फ़िल्म का कोई टिकट नहीं रखा जाता था पर शर्त ये थी कि दर्शक को उसे देखने के बाद दूसरे दर्शकों तक भी पहुंचाना पड़ता। इस प्रकार की फ़िल्मों से जब फ़िल्म-इंडस्ट्री को रंगीन फ़िल्मों में घाटा होने लगा तो उन्होंने भी सरकार से मांग रख दी कि हर प्रकार की सेंसरशिप को खत्म किया जाये परंतु सरकार ने मोबाइल पर नीली फ़िल्मों के भविष्य को ध्यान में रखते हुए रंगीन-फ़िल्मों पर सेंसरशिप को जारी रखने की घोषणा की। मानव संसाधन विनाश मंत्री ने मीडिया से विशेष बातचीत में बताया कि मोबाइल पर इस प्रकार की फ़िल्मों का बाजार ५० प्रतिशत वार्षिक की गति से बढ़ रहा है और जल्द ही हम इसके विश्व बाजार पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेंगे जिससे हर वर्ष अरबों डॉलर की विदेशी मुद्रा प्राप्त होगी।

कुछ समय पश्चात मोबाइल पर टेलिविजन चैनल्स का पदार्पण हुआ जिससे लोगों को टी.वी. खरीदने के झंझट से मुक्ति मिल गयी और टेलिविजन निर्माता कंपनियों का भट्‍टा बैठने लगा। उन्होंने अफ़वाह फ़ैलाई के मोबाइल कई प्रकार की बीमारियों का जनक है मसलन कैंसर, मानसिक तनाव और फ़लाना-ढिमका। पर लोग डरे नहीं और मोबाइल का प्रयोग जारी रखा। इस बार उन्होंने नया पैंतरा खेला। उन्होंने कुछ वैज्ञानिकों के साथ साजिश करके एक सर्वे रिपोर्ट तैयार की और बताया कि मोबाइल शुक्राणु चोर है। पर देश के मोबाइल प्रयोगकर्ता जो मोबाइल प्रयोग के कारण साक्षर हो चुके थे इस साजिश को ताड़ गये और रिपोर्ट को कोई तवज्जो नहीं दी।

मोबाइल के आने के साथ साथ देश में सबसे महान दुर्घटना ये घटी कि एक नयी भाषा 'हिंग्लिश' का उदय हुआ। मोबाइल के द्वारा साक्षर हुई आबादी की ये सबसे बड़ी उपलब्धि थी। इस भाषा की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि ये इंग्लिश और हिंदी दोनों का फ़्यूजन थी और इसका प्रयोगकर्ता दोनों ही भाषाओं का ज्ञाता माना जाता था, जो कि वास्तव में एक भी भाषा सही ढंग से नहीं जानता था। मोबाइल आने के कुछ ही वर्षों में एक नयी भाषा का उदय होने से अन्य भाषाओं के ठेकेदारों के पसीने छूट गये और उन्होंने अपनी-अपनी भाषाओं को बचाने के लिए एकजुट होकर मोबाइल में हिंदी-अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में संदेश देने की सुविधा प्रदान कर डाली। पर देश की नव-साक्षर जनता ने इस प्रकार के फ़ुसलावों में ना फ़ंसते हुए इन आदिम-कालीन भाषाओं के चक्कर में ना पड़ना ठीक समझा और प्रगति के नये पथ पर एक नयी भाषा के साथ बढ़ना उचित समझा। कुछ समय बाद सरकार ने भी घोषणा कर दी कि संपूर्ण देश को एकता के सूत्र में पिरोने में 'हिंग्लिश' का बहुत बड़ा योगदान है इसलिए जल्द ही संविधान में संशोधन करके इसे राजभाषा का दर्जा दिया जायेगा।

बहरहाल मोबाइल के माध्यम से देश प्रगति-पथ पर अग्रसर है। इधर मानव-संसाधन विनाश मंत्रालय ने घोषणा कर दी है कि जो लोग साक्षर नहीं है उन्हें मोबाइल खरीदी में आरक्षण का लाभ देते हुए समाज की मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया जायेगा। विभिन्न सामाजिक संगठनों ने इस पहल का स्वागत किया है। उनके अनुसार ये आरक्षण समाज में वर्ग-भेद मिटाने में कारगर साबित होगा। आशा है जल्द ही वर्षों से पिछड़े और अधिक कीमतों के शोषित ये लोग समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकेंगे और एक सम्मान की जिंदगी जी सकेंगे।

11 comments:

Reetesh Gupta said...

भुवनेश भाई,

मोबाइल फ़ोन से समाज पर पड़ते दुष्प्रभाव पर बहुत ही बढ़िया व्यंग किया है आपने ।

बधाई !!

रीतेश गुप्ता

अनुराग श्रीवास्तव said...

भाषा का प्रवाह बहुत बढ़िया है।

संजय बेंगाणी said...

"इस भाषा की सबसे बड़ी खासियत ये थी कि ये इंग्लिश और हिंदी दोनों का फ़्यूजन थी और इसका प्रयोगकर्ता दोनों ही भाषाओं का ज्ञाता माना जाता था, जो कि वास्तव में एक भी भाषा सही ढंग से नहीं जानता था।"
खुब कही.

गिरिराज जोशी said...

मन्दिर के बाहर यकायक भिखारियों का हुजुम उमड़ पड़ा था
खाली था एक पद भिखमंगे का सो साक्षात्कार होने वाला था
साक्षात्कार के बाद चयन पर जो दागे प्रश्न मिडिया वालो ने,
जवाब मिला, "नो कनफ्यूज़न" सिर्फ एक ही "मोबाईल" वाला था

भूवनेशजी आपकी कलम नित नये आयाम छू रही है, हास्य के साथ-साथ सामाजिक दायित्वों का निर्वाह भी आप बखूबी कर रह है। विश्वास जानिये जिस दिन हर कलम अपने अंदाज में सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करना शुरू कर देगी, "सतयुग" लौट आयेगा।

आप बधाई के पात्र हैं, बधाई स्वीकार करें।

Pratyaksha said...

बहुत बढिया

Anonymous said...

भाई मोबाइल तो हमरे पास भी नहीं है का हम भी पिछड़े गिने जायेंगे?

Anonymous said...

लो भईया हम तो संभ्रात हो गये। एक मोबाइल तो हमारे पास भी है।

भुवनेश भाई बहुत बढिया लेख।

Atul Arora said...

बहुत बढ़िया। मस्त है लेख!

Udan Tashtari said...

वाह, बड़ी खुबसुरती से लिखते हैं संपूर्ण प्रवाह के साथ. बधाई

"मानव संसाधन विनाश मंत्री " -यह भी खुब रही.

अनूप शुक्ल said...

बहुत सही. बढ़िया लेख लिखा. बधाई.

Manish Kumar said...

अच्छा लिखा है भुवनेश !